आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र में काले अध्याय की तरह याद किया जाता है। 25 जून, 1975 की वह रात भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की सबसे काली रात बन गई। पदासीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के बहकावे में आकर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल के घोषणापत्र पर बिना किसी सलाह-मशवरे के हस्ताक्षर कर दिए। अगले दिन सुबह 26 जून, 1975 को इंदिरा गाँधी ने आपातकाल की घोषणा कर देश के सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार समाप्त कर दिए। अचानक हुए इस निर्णय से जनता सन्न रह गई थी।
सरकार के विरुद्ध आंदोलनरत सभी विपक्षी नेताओं को एक-एक कर जेल में डाल दिया गया और जनता के विद्रोह को बड़ी ही निरंकुशता से कुचला गया। देश के सभी गैर कांग्रेसी नेता सलाखों के पीछे जा चुके थे और जो बच गए थे उनकी धरपकड़ के लिए चप्पे-चप्पे पर सीआईडी और पुलिस की तैनाती कर दी गई थी। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वरिष्ठ भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने तो गिरफ्तारी से बचने के लिए सिख का वेश धारण कर लिया था। आपातकाल के इन 21 महीनों में लोकतंत्र का गला घोंटा गया और देश को जबरन ‘फांसीवाद’ की तरफ धकेला गया।
आपातकाल की मुख्य वजहें
जयप्रकाश नारायण के बिहार आंदोलन, इलाहाबाद हाईकोर्ट के इंदिरा गाँधी की उम्मीदवारी को अयोग्य घोषित करने के आदेश और देश में इंदिरा गाँधी के खिलाफ बढ़ते असंतोष को आपातकाल की मुख्य वजहों की फेहरिस्त में सर्वोपरि रखा जाता है। ये तीनों ही वजहें इंदिरा गाँधी को लगातार परेशान कर रहीं थी और उन्होंने इनके प्रभावी समाधान के लिए उन्होंने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अपने विश्वसनीय सिद्धार्थ शंकर रे को बुलाया। इंदिरा गाँधी ने उनसे भारतीय संविधान की किसी कमजोर कड़ी के बारे में जानकारी मांगी तो रे ने अपने गहन अध्ययन के बाद उन्हें आर्टिकल 152 का प्रस्ताव सुझाया। उसी शाम इंदिरा गाँधी सिद्धार्थ शंकर रे को लेकर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलने पहुँची। सुबह कैबिनेट को मनाने की बात करके उन्होंने राष्ट्रपति को अपने विश्वास में ले लिया और आपातकाल के घोषणापत्र पर उनके हस्ताक्षर ले लिए। अगले दिन रेडियो के माध्यम से इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी।
जयप्रकाश नारायण का आंदोलन
गांधीवादी विचारधारा के समर्थक जयप्रकाश नारायण ने 1974 में बिहार में छात्र आंदोलन का नेतृत्व किया। उस समय बिहार की छात्र राजनीति के पुरोधा लालू प्रसाद यादव, सुशील कुमार मोदी, रामविलास पासवान, बसिष्ठ नारायण सिंह और नरेंद्र सिंह इसमें शामिल थे। इन्होने मिलकर बिहार छात्र संघर्ष समिति का गठन किया और लालू प्रसाद यादव उसके अध्यक्ष चुने गए। शुरुआत में यह आंदोलन बिहार में व्याप्त भ्रष्टाचार और कुशासन पर राज्य सरकार के खिलाफ था पर धीरे-धीरे इसने वृहद् रूप ले लिया और यह केंद्र की इंदिरा गाँधी सरकार के खिलाफ हो गया। यह स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े जन-आन्दोलनों में गिना जाता है और उस वक़्त इसे देशभर से अपार समर्थन मिला था।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का इंदिरा गाँधी को अयोग्य करारना
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनावों में इंदिरा गाँधी पर सरकारी शक्तियों का दुरुपयोग करने का आरोप लगाकर उनकी उम्मीदवारी को अयोग्य घोषित कर दिया था। यही नहीं उनपर अगले 6 सालों तक चुनाव न लड़ने का भी प्रतिबन्ध लग गया था। अपने घटते रसूख और गिरती लोकप्रियता से चिंतित होकर इंदिरा गाँधी ने लोकपालिका और न्यायपालिका दोनों के खिलाफ जाकर आपातकाल लागू करने का तानाशाहीपूर्ण कदम उठाया था।
देश में बढ़ता असंतोष
1975 के दौर में ही तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने तो यह घोषणा तक कर दी थी कि इंदिरा ही इंडिया है। पर वो शायद सच से वाक़िफ़ नहीं थे। इस दौर में इंदिरा गाँधी की सरकार के खिलाफ जनता में असंतोष बढ़ता जा रहा था। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन और फिर इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश ने इसमें ‘आग में घी डालने’ का काम किया। देश की जनता में बढ़ते रोष और अपने खिलाफ बढ़ रहे विरोध प्रदर्शनों की वजह से इंदिरा गाँधी चिंतित हो गईं थी और उन्हें तख्तापलट का डर सताने लगा था। ऐसे में उन्होंने अपने विश्वसनीयों से विचार-विमर्श कर आपातकाल लागू करने का निर्णय देश पर थोंप दिया।
जुल्म भरे वो 21 महीने
यह वो दौर था जब कांग्रेस पार्टी में संजय गाँधी की धाक बढ़ती जा रही थी। सक्रिय राजनीति में ना रहते हुए भी वो हमेशा अपनी माँ के साथ रहते थे और सरकार के हर फैसले पर उनका प्रभाव होता था। अगर ख़बरों की मानें तो आपातकाल के दौरान देश को चलाने का जिम्मा इंदिरा गाँधी के पुत्र संजय गाँधी ने अपने दोस्तों के साथ संभाल रखा था जिनमें बंसी लाल का नाम प्रमुख है। आपातकाल के दौरान संजय गाँधी ने गाँवों में कैंप लगाकर लाखों लोगों की नसबंदी कराई थी। वो तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर पूरी तरह हावी हो गये थे और राजनीति में उनका दबदबा बढ़ता जा रहा था।
आपातकाल का यह कदम पूरी तरह से फांसीवाद से प्रेरित था और संजय गाँधी अगले 20 सालों तक आपातकाल लागू रखने के पक्षधर थे। उन्होंने सभी विपक्षी नेताओं पर पहरा बिठा रखा था और अधिकतर नेताओं को सलाखों के पीछे डाल दिया था। अगर तत्कालीन कांग्रेस सरकार की रिपोर्टों की मानें तो तकरीबन 30,000 लोग आपातकाल के दौरान बंदी बनाये गए थे। पर वास्तविक हकीकत इससे परे है। वास्तविक आंकड़ों के अनुसार अनुमानतः 1 लाख से अधिक लोग बंदी बनाये गए थे और अकेले बिहार से यह संख्या 3-4 हजार लोगों की थी।
आपातकाल के इस कदम में कांग्रेस को अपने चमचों का साथ मिला था और उन्हीं की बदौलत कांग्रेस विरोधियों का दमन करने में सफल रही थी। विरोधियों को दबाने का जो तरीका सरकार ने अपनाया था वो बड़ा ही निरंकुश था। जेलों में बंद लोगों को बड़ी यातनाएं दी जाती थी। कब, कौन, कहाँ से गिरफ्तार हो जाए इसकी कोई गारंटी नहीं थी। इसी वजह से अधिकांश परिवारों के पुरुष सदस्य भूमिगत हो गए थे।
1975 के आपातकाल में संजय गाँधी की भूमिका
1975 में देश भर में लगे आपातकाल के दौरान संजय गाँधी, प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के मुख्य सलाहकार के रूप में उभरे। राजनीति में सीधी भूमिका ना होने के बावजूद भी संजय प्रशासन का एक मुख्य अंग बन गए। ऐसा कहा जाता है कि आपातकाल के दौरान संजय ने अपने कुछ साथियों (मुख्यतः बंसी लाल) के साथ मिलकर देश को चलाया था। कुछ गवाहों के मुताबिक संजय ने हज़ारों जवानों की एक फौज तैयार की थी जिसका काम विपक्ष के नेताओं आदि को डराना और धमकाना था।
आपातकाल के दौरान संजय गाँधी द्वारा किये कार्यों में जो सबसे चर्चित रहा है वह था जनता की नसबंदी। कहा जाता है कि संजय ने परिवार नियोजन के नाम पर हज़ारों लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करवा दी थी। इससे देश की जनता को लम्बे समय तक मुसीबतें झेलनी पड़ी थी।
चमचागिरी ही बनी आपातकाल के हटने का कारण
सरकार का अपने चमचों पर अतिविश्वास ही आपातकाल के हटने का कारण बना। सरकार को सीआईडी के ख़ुफ़िया सूत्रों ने खबर दी थी कि देश की जनता इंदिरा गाँधी को ही प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है। इस खबर पर यकीन कर इंदिरा गाँधी ने 21 मार्च, 1977 को देश से आपातकाल हटाने की घोषणा कर दी। लेकिन नतीजे बिलकुल उलट रहे। आपातकाल के बाद हुए चुनावों में इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी को शिकस्त मिली और खुद इंदिरा गाँधी रायबरेली से चुनाव हार गईं। संजय गाँधी भी अमेठी से चुनाव हार गए और आजादी के बाद देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी और कांग्रेस लोकसभा में 350 से 150 सीटों पर आकर सिमट गई।