जम्मू-कश्मीर विश्वभर में अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्द है। घाटी के वादियों की असीम सुंदरता पर मोहित होकर कवियों ने कश्मीर को धरती के स्वर्ग की संज्ञा दी थी। यह उपमा निर्विवाद रूप से सत्य भी है। पर आजकल कश्मीर की कश्मीरियत कहीं खो सी गई है। कभी घाटी के बाशिंदे रहे कश्मीरी पण्डित आज अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह जीवन जीने को मजबूर हो गए हैं। 90 के दशक में कश्मीरी पंडितों पर यातनाओं का जो दौर शुरू हुआ था वह आज तक थमा नहीं है। सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद आज भी लाखों कश्मीरी पण्डित जम्मू, दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में शरणार्थियों की तरह जीवन गुजारने को मजबूर हैं। अपने ही देश में सियासी फायदे के लिए उन्हें पराया बना दिया गया है। किसी का हक और अधिकार छीनकर हासिल की गई सत्ता आखिर किस काम की?
कश्मीरी पण्डितों का इतिहास
कश्मीरी पण्डितों का इतिहास 5000 वर्षों से अधिक पुराना है और ऐसे में पाकिस्तान का यह कहना कि कश्मीर पर भारत ने बलपूर्वक कब्जा किया है, उसकी निरा मूर्खता है। कश्मीर घाटी में रहने वाले हिन्दुओं को कश्मीरी पण्डित कहा जाता है। इनमें से अधिकतर हिन्दू ब्राह्मण थे और इनका मुख्य पेशा शिक्षा देना था। इसी वजह से इनके नाम के साथ पण्डित जुड़ा। ब्राह्मणों के अलावा कश्मीर में अन्य हिन्दू जातियां भी रहती थी। 1947 में आजादी मिलने के तुरंत बाद ही पठान जातियों ने पाकिस्तान सेना के सहयोग से कश्मीर पर हमला कर दिया। कश्मीर रियासत के आखिरी राजा हरी सिंह ने भारत सरकार से मदद के लिए गुहार लगाई। मौजूदा वक्त में कश्मीर के सबसे लोकप्रिय संगठन नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष शेख अब्दुल्ला ने भी भारत सरकार से रक्षा की दरख्वास्त की थी।
देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू द्वारा सेना को आदेश देने में देरी किए जाने की वजह से कश्मीर के एक तिहाई भू-भाग पर पकिस्तान ने कब्जा जमा लिया। इस क्षेत्र में रहने वाले कश्मीरी पण्डितों को बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया गया और पूरी तरह से क्षेत्र को पंडितविहीन बना दिया गया। बचे हुए कश्मीरी पण्डित अपनी जान बचाकर कश्मीर के अन्य हिस्सों में बस गए और अपना गुजर-बसर करने लगे। 90 के दशक में कश्मीरी पण्डितों पर एक बार फिर अत्याचार शुरू हुए। पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों और अलगाववादियों ने कश्मीरी पण्डितों को सरकार के खिलाफ हथियार उठाने को कहा। इंकार करने पर कश्मीर में पण्डितों का कत्लेआम शुरू हो गया।
इसकी शुरुआत 14 सितम्बर, 1989 को हुई थी जब भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और पेशे से वकील पण्डित तिलक लाल तप्लू की हत्या कर दी गई। इसके बाद एक अलगाववादी नेता को फांसी की सजा सुनाने वाले जस्टिस नील कान्त गंजू की गोली मारकर हत्या कर दी गई। एक-एक करके सभी कश्मीरी पण्डित नेताओं की हत्या कर दी गई और आम जनता को भी निशाना बनाया जाने लगा। 300 से अधिक कश्मीरी पण्डितों का कत्लेआम किया गया और उन्हें अपना घर-बार छोड़ घाटी छोड़ने को विवश किया गया। इतने गंभीर विषय पर भी राज्य और केंद्र सरकार अपनी सियासी रोटी सेंकती रही और कश्मीरी पण्डितों के पलायन को रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया। समाचार पत्रों में हिन्दुओं को घाटी छोड़ चले जाने की हिदायत मिलने लगी और घाटी की मस्जिदें हिन्दुओं और भारत के विरुद्ध जहर उगलने लगीं।
1990 की वो स्याह रात
कश्मीरी पण्डितों के लगातार हो रहे कत्लेआम के बाद घाटी में असुरक्षा का माहौल बन गया था। सभी कश्मीरी पण्डितों के दरवाजों पर यह चेतावनी चस्पा दी गई थी कि “या तो मुस्लिम बन जाओ या घाटी छोड़कर भाग जाओ, नहीं तो मरने के लिए तैयार रहो।” घाटी की मस्जिदें भारत और हिन्दू विरोधी जहर उगल रही थी और मुस्लिमों को हिन्दुओं के खिलाफ भड़काया जा रहा था। तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने टीवी पर कश्मीरी मुस्लिमों को आजादी के लिए भड़काना शुरू कर दिया था। घाटी में बिगड़ते हालातों को देख 19 जनवरी, 1990 की रात को घाटी से तकरीबन 2,00,000 कश्मीरी पण्डित पलायन कर गए। कश्मीरी पण्डित संघर्ष समिति के अनुसार, वर्ष 1989 में घाटी में कश्मीरी पण्डितों की संख्या 3,75,000 थी। 90 के दशक में अलगाववादी और आतंकवादी हमलों के चलते वर्ष 1992 तक घटकर मात्र 32,000 रह गई। आज तकरीबन 7,50,000 कश्मीरी पण्डित अपने ही देश में शरणार्थी बन जी रहे हैं। जम्मू और दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में ये नरक सी जिंदगी काट रहे हैं।
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आज भी पण्डित लिखते हैं कुछ कश्मीरी मुसलमान
घाटी में रह रहे मुसलमानों में एक तबका ऐसा भी है जो आज भी अपने उपनाम की जगह पण्डित लिखता है। ये वही कश्मीरी पण्डित हैं जिनका 90 के दशक में हुए नरसंहार के बाद धर्म बदल दिया गया और जबरिया मुसलमान बनाया। कश्मीरी हिन्दुओं में जो ब्राह्मण वर्ग था उसका मुख्य काम शिक्षा देना था। अपने पेशे के कारण इनके नाम के साथ पण्डित जुड़ा। पण्डित का अर्थ होता है वह जो दूसरों को शिक्षित करे। 90 के दशक में जब कश्मीरी पण्डितों पर हमले शुरू हुए तो उनके सामने तीन रास्ते बचे थे, या तो वह घाटी छोड़ दें या मुसलमान बन जाएं। तीसरी सूरत यह थी कि वह मरने को तैयार रहें। अधिकतर कश्मीरी पण्डित घाटी से पलायन कर गए वहीं कईयों को जबरन मुसलमान बना दिया गया। विरोध करने वाले पण्डितों को मौत के घाट उतार दिया गया। मुसलमान बने पण्डित आज भी अपने नाम के साथ पण्डित उपनाम लगाते हैं जो उनके पूर्वजों की निशानी है।
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प्रसिद्द कश्मीरी लेखक मोहम्मद देन फौक ने अपनी मशहूर किताब कश्मीर कौम का इतिहास में पण्डित शेख नाम के अध्याय में लिखा है, “कश्मीर में इस्लाम आने से पहले सब हिन्दू ही हिन्दू थे। इनमें हिन्दू ब्राह्मण भी थे। इसके साथ ही दूसरी जातियों के लोग भी थे। लेकिन ब्राह्मणों में एक फ़िरक़ा (वर्ग) ऐसा भी था जिनका पेशा पुराने जमाने से पढ़ना और पढ़ाना था।” मोहम्मद देन फौक आगे लिखते हैं, ”इस्लाम कबूल करने के बाद इस फ़िरक़े (वर्ग) ने पण्डित उपनाम को शान के साथ कायम रखा। इसलिए ये फ़िरक़ा (वर्ग) मुस्लिम होने के बावजूद अब तक पण्डित कहलाता रहा है। इसलिए मुसलमानों का पण्डित फ़िरक़ा (वर्ग) शेख भी कहलाता है। सम्मान के तौर इन्हें ख़्वाजा भी कहते हैं। मुसलमान पण्डितों की अधिकतर आबादी ग्रामीण इलाकों में है।”
गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाती रही हैं पूर्ववर्ती केंद्र सरकारें
कश्मीरी पण्डितों पर हो रहे अत्याचार के दौर में जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार और कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार दोनों ही हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करके घाटी में हिंदुत्व का हनन हो रहा था। अगर तथ्यों और साक्ष्यों पर नजर डालें तो यह स्पष्ट नजर आता है कि कश्मीर की समस्या को जटिल बनाने में कांग्रेस नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। पर धीरे-धीरे देश का मिजाज बदला और वर्षों से सत्ता पर काबिज कांग्रेस का सिंहासन डोला। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने एनडीए की गठबन्धन सरकार बनाई और कश्मीर की समस्या को सरकार के मुख्य एजेण्डे में शामिल किया। उन्होंने घाटी के अलगाववादी नेताओं से संवाद स्थापित करने की कोशिश भी की और शांतिपूर्ण ढंग से इस समस्या का समाधान निकालना चाहा। हालाँकि उन्हें इसमें कुछ खास सफलता तो नहीं मिली पर इस पहल की शुरुआत करने का श्रेय उन्हें ही जाता है।
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अलगाववाद परस्त रही है जम्मू-कश्मीर की सरकारें
कश्मीरी पण्डितों के इस बदहाली की सबसे बड़ी जिम्मेदार जम्मू-कश्मीर की सत्ताधारी सरकारें रही हैं। जम्मू-कश्मीर विधानसभा को विशेषाधिकार देने की जो भूल पण्डित नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान की गई थी आज उसी का परिणाम कश्मीरी पण्डित भुगत रहे हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर के हिन्दुओं के साथ किया गया संवैधानिक धोखा है। इन अनुच्छेदों के तहत मिलाने वाले विशेषाधिकारों की वजह से ही जम्मू-कश्मीर भारतीय गणराज्य का अभिन्न अंग होकर भी एक स्वतंत्र राष्ट्र की तरह व्यवहार करता है और अपने कानून खुद बनाता है। जम्मू-कश्मीर में भारत सरकार के अधिकतर कानून लागू नहीं होते हैं और केंद्र का बहुत सीमित दखल होता है।
यह बात विचारने योग्य है कि जम्मू-कश्मीर आजादी के चन्द महीनों बाद ही भारत में शामिल हो गया था जबकि गोवा और सिक्किम दशकों बाद भारतीय गणराज्य का हिस्सा बने थे। तीनों ही राज्यों में एक बड़ी समानता यह भी थी कि उनका धर्म, रहन-सहन, रीति-रिवाज भारतीय संस्कृति से भिन्न थे। वर्ष 1961 में पुर्तगालियों के शासन से मुक्त हुआ गोवा पूरी तरह यूरोपीय संस्कृति के रंग में रंगा था। राज्य की बहुसंख्यक आबादी ईसाई थी। वहीं वर्ष 1975 में नामग्याल वंश के चोग्याल से मुक्त हुआ सिक्किम भारतीय गणराज्य का 22वाँ राज्य बना था। सिक्किम बौद्ध जनसंख्या बाहुल्य राज्य था। भारतीय गणराज्य में शामिल होने के बाद से इन दोनों राज्यों में भारत के खिलाफ कोई भी विरोध-प्रदर्शन नहीं हुआ पर मुस्लिम आबादी बाहुल्य जम्मू-कश्मीर में स्थिति इसके उलट है। कोई भी महीना ऐसा नहीं है जब राज्य में भारत विरोधी नारे ना लगते हो और सेना पर कोई आतंकी हमला ना होता हो।
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कश्मीर के अलगाववादी संगठन कश्मीरी पण्डितों को आतंकवादी कहते हैं। वह कश्मीरी पण्डितों को कश्मीर का मूल निवासी नहीं नहीं मानते हैं पर सच्चाई इसके बिलकुल उलट है। प्राचीन काल में कश्मीर एक हिन्दू राज्य था और 14वीं सदी में तुर्कमिनिस्तानी इस्लामी आक्रमणकारी दुलुचा ने हमला कर राज्य पर कब्जा कर लिया था। उसने राज्य में हिन्दुओं का नरसंहार किया था और उन्हें जबरन मुस्लिम बनाया था। आज जो अलगाववादी कश्मीर के मुस्लिम बाहुल्य राज्य होने की नज़ीर देते हैं असल में उनके पूर्वज खुद हिन्दू थे। घाटी क्षेत्र में जम्मू-कश्मीर विधानसभा क्षेत्र की 46 सीटें आती हैं। यह राज्य विधानसभा में बहुमत के लिए आवश्यक 44 सीटों से अधिक है। अपना सियासी संतुलन बनाने के लिए जम्मू-कश्मीर की सभी सरकारों ने अभी तक अलगाववादियों की तरफदारी ही की है फिर चाहे वो नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार हो या पीडीपी की।
पुनर्वासन के नाम पर कैदियों की जिंदगी जी रहे हैं कश्मीरी पण्डित
जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार ने मानवाधिकार संगठनों और केंद्र सरकार के दबाव में आकर घाटी में कश्मीरी पण्डितों के पुनर्वासन की बात कही। आज अनंतनाग, श्रीनगर, बारामुला समेत घाटी के कई क्षेत्रों में हिन्दू कॉलोनियां है जहाँ कश्मीरी पण्डितों के परिवार को बसाया गया है। यह कॉलोनियां बहुत ही उच्च सुरक्षा दायरे में हैं और मुख्य शहर से अलग हटकर बसाई गई हैं। राज्य पुलिस और केंद्रीय अर्धसैनिक बल के जवान चौबीसों घंटे इनकी सुरक्षा में मुस्तैद रहते हैं। कश्मीरी पण्डित संघर्ष समिति से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, घाटी क्षेत्र के तकरीबन 62,000 कश्मीरी पण्डित परिवार पंजीकृत हैं। पुनर्वासन के नाम पर इनमें से सिर्फ 1600 कश्मीरी पण्डितों को महबूबा सरकार ने नौकरी दी है।
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घाटी में कश्मीरी पण्डितों के पुनर्वासन के लिए बसाई गई इन हिन्दू कॉलोनियों में हर किसी के आने-जाने पर मनाही है। प्रवेश द्वार पर आपको अपनी पहचान सिद्ध करनी पड़ती है जो सुरक्षा लिहाज से सही भी है। पर क्या कश्मीरी पण्डितों ने इसी पुनर्वासन की मांग की थी? क्या उन्होंने खुली हवा में सांस लेने की जगह संगीनों के साए में घुटने के लिए प्रदर्शन किए थे? कश्मीरी पण्डितों का संगठन पनुन कश्मीर अपने लिए घाटी में अलग कश्मीर की मांग करता है। उनका कहना है कि उन्हें घाटी में अलग क्षेत्र में एकसाथ बसाया जाए। 90 के दशक की कड़वी यादें उनके साथ जुडी हैं और वह दोबारा मुसलमानों के साथ नहीं बसना चाहते। उस दौर में मुस्लिम अलगाववादियों द्वारा एक रात में ही 300 से अधिक कश्मीरी पण्डितों की हत्या कर दी गई थी। लाखों कश्मीरी पण्डितों ने रातों-रात घाटी छोड़ दी थी।
स्वतंत्र भारत के इतिहास का यह सबसे बड़ा सामूहिक विस्थापन था जिसपर पूरा देश चुप बैठा रहा। 20,000 कश्मीरी पण्डितों ने तो सिर्फ इस वजह से दम तोड़ दिया क्योंकि उन्हें घाटी की ठंडी वादियों में रहने की आदत थी। दिल्ली के शरणार्थी कैम्पों में धूप उनसे बर्दाश्त नहीं हुई। घाटी छोड़कर जा रहे कश्मीरी पण्डितों पर रास्तों में भी हमले हुए और उनपर हमलों का यह सिलसिला वर्ष 2003 तक चला। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पकिस्तान समर्थित अलगाववादियों द्वारा किए गए इस नरसंहार में अबतक 32,000 से भी अधिक कश्मीरी पण्डितों की मौत हो चुकी है। जम्मू-कश्मीर की पूर्ववर्ती सरकारों ने भी कश्मीरी पण्डितों को वापस बसाने की बात कही थी पर वह सिर्फ चुनावी वादा बनकर रह गई। आज जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार है और कश्मीरी पण्डितों को उम्मीद है कि यह सरकार चुनावी वादों से परे जमीनी स्तर पर भी उनके हित में काम करेगी।
सियासी रोटी सेंकने में लगे हैं सभी दल
2002 में गुजरात के गोधरा में हुए साम्प्रदायिक दंगों में 750 मुसलमान मारे गए थे और आज भी यह घटना देश का प्रमुख चुनावी मुद्दा रहती है। इस घटना के आधार पर देश में किसी राजनीतिक दल पर हिंदुत्व का तगमा लगा दिया जाता है तो किसी व्यक्ति की छवि साम्प्रदायिक (मुस्लिम विरोधी) बना दी जाती है। वहीं मानव इतिहास के सबसे क्रूरतम नरसंहारों में से कश्मीरी पण्डितों के नरसंहार पर देश के सभी सियासी दल एक होकर धर्मनिरपेक्षता का ढ़ोल पीटने लगते हैं। भाजपा आज केंद्र में सत्ता में है और उसकी छवि भी देश में हिंदुत्व आधारित राजनीती करने वाले दल की है। आजादी के बाद पहली बार भाजपा जम्मू-कश्मीर की सत्ताधारी सरकार में साझेदार है। कश्मीरी पण्डितों के पुनर्वासन के लिए महबूबा मुफ्ती सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं पर ये गौण साबित हो रहे हैं।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जम्मू-कश्मीर को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए लगातार प्रयासरत हैं। हाल ही में गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने कश्मीर दौरे के दौरान अलगाववादियों को सरकार से बातचीत करने का सुझाव दिया था। अलगाववादी नेताओं ने भी उनकी इस पहल का स्वागत किया था। भाजपा जम्मू-कश्मीर से हिन्दुओं को हाशिए पर जीने के लिए मजबूर करने वाले अनुच्छेद 35ए को हटाना चाहती है पर सत्ता में उसकी साझेदार पीडीपी इसके खिलाफ है। जम्मू-कश्मीर की एक अन्य प्रमुख पार्टी भी 35ए को हटाने के खिलाफ है। असल में यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर में मुस्लिमों को हिन्दुओं को दबाकर रखने का अधिकार देता है और राज्य की सभी पार्टियां इसी आधार पर अभी तक चुनाव जीतती आई हैं। इस अनुच्छेद के हटने की स्थिति में राज्य में शेष भारत जैसे हालात हो जाएंगे और उनकी भूमिका सीमित रह जाएगी। उम्मीद है मोदी सरकार हिन्दू हितों और मानवाधिकार का ध्यान रखते हुए इस पर प्रभावी कदम उठाएगी।