मेनचेस्टर इनकोडिंग क्या है? (manchester encoding in hindi)
मेनचेस्टर इनकोडिंग एक सिंक्रोनस क्लॉक इनकोडिंग तकनीक है जिसे ओपन सिस्टम इंटरकनेक्शन (OSI) के फिजिकल लेयर द्वारा प्रयोग में लाया जाता है।
इसका प्रयोग सिंक्रोनस बिट स्ट्रीम में क्लॉक और डाटा को इनकोड करने के लिए किया जाता है।केबल पर ट्रांसमिट होने वाले बाइनरी डाटा को NRZ (नॉन return टू जीरो) कि तरह नही भेजा जाता।
Non-Return-to-Zero (NRZ)
NRZ कोड का वोल्टेज लेवल बिट स्ट्रीम के दौरान कांस्टेंट रहता है। अगर 0 या 1 का लम्बा क्रम आ जाये तो रिसीविंग end पर समस्या हो जाती है।
यहाँ दिक्कत ये है कि ट्रांसमिशन की कमी के कारण सिंक्रोनाइजेशन खो जाता है। ये दो प्रकार का होता है:
NRZ लेवल इनकोडिंग– जब आने वाले सिग्नल 1 से 0 या 0 से 1 में बदल जाते हैं तो सिग्नल कि पोलारिटी में भी बदलाव आता है। ये डाटा के पहले बिट को पोलारिटी चेंज के तौर पर देखता है।
NRZ इनवर्टेड/डिफरेंशियल इनकोडिंग– इसमें बिट इंटरवल के शुरू में जो ट्रांजीशन होता है तो वहां 1 होता है और अगर कोई ट्रांजीशन नही होता तो वहां 0 होता है।
मेनचेस्टर इनकोडिंग की विशेषता (charactersitics of manchester encoding in hindi)
मेनचेस्टर इनकोडिंग के सभी विशेषता को हम नीचे लिस्ट कर रहे हैं:
लॉजिक 0 के दिखने का मतलब हुआ बिट के बीच में 0 से 1 ट्रांजीशन हुआ है जबकि 1 के दिखने का मतलब हुआ 1 से 0 का ट्रांजीशन।
सिग्नल ट्रांजीशन जरूरी नहीं है कि हमेशा बिट बाउंड्री पर ही हो लेकिन सभी बिट के सेंटर में जरूर कोई न कोई ट्रांजीशन होता है।
डिफरेंशियल फिजिकल लेयर ट्रांसमिशन बाइनरी डिजिट को इलेक्ट्रिकल सिग्नल में बदलने के लिए कभी भी inverting लाइन ड्राईवर का प्रयोग नहीं करता। इसीलिए वायर में आया सिग्नल एनकोडर के आउटपुट का उलटा नहीं होता।
मेनचेस्टर इनकोडिंग को Biphase कोड भी बोलते हैं क्योंकि सभी बिट को एक पॉजिटिव या नेगेटिव 90 डिग्री फेज ट्रांजीशन द्वारा इनकोड किया जाता है।
डिजिटल फेज लॉक्ड लूप (DPLL) क्लॉक सिग्नलों को निकालता है और सभी बिट के मान और टाइमिंग को deallocate करता है। ट्रांसमिशन हुए बिट स्ट्रीम में बिट ट्रांजीशन हाई इंटेंसिटी में जरूर होने चाहिए।
मेनचेस्टर इनकोडिंग ओरिजिनल सिग्नल्स इ दोगुने बैंडविड्थ को खता है।
मेनचेस्टर कोड का एक फायदा यह है कि इसका DC कॉम्पोनेन्ट किसी भी तरह कि सूचना को नही ढ़ोता। इस से ये पता चलता है कि ऐसे स्टैंडर्ड्स जो पॉवर को कैरी नही कर सकते वो भी सूचनाओं को ट्रांसमिट कर सकते हैं।
Eg: For 10Mbps LAN the signal spectrum lies between 5 and 20
क्लॉक अवोईडंस क्या है? (clock avoidance in hindi)
बहुत सारे केस में ट्रांसमीटर और रिसीवर के बीच सिंक्रोनाइजेशन स्थापित करने के लिए एक अलग क्लॉक का प्रयोग किया जाता है।
लेकिन कभी-कभी ऐसा करना जरूरी नहीं होता जैसे कि जब आप सिस्टम के पार्ट्स के बीच इंटरकनेक्शन को कम करना चाह रहे हों या फिर miniaturization न्यूनतम पिन वाले माइक्रोकंट्रोलर की मांग करे जो जरूरी फ़ुन्क्तिओन्स की सुविधा दे सकता है।
दूसरे स्थितियों में एक अलग क्लॉक विकल्प नहीं होता। उदाहरण के तौर पर एक काम्प्लेक्स वायरलेस डाटा लिंक में दो अलग-अलग RF ट्रांसमीटर और रिसीवर (एक डाटा के लिए और एक क्लॉक के लिए) को जोड़ना काफी inefiicient हो जाएगा।
UART इंटरफ़ेस के द्वारा ये सम्भव है कि ट्रांसमीटर और रिसीवर के द्वारा शेयर किया जाने वाले बाहरी क्लॉक टाइमिंग के बजाय अंदर के टाइमिंग सिग्नल को प्रयोग किया जाए
लेकिन ये रणनीति अपने साथ कुछ limitations लेकर आती है:
ये इंटरनल क्लॉक फ्रीक्वेंसी वेरिएशन के विरुद्ध मजबूत नहीं होता। जब रिसीवर और ट्रांसमीटर अलग-अलग एनवायरनमेंट में हो तब ये बड़ी समस्या कड़ी करता है।
इसमें फ्लेक्सिबिलिटी कि कमी होती है क्योंकि इसे समान डाटा रेट के लिए सही से काम करने वाला बनने के लिए Tx और Rx devices की जरूरत पड़ती है ।
रिसीवर को सामान्यतः एक इंटरनल क्लॉक फ्रीक्वेंसी की जरूरत होती है जो कि डाटा रेट से बहुत ज्यादा होता है। ये डाटा के ट्रान्सफर कि गति को कम कर सकता है।
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बीआईटी मेसरा, रांची से कंप्यूटर साइंस और टेक्लॉनजी में स्नातक। गाँधी कि कर्मभूमि चम्पारण से हूँ। समसामयिकी पर कड़ी नजर और इतिहास से ख़ास लगाव। भारत के राजनितिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक इतिहास में दिलचस्पी ।