Tue. Apr 30th, 2024
    Climate Change & Elections in India

    लोकसभा चुनाव 2024 (LS Election 2024) को लेकर पूरे देश मे राजनीतिक सरगर्मी जोरों पर है। भारतीय निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) की घोषणाओं के मुताबिक आगामी 19 अप्रैल को प्रथम चरण का मतदान होना है और इसके बाद कुल सात चरणों मे 01 जून तक मतदान होंगे।

    यह सर्वविदित है कि लगभग डेढ़ महीने तक चलने वाले मतदान के दौरान न सिर्फ़ सियासी पारा चढ़ेगा बल्कि आसमान से सूरज की गर्मी भी बढ़ेगी। बेरोजगारी, महंगाई, ग़रीबी, महिला सुरक्षा, आर्थिक विकास, आरक्षण, जाति, धर्म, इत्यादि जैसे अनेकों मुद्दों की सियासी गूंज हर मंच और हर भाषण से सुनाई दे रहा है। लेकिन यह काफ़ी निराशाजनक है कि भारतीय राजनीति में जलवायु परिवर्तन (Climate Change) जैसे मुद्दे आज भी चुनावी मुद्दा (Election Issue) नहीं बन पाए हैं जिस से भारत का हर एक नागरिक प्रभावित होता है।

    दिल्ली वायु प्रदूषण
    CSE के अनुसार दिल्ली के वायु प्रदूषण में सबसे बड़ा योगदान वहाँ के प्राइवेट वाहनों से उत्सर्जित अपशिष्टों (51% of PM 2.5 Level Pollutant) का है। (Image: India TV News)

    विदित हो कि, साल 2023 अब तक रिकॉर्ड किये गए पिछले 173 सालों में सबसे गर्म साल रहा था। भौगोलिक परिघटना एल-नीनो प्रभाव (El Nino Effect) के कारण 2024 में भी हाल कुछ वैसा ही है।

    अभी से ही गर्मी और तापमान अपने परवान पर है। आज भारत मे बेंगलुरु सहित कई शहरों में पेयजल की समस्या एक बड़ा संकट बनकर मुँह बाये खड़ी है। पंजाब राज्य में भूजल दोहन के आँकड़े पहले से ही खतरे की घंटी बजा रहे हैं। पिछले साल हिमाचल प्रदेश में हुई तबाही भी पर्यावरण के बिगड़े संतुलन का ही नतीजा था।

    हाल ही में जारी छठे वार्षिक वायु गुणवत्ता रिपोर्ट (6th Annual Air Quality Report ) के अनुसार दुनिया भर के तमाम देशों की राजधानियों में नई दिल्ली सबसे प्रदूषित राजधानी है। इसी रिपोर्ट में भारत को दुनिया की सबसे खराब गुणवत्ता वाले देशों में बांग्लादेश और पाकिस्तान के बाद तीसरे स्थान पर रखा गया है। बिहार के बेगूसराय शहर को दुनिया भर के सबसे प्रदूषित शहर का दर्जा हासिल है।

    हर साल दीपावली के आस-पास नई दिल्ली और भारतीय राजधानी क्षेत्र (NCT) की हवाओं में प्रदूषण का जो हाल होता है वह किसी से छुपा नहीं है। हालात ऐसे हो जाते हैं मानो पूरा शहर एक गैस चैम्बर में तब्दील हो गया हो। इस दौरान केंद्र सरकार और संबंधित राज्य सरकारों की राजनीति भी खूब ठनती है।

    लेकिन इन तमाम समस्याओं के बावजूद चुनावों (Election) में पर्यावरण से जुड़े मुद्दे गौण हो जाते हैं जबकि इस से आम जनता से लेकर दिल्ली में बैठी सरकार के प्रधानमंत्री और मंत्री गण भी प्रभावित होते हैं। यह अज़ीब विडंबना है कि इन मुद्दों की तरफ़ ना तो मतदाताओं ने अपने जनप्रतिनिधियों से ठोस सवाल पूछा है, ना ही राजनीतिक दलों ने ही इस बाबत कोई ठोस कदम उठाया है।

    भारतीय राजनीति के दो बड़े दल-भारतीय जनता पार्टी (BJP) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC)- दोनों ने ही विगत 2 लोकसभा चुनाव 2014 और 2019 के दौरान अपने घोषणा पत्रों में पर्यावरण से जुड़े सुधारों का वादा किया था। इन चुनावों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई; जबकि बीजेपी की सरकार पर्यावरण के मुद्दों पर कोई बड़ा सुधार करने में नाक़ाम ही रही है। हिमालयन राज्यों को “ग्रीन बोनस” का वायदा किया गया था जिसे आज तक पूरा करने में वर्तमान केंद्र सरकार नाकाम रही।

    यह जरूर है कि बीते कुछ दशकों में इंटरनेशनल सोलर अलायन्स (International Solar Alliance) जैसे कुछ बड़े सार्थक कदम उठाए गए हैं। नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों (Renewable Energy Sources) पर निर्भरता के तरफ भी भारत ने लंबे छलांग लगाए हैं लेकिन इन कुछ एक कदमों से जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के कारण उत्पन्न समस्याओं का निकट भविष्य में में निदान हो, ऐसा नहीं लगता है।

    “भारत एक कृषि प्रधान देश है… इस देश के किसान अन्नदाता हैं और पूरे देश का पेट पालने का काम करते हैं “– ऐसे ही कुछ लच्छेदार शब्दों और भाषणों का प्रयोग हर भारतीय राजनेता संसद से लेकर सड़क पर, चुनावी-मंचो से लेकर मीडिया और सोशल मीडिया पर अक्सर जिक्र करता है। लेकिन जब बात जलवायु परिवर्तन का कृषि के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर नीतियां बनाने और उसके क्रियान्वयन की आती है तो हम एक राष्ट्र के रूप में फिसड्डी साबित हुए हैं।

    Image Source: Onmanorama
    A farmer removes dried plants from his parched paddy field on the outskirts of Ahmedabad. File photo: Amit Dave/Reuters

    जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम के परिपाटी में बदलाव स्पष्ट दिख रहा है। इसका सीधा असर खेती-बाड़ी, शहद उत्पादन, मत्स्य पालन जैसी जीविका माध्यमों पर पड़ रहा है। कुछ साल पहले ही टिड्डियों के झुंड ने आक्रमण कर फसलों को बर्बाद कर दिया था। भँवरो के जीवन प्रणाली पर पड़ रहे कुप्रभाव के कारण फूलों की खेती आदि पर भी असर पड़ रहा है।

    लगातार सिमटते जैव-विविधता, विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कारण सिमटते जंगलों और सूखते जलाशयों का असर यह पड़ा है कि बीते कुछ सालों में मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं निरंतर बढ़ रही हैं। 2022 मे लोकसभा में सरकार की ओर से दिए गए आँकड़े के मुताबिक़ साल 2019-20 से लेकर 2021-22 के दौरान कुल 1500 से अधिक लोगों की जान हाथियों के साथ भिड़ंत में हुईं। इसी दौरान 125 व्यक्ति की जान बाघों के आक्रमण के कारण हुआ है।

    ऐसे में सवाल यह है कि पर्यावरण से जुड़े इतने मसलों से हर दिन उलझ रही इतनी बड़ी आबादी के लिए जलवायु परिवर्तन (Climate Change) जैसे मुद्दे चुनाव के दौरान महत्वपूर्ण नहीं रह जाते हैं, आखिर क्यों?

    भारत की बात करें तो सुप्रसिद्ध संस्था ADR के द्वारा कर्नाटक चुनाव 2018 (Karnataka Elections 2018) के दौरान किये गए सर्वे के मुताबिक 2.73 लाख लोगों में से लगभग 12% लोगों के लिए ही वायु और जल प्रदूषण का मुद्दा प्राथमिक मुद्दा था।

    समाचार पत्र हिंदुस्तान टाइम्स और मार्स मोनिटरिंग एंड रिसर्च सिस्टम्स युथ सर्वे 2017 में यह सामने आया कि 18-25 साल के युवा मतदाताओं के बीच 74% से अधिक लोगों को ग्रीनहाउस गैसों और उसके कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के प्रभावों के बारे में पता नहीं था।

    ऐसा नहीं है कि भारत मे प्रदूषण या पर्यावरण केंद्रित मुद्दों पर आधारित राजनीतिक दल नहीं है। उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी (UPP) और इंडियन पीपल ग्रीन पार्टी (IPGP) जैसे राजनीतिक दल भारत मे हैं लेकिन जिन असल मुद्दो पर ऐसी पार्टियां अस्तित्व में आई हैं, जनता के बीच वर्तमान में उसका कोई बड़ा आधार नहीं है।

    उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी (UPP) ने अल्मोड़ा लोकसभा सीट 2019 लोकसभा चुनाव लड़े और उसे मात्र 0.77% मत मिले जो उस सीट पर पड़े NOTA (2.23%) से भी कम थे। ऐसे ही इंडियन पीपल ग्रीन पार्टी (IPGP) ने 2019 में राजस्थान के दो लोकसभा क्षेत्र राजसमंद और टोंक-सवाई-माधोपुर सीट पर क्रमशः 0.19% और 0.58% मत प्राप्त हुए।

    अगर दुनिया के स्तर पर देखें तो लगभग सभी विकसित देशों में ग्रीन पार्टी चुनावों को ठीक ठाक प्रभावित कर रही है। नीदरलैंड, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों मे इन दलों को लोगों का ठीक-ठाक समर्थन हासिल है। उदाहरण के लिए, 2017 में GroenLinks नामक ग्रीन पार्टी ने नीदरलैंड में 150 सीटों में 14 सीटों पर जीत हासिल किए थे।

    भारत मे हालात अलग हैं। यहाँ जनता के बीच वैसे मुद्दे ज्यादा हावी हैं जो उन्हें एक नागरिक के तौर पर सीधे फायदा पहुंचाता हो। लेकिन पर्यावरण संबंधी नीतियां जो अप्रत्यक्ष रूप से तुलनात्मक तौर पर ज्यादा फायदा पहुंचाती हैं, उनकी चुनावी फायदा पहुंचाने की क्षमता शायद उतनी नहीं है। यही वजह है कि राजनीतिक दल भी इन मुद्दों को घोषणा पत्र में लिख तो देते हैं पर चुनावी मंच से इनका शोर नहीं दिखता।

    चुनाव आयोग, प्रधानमंत्री, सभी राजनीतिक दल और उनके नेता हर मंच से देश की आम जनता को आगामी चुनाव में गर्मी, लू आदि के बीच भी वोट देने के लिए घर से निकलने की अपील कर रहे हैं। यह हर भारतीय नागरिक का दायित्व है भी कि लोकतंत्र के सबसे बड़े त्योहार का हिस्सा बने। लेकिन चुनावी सरगर्मी में यह बात कहीं गौण मालूम पड़ती है कि भीषण गर्मी, लू, जलवायु परिवर्तन,  प्रदूषण आदि जैसे दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे पर्यावरणीय कुप्रभावों से निपटने के लिए उनके क्या योजना है?

    राष्ट्रीय सुरक्षा, बेरोजगारी, कृषि-समस्या और जातीय समीकरण जैसे चुनावी मुद्दों और दांव-पेंच के बीच जलवायु परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को चुनावी मुद्दा (Election Issue) बन पाना आसान नहीं दिखता। लेकिन अब वक्त आ चुका है जब कानून-निर्माताओं और शोधकर्ताओं के बीच एक समन्वय स्थापित करना जरूरी हैं और इसके लिए यह महत्वपूर्ण है कि राजनीतिक दलों को चुनाव के दौरान भी यह एहसास हो कि एक महत्वपूर्ण मुद्दा (Climate Change) जो हर नागरिक को प्रभावित करता है, वह उनके चुनावी एजेंडा से कोसों दूर प्रतीत हो रहा है।

    By Saurav Sangam

    | For me, Writing is a Passion more than the Profession! | | Crazy Traveler; It Gives me a chance to interact New People, New Ideas, New Culture, New Experience and New Memories! ||सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ; | ||ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ !||

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