उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन बनने से भाजपा शायद परेशान हो गयी है और इसलिए वे देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य महाराष्ट्र को निशाना बना रही है ताकी वे केंद्र में अपने स्थान पर टिकी रहे। और इसलिए वे बार बार अपमानित होने के बाद भी, शिवसेना के साथ गठबंधन बनाने के लिए बेक़रार हो रही है।
2014 में, दोनों भगवा पार्टी ने मिलकर राज्य की 48 लोक सभा सीटों में से 41 सीटें जीती थी जिसमे सेना को 18 सीट मिली थी। और सबसे महत्वपूर्ण, सेना ने भाजपा के 27% के मुकाबले 20.82% वोट शेयर जीता था। और अगर सहयोगियों ने अकेले अकेले लड़ने का फैसला किया था तो ज़ाहिर सी बात है कि सबसे ज्यादा नुकसान सेना को होगा मगर भाजपा को भी ठेस पहुँचेगी। ऐसे वक़्त में, जहाँ कांग्रेस (2014 में 18.29%) और एनसीपी (16.12%) में पहले ही गठबंधन हो चुका है, तो भाजपा के लिए कोई जोखिम उठाना भारी पड़ सकता है।
इसका मतलब है कि एक ताकतवर राष्ट्रिय पार्टी ने एक छोटी सी क्षेत्रीय पार्टी के आगे अपने घुटने टेक दिए?
ऐसा दिखता है मगर ऐसा है नहीं। इन दोनों का अलग होना बिलकुल भी तय नहीं था मगर शिवसेना का लगातार भाजपा को केन्द्रीय और राष्ट्रिय स्तर पर घेरना चीजों को बिगाड़ सकता था। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से लेकर पार्टी प्रमुख अमित शाह तक का भाजपा नेतृत्व पूरी तरह से शिवसेना के सीमित विकल्पों से वाकिफ था और इसलिए उसकी आलोचनाओं और शिकायतों पर ध्यान नहीं देता या उसकी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास नहीं करता। भाजपा जानती है कि शिवसेना की भविष्यवाणी भाजपा की तुलना में बड़ी है। भाजपा जानती है कि सेना की दुर्दशा उनकी पार्टी से भी बड़ी है। इन दोनों का गठबंधन बेहद ही सुविधाजनक होगा जिसमे दोनों साथ रहने का दर्द सह सकते हैं मगर अलग रहने का नहीं।
मगर सेना की महाराष्ट्र में लोकप्रियता कम कैसे हुई?
इसका जवाब महाराष्ट्र के तेजी से बदलते राजनीतिक स्थिति में हैं जिसमे सेना बने रहने का बहुत तगड़ा प्रयास कर रही है।सेना का जन्म मराठी मानूस को उन प्रवासियों के लगातार हमले से बचाने के लिए हुआ था, जो मुंबई में नौकरी कर रहे थे। इस संदेश ने तब तक काम किया जब तक यह प्रतिध्वनि बरकरार रहा, और सेना अपने मिशन में ईमानदार थी। इसके दल-‘स्थानीय लोकाधिकार समिति’ ने बहुराष्ट्रीय निगमों, बड़े औद्योगिक घरानों और यहां तक कि सार्वजनिक उपक्रमों में बेरोजगार मराठी युवाओं को रोजगार दिया, और मराठी घरों में बेहद लोकप्रिय थे। साठ और सत्तर के दशक में, मराठी युवाओं ने सेना में वापसी की।
चीज़े तब बदली जब 1982 में मिलों की हड़ताल हुई। मिलों के मालिक जो ज्यादातर गुजराती और मारवारी थे, उन्होंने सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे का इस्तेमाल फायरब्रांड श्रमिक नेता दत्ता सामंत की अपील को निष्प्रभावी करने के लिए किया। हड़ताल से दोनों मुंबई का रंग और सेना का राजनीतिक किरदार बदल गया। मुंबई ने राज्य में अन्य जगहों पर काम करने वाले महाराष्ट्रियन मिल श्रमिकों के बड़े पैमाने पर पलायन को देखा। समय के साथ, सीना ने मराठी आबादी के लिए अपनी अपील का एक हिस्सा खो दिया, जिसकी खुद मुंबई में काफी गिरावट आई।
शिवसेना ने परिस्थिति पर क्या प्रतिक्रिया दी?
सेना हिंदुत्व की गाड़ी में सवार हो गयी। जब अस्सी के दशक में, भाजपा राष्ट्रिय मंच पर हिंदुत्व राजनीती का उद्घाटन कर रही थी तो उसे ऐसे क्षेत्रीय साझीदार की जरुरत थी जो उनकी मदद कर सकें और उन्हें वो सहयोगी सेना में मिला। सेना ने भी जोश में रामजन्मभूमि आंदोलन में हिस्सा लेकर अपना हिंदुत्व एजेंडा साबित किया और बाबरी मस्जिद के ढहने का श्रेय लिया। 1995 में दोनों के गठबंधन ने कांग्रेस को पहली बार महाराष्ट्र की राज गद्दी से हटा दिया। और जब 1999 में, गठबंधन हार गया तब भी दोनों के बीच दूरियाँ नहीं आई और इसका मुख्य कारण था अटल बिहारी वाजपेयी और एलके अडवाणी और सबसे जरूरी, प्रमोद महाजन का बाल ठाकरे से अच्छा सम्बन्ध था। दोनों ने साथ में 2004 का चुनाव भी लड़ा; 171-117 के फार्मूला पर (शिवसेना-भाजपा), मगर फिर शिकस्त हाथ लगी। और केंद्र में भी, एनडीए हार गयी।
तो क्यों और कब दोनों के रिश्ते में दूरियाँ आई?
इसका सबसे बड़ा कारण थी नरेंद्र मोदी की ऊंचाई। मोदी के आने से पहले, भगवा पार्टी का केवल एक ही ‘हिन्दू ह्रदय सम्राट’ था – ठाकरे, मगर 2012 में बीमार ठाकरे के गुज़र जाने के बाद, जैसे जैसे भाजपा बढ़ती गयी वैसे वैसे वो सेना के क्षेत्र में भी प्रवेश करती गयी। नए भाजपा नेतृत्व ने ये स्पष्ट कर दिया कि वे साझा करने और सहयोग करने में विश्वास नहीं करती जो उनके नारे-‘शत प्रतिशत भाजपा’ में दिखता है। इसी बात से सेना चिढ़ गयी है और इसलिए वे युद्ध भड़काने का काम कर रही है।
मगर सेना को भाजपा से सम्बन्ध तोड़ने और उनसे अलग जाने के लिए क्या रोकता है?
यदि वे उस विकल्प को चुनता है तो उसके दो-तरफा विभाजन का सामना करने की संभावना है। शिवसेना का एक वर्ग भाजपा में शामिल हो जाएगा, जबकि कांग्रेस और एनसीपी आक्रामक रूप से निशाना साधेंगे। शिवसेना का प्रवासी विरोधी रुख कांग्रेस और एनसीपी के लिए अछूत है। शिवसेना के पास बहुत कम विकल्प हैं – इसलिए भाजपा के साथ उसका गठबंधन रहेगा।