बिहार में महागठबंधन के बिखराव के बाद से ही सियासी समीकरण बदलने लगे हैं। नीतीश कुमार के महागठबंधन का साथ छोड़ इस्तीफ़ा देने और फिर भाजपा से गठबंधन कर पुनः सरकार बनाने के बाद से उनकी ही पार्टी में विरोध के स्वर फूटने लगे थे। वरिष्ठ जेडीयू नेता और पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष शरद यादव ने नीतीश कुमार के इस कदम का खुलकर विरोध किया था और इसे ‘गलत’ करार दिया था। उन्होंने कहा था कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन को बिहार की जनता ने जनादेश भाजपा के खिलाफ दिया था। नीतीश भाजपा के साथ जाकर इस जनादेश का अपमान कर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने के नीतीश के फैसले से बिहार की जनता में ‘गलत सन्देश’ जाएगा। जेडीयू के दो अन्य वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद अली अनवर और बिरेन्द्र कुमार भी नीतीश के खिलाफ शरद यादव के साथ खड़े हो गए हैं। अब यह प्रतीत होता है कि पिछले डेढ़ दशकों से चली आ रही दोनों की दोस्ती अपने सफर के आखिरी पड़ाव पर आ चुकी है। शरद यादव ने रास्ते अलग करने के स्पष्ट संकेत दे दिए हैं। नीतीश कुमार ने उन्हें सार्वजनिक मंचों की बजाय पार्टी मंच पर अपनी बात रखने को कहा है। आगामी 19 अगस्त को पटना में जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होनी है। जहाँ तक पार्टी मंच पर बात रखने की बात है तो शरद यादव अपनी पार्टी में उसी कगार पर खड़े हैं जिस कगार पर लालकृष्ण आडवाणी जी भाजपा में। नीतीश कुमार जेडीयू के सर्वेसर्वा बन चुके हैं और ऐसे में मुमकिन है कि शरद यादव का बगावत भरा एक कदम उन्हें पार्टी के ‘वरिष्ठ नेता’ की भूमिका से भी भूमिकाविहीन कर दे। आइए एक नजर डालते हैं कुछ प्रमुख कारणों पर जिनकी वजह से शरद यादव नीतीश कुमार से अपना सियासी रिश्ता तोड़ सकते हैं।
पार्टी में घटता रसूख
पिछले कुछ समय से शरद यादव का कद पार्टी में लगातार घटा है। एक वक़्त में वह पार्टी की धूरी हुआ करते थे और पार्टी के हर छोटे-बड़े फैसलों में उनका प्रत्यक्ष रूप से योगदान होता था। पिछले वर्ष अक्टूबर में नीतीश कुमार उन्हें हटाकर खुद जेडीयू अध्यक्ष बन बैठे। बिहार की राजनीती में भी उनकी भूमिका सीमित हो गई थी। अब वह केवल राज्यसभा में पार्टी के नेता हैं और वह भी कब तक हैं कुछ कहा नहीं जा सकता। इन हालातों में शरद यादव को पुराने दिन याद आ रहे होंगे जब उन्होंने नीतीश के साथ मिलकर जॉर्ज फर्नांडीस को ऐसे ही पार्टी में किनारे पर लगाया था। अब नीतीश कुमार वही बर्ताव शरद यादव के साथ कर रहे हैं और शरद अपना हाल जॉर्ज फर्नांडीस जैसा नहीं होने देना चाहते। ऐसे में शरद के लिए यही बेहतर होगा कि वह या तो खुद की नई पार्टी गठित करें या लालू यादव से हाथ मिला लें।
नीतीश से हैं वैचारिक मतभेद
बिहार की राजनीतिमें राम और श्याम की जोड़ी कहे जाने वाले नीतीश कुमार और शरद यादव के बीच पिछले कुछ वक़्त से वैचारिक मतभेद सामने आने लगे थे। इसकी शुरुआत तब हुई थी जब नीतीश कुमार ने शरद यादव की रजामंदी के खिलाफ जाकर जेडीयू अध्यक्ष का पद संभाला था। उसके बाद नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक और हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के समर्थन को लेकर दोनों में मतभेद खुलकर सामने आए। वैचारिक मतभेदों की बात राजनीति के क्षेत्र में व्यवहारिक नहीं है और इस देश में कुशल राजनीतिज्ञ वही कहलाता है जो हालातों के हिसाब से विचारों और सिद्धांतों से समझौता कर ले। पर एक बिंदु यह भी है कि जब शरद यादव के नजरिए की पार्टी में कोई जगह नहीं बची है तो उनके पार्टी में रहने का औचित्य ही क्या है।
जातीय महागठबंधन
बिहार का महागठबंधन विपक्ष को कई नई संभावनाएं दे गया। भले ही यह महागठबंधन अब अपना वजूद खो चुका हो पर इसने विपक्षी दलों को एक सकारात्मक रणनीति और उनकी उम्मीदों को संजीवनी देने का काम किया है। अब अगली सम्भावना यह बन रही है कि शरद यादव लालू प्रसाद यादव के साथ मिल सकते हैं। हाल ही में आरजेडी के दो प्रमुख नेता मनोज झा और रघुवंश प्रसाद सिंह शरद यादव से मिल चुके हैं। मुलायम सिंह यादव पहले ही महागठबंधन की बात कह चुके हैं। शरद यादव यूँ तो बिहार से राज्यसभा सदस्य हैं पर वह मूलतः मध्य प्रदेश में जबलपुर के निवासी हैं। मुलायम, लालू और शरद का गठबंधन उत्तर प्रदेश-बिहार-मध्य प्रदेश के यादवों का महागठबंधन होगा जो आगामी लोकसभा चुनावों में काफी कारगर साबित हो सकता है। सपा में आई दरार से पहले यह खबर आई थी कि सपा और आरजेडी का आपस में विलय हो सकता है। अगर राजनीति के यह तीनों धुरंधर एकसाथ आ जायें तो देश की राजनीति में तकरीबन 15 फ़ीसदी मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली यादव बिरादरी को अपनी ओर खींचने में सफल रहेंगे और विपक्ष के ‘मिशन-2019’ के लिए यह काफी कारगर साबित होगा।
विपक्ष के ‘अटल’
शरद यादव को पार्टी संगठन में काम करने का लम्बा अनुभव है। उनके नेतृत्व में ही जेडीयू ने बिहार में हर बार सरकार बनाई और नीतीश की ताजपोशी हुई। नीतीश कुमार तो पार्टी का चेहरा मात्र थे उस चेहरे को चमकाने का पूरा श्रेय शरद यादव को जाता है। शरद यादव गठबंधन करने में भी माहिर है और राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान है। पूरे देश का मीडिया उन्हें तवज्जो देता है और खुद शरद यादव मोदी को रोकने के लिए महागठबंधन की बात कर चुके हैं। ऐसे में मुमकिन है वह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की तरह सबको साथ लेकर चलने वाले गठबंधन में महती भूमिका निभाए और महागठबंधन के लिए धूरी का काम करें।
नीतीश पर पलटवार
हाल के कुछ महीनों में शरद यादव अपनी ही पार्टी में हाशिए की तरफ बढ़ रहे हैं। इसका मुख्य कारण नीतीश कुमार और उनके लिए फैसले हैं। नीतीश कुमार ने पिछले वर्ष शरद यादव को अपदस्थ कर पार्टी प्रमुख का पद हथिया लिया था और उसके बाद कई मौकों पर पार्टी में उनकी पकड़ कमजोर की थी, फिर चाहे वो नोटबंदी का समर्थन हो या रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी का। ऐसे में मुमकिन है शरद यादव नीतीश के खिलाफ जाए और विपक्षियों से जा मिलें। शरद यादव के पास अपना कोई वोटों का आधार नहीं है और वह जमीन से जुड़े नेता नहीं है। पर वह राष्ट्रीय पहचान रखते है और उनकी संगठन कुशलता विपक्ष के लिए फायदेमंद रहेगी। ऐसे में मुमकिन है कि शरद यादव नीतीश पर पलटवार कर यूपीए के साथ चले जायें और केंद्रीय महागठबंधन की नींव रखे।