Raisina Dialogue 2024, New Delhi: पिछले दिनों वैश्विक राजनीति के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण सम्मेलनों का आयोजन किया गया- पहला म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन (Munich Security Conference) और दूसरा दिल्ली में रायसीना संवाद (Raisina Dialogue)। दोनों सम्मेलनों में एक बात जो निर्विवाद रूप से उभर कर आया कि वर्तमान में दुनिया कई धड़ों में विभाजित है और सभी धड़ों के अपनी वास्तविकताऐं, अपनी प्राथमिकताऐं और अपनी सहूलियतें हैं।
“Raisina Dialogue is an opportunity to discuss global, economic challenges”: Austrian Minister
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— ANI Digital (@ani_digital) February 22, 2024
Raisina Dialogue 2024
ज्ञातव्य हो कि हाल ही में रायसीना डायलॉग (Raisina Dialogue) का 9वाँ संस्करण नई दिल्ली में आयोजित किया गया जिसमें लगभग 115 देशों के 2,500 से अधिक प्रतिभागियों ने भाग लिया। दिल्ली स्थित थिंक टैंक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF), विदेश मंत्रालय के साथ साझेदारी में सम्मेलन की मेज़बानी करता है।
इस बार इस संवाद की थीम थी- “चतुरंग: संघर्ष, प्रतियोगिता, सहयोग, निर्माण (Chaturanga: Conflict, Contest, Cooperate, Create)”
रायसीना डायलॉग भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र पर आयोजित किया जाने वाला एक एक वार्षिक सम्मेलन है जिसका उद्देश्य विश्व के सम्मुख सबसे चुनौतीपूर्ण मुद्दों का समाधान करना है। इसकी प्रेरणा शांगरी-ला डायलॉग से ली गई थी।
म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन (MSC) और रायसीना संवाद: एक तुलना
म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन (MSC) और रायसीना संवाद – दोनों ही सम्मेलनों की पारस्परिक तुलना की जाए तो MSC का दायरा काफी हद तक यूरोप से संबंधित सुरक्षा बिंदुओं और यूरोप की प्राथमिकताओं तक ही सीमित होती है लेकिन रायसीना संवाद का दायरा वृहत्तर होता है।
उदाहरणार्थ, म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन (MSC) में रूस-यूक्रेन युद्ध के मुद्दे पर उन्हीं बिंदुओं को उठाया गया जो यूरोप की प्राथमिकताओं को प्रभावित कर रहीं है। जबकि रायसीना संवाद में इसी मुद्दे पर न सिर्फ यूरोप के पक्ष को बल्कि रूस के नीति-निर्माताओं के पक्ष को भी दुनिया के सामने पेश करने का मंच प्रदान किया गया।
दूसरा, रायसीना संवाद के मंच पर रूस और ईरान आदि कई ऐसे देश के प्रतिनिधियों की मौजूदगी भी दिखी जो MSC के मंच पर नहीं थे।
बदलता वैश्विक परिदृश्य: ‘West’ Vs East
ज़ाहिर है, रायसीना संवाद (Raisina Dialogues) जैसे मंच इस समय के वैश्विक राजनीति के सापेक्ष “पश्चिम और पूरब” के बीच बढ़ते बौद्धिक विभाजन के संबंध में कई महत्वपूर्ण सवाल उठा रहे हैं और दिल्ली, रियाद, दोहा, अबू-धाबी जैसे शहर वैश्विक राजनीति की दशा और दिशा तय करने में अब ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका में नज़र आते हैं।
वैश्विक राजनीति की यह परिस्थिति आज से एक या दो दशक पहले नहीं थीं। तब मुख्यतः दो धड़ें थीं- एक अमेरिका के साथ सीधा या परोक्ष रूप से खड़े देशों का समूह और दूसरा वे देश जिन्हें अमेरिका से दूरी बना के चल रहे थे। परंतु यहाँ दोनों ही पक्ष में अमेरिका ही केंद्र बिंदु था।
उस से थोड़ा और पहले जाएं तो संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) और सोवियत संघ (USSR) के रूप में दो मुख्य धाराएं थीं। इन्हीं दोनों के बीच एक गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों (NAM) का एक अपना समूह था जिसका नेतृत्व भारत के इर्द-गिर्द ही घूम रहा था। यह समूह वजूद में तो आज भी है पर इसका प्रभाव दिन व दिन कम होने लगा। सच्चाई यह भी है कि सोवियत संघ के विघटन(Dis-integration of USSR) के बाद आज गुट-निरपेक्षता (Non Alignment) की बहुत आवश्यकता भी नहीं रह गई है।
परंतु, विश्व राजनीति में अब हालात बदले हैं। बेशक सोवियत संघ (USSR) के विघटन के बाद अगले एक-डेढ़ दशक तक विश्व मंच पर अमेरिका (USA) का एकमात्र विश्व-शक्ति के तरह बोलबाला रहा; लेकिन पिछले दो दशकों में एशियाई शक्तियों का उभार हुआ है। चीन और भारत का दुनिया के बड़ी आर्थिक शक्ति और बड़े बाज़ार के रूप से उभरने से वैश्विक राजनीति और कूटनीति की दिशा को बदल दिया है।
इसी क्रम में भारत ने भी अपनी नीतियों में अभूतपूर्व बदलाव किया। पिछले कुछ दशकों से भारत ने अपने ऐतिहासिक गुट-निरपेक्षता (Non-Alignment) की नीति में बदलाव करते हुए अब बहु-संरेखी (Multi-Alignment) नीतियों को अपनाया है। भारत के इन्हीं कदमों की वजह से आज दुनिया भारत की तरफ़ देखती हैं।
रायसीना संवाद हो या G20 का सफल आयोजन या फिर अंतरराष्ट्रीय सोलर अलाइंस (ISA) आदि- ऐसे तमाम मंचो पर भारत दुनिया को प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है। भारत के इन आयोजनों की खास बात यह भी है कि इन मंचों पर उन तमाम देशों और प्रतिनिधियों को अपना पक्ष रखने का मौका मिलता है जिन्हें दुनिया के अन्य मंचों पर मसलन म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन (MSC) या विश्व आर्थिक फोरम (WEF) आदि में अपनी आवाज़ रखने की जगह नहीं मिलती।
रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में दुनिया ने भारत के जरिये रूस पर दवाब बनाने की भरपूर कोशिश की गई। पश्चिम के देश चाहते थे कि भारत रूस के साथ अपना व्यापार बंद कर दे। रायसीना संवाद के मंच से भी यूरोप के देशों के प्रतिनिधियों ने भारत से यह गुजारिश की कि वह रूस से तेल न खरीदे क्योंकि रूस इन पैसों का इस्तेमाल यूक्रेन के ख़िलाफ़ जंग को जारी रखने में कर रहा है।
परंतु भारत ने रूस से तेल खरीदना बंद करने के बजाए उसे बढ़ा दिया। आज भारत अपनी जरूरत का लगभग एक तिहाई कच्चा तेल रूस से खरीद रहा है। दूसरी तरफ़, भारत लगातार यूक्रेन के साथ भी अपने सबंध ठीक करते हुए जसे भी सहायता प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है।
हाल ही में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक वैश्विक मंच से एक पत्रकार के सवाल का जवाब देते हुए कहा- “हम अपनी जरूरतों के हिसाब से अन्य देशों के साथ संबंध रखते हैं। रूस इस वक़्त हमें सस्ता तेल बेच रहा है तो हम खरीद रहे हैं। कोई और उस से सस्ता तेल दे दे, तो हम उस से खरीदेंगे।” मज़ेदार बात यह भी कि इस मंच पर उनके साथ अमेरिका के विदेश सचिव भी मौजूद थे।
अगर भारत जैसे मुल्क आज से दो दशक पहले अमेरिका या पश्चिम के किसी ताक़त के मुकाबले इस तरह आँखों में आंख डालकर चुनौती देता तो यक़ीन जानिए अब तक कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए जाते। इस तथ्य का सबसे पुख्ता सबूत उस वक़्त मिलता है जब भारत ने 1998 में पोखरण परमाणु परीक्षण किया था। तब अमेरिका ने ढेरो प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन आज वक़्त बदला है।
कुलमिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा कि बीते कुछ दशकों में पश्चिम और पूरब के बीच की खाई वैश्विक राजनीति के दायरे में सिमटती नज़र आई है। अब पूरब के देश मसलन भारत, यूएई, सऊदी अरब आदि तेज़ी से उभरकर सामने आ रहे हैं और निःसंदेह इस प्रक्रिया में रायसीना संवाद (Raisina Dialogues) जैसे मंच महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।