भारत देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं। देश में 29 राज्य हैं और हर वक़्त कहीं ना कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। कई बार चुनाव आयोग इन चुनावों को अपनी सुविधा के लिए एक साथ कराता है। देश के संविधान में भी यह बात विदित है कि चुनाव आयोग अपनी सुविधा के लिए ‘समय पूर्व चुनाव’ करा सकता है। चुनावों में सरकारी मशीनरी और सैन्य बल की जरुरत होती है और मौजूदा हालातों के मद्देनजर बार-बार सेना को चुनावों के लिए बुलाना उचित प्रतीत नहीं होता। चुनाव कराने में काफी खर्चा भी होता है और हर राज्य में अलग-अलग चुनाव होने की स्थिति में यह खर्च कई गुना बढ़ जाता है। सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद कई बार इस बात का जिक्र कर चुके हैं। आगामी वर्ष के आखिर तक देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम राज्य शामिल हैं। अगर सभी राजनीतिक दल एकमत हो तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली मोदी सरकार ‘समय पूर्व’ चुनावों के लिए चुनाव आयोग जा सकती है।
बता दें कि इन 4 राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल अगले वर्ष नवंबर-दिसंबर में समाप्त हो रहा है। वर्ष 2019 में देश के लोकसभा चुनाव अप्रैल-मई के महीने में प्रस्तावित हैं। ऐसे में मुमकिन है कि लोकसभा चुनावों को ‘समय पूर्व’ कराकर विधानसभा चुनावों के साथ निपटा लिया जाये। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी इस सन्दर्भ में पहले भी कह चुके हैं कि बार-बार चुनाव कराने से सरकारी मशीनरी और मन्त्रिमण्डल के कामकाज पर असर पड़ता है। यह बेहद खर्चीला भी होता है। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी देश की चुनावी व्यवस्था में सुधार लाने के पक्षधर थे। उन्होंने भी देश भर में एक साथ चुनाव कराने की जरुरत पर जोर दिया था। भारतीय संविधान भी चुनाव आयोग को अपनी सुविधानुसार ‘समय पूर्व’ चुनाव की इजाजत देता है। मोदी सरकार इस बात को लेकर संकेत दे चुकी है कि वह 2018 में ही चुनावी रण में कूदने के लिए पूरी तरह तैयार है। ऐसे में अब सबकुछ विपक्षी दलों पर निर्भर करता है कि क्या वे ‘समय पूर्व’ चुनावों को लेकर एकमत हैं?
भाजपा को मिलेगा फायदा
अगर लोकसभा चुनाव 2018 में ही विधानसभा चुनावों के साथ होते हैं तो निश्चित रूप से मोदी सरकार को इसका फायदा मिलेगा। जिन 4 राज्यों में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं उनमें से 3 राज्यों में भाजपा की सरकार है। फिलहाल इन तीनों जगहों पर कोई भी दल भाजपा के सामने टिकता नजर नहीं आ रहा है। तीनों राज्यों में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस अंतर्कलह से परेशान है। कभी कांग्रेस का गढ़ कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ अब भाजपा का गढ़ बन चुका है। पनामा पेपर्स में नाम आने और आदिवासियों के बीच बढ़ते रोष से मुख्यमंत्री रमन सिंह की लोकप्रियता में कमी जरूर आई है पर सामने कोई मजबूत चेहरा ना होने से उनकी जीत तय मानी जा रही है। 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने यहाँ क्लीन स्वीप किया था।
मध्य प्रदेश में पिछले 3 बार से सत्ता पर काबिज मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता पर भी किसी को संदेह नहीं है। हालांकि व्यापम घोटाले से सरकार की बड़ी किरकिरी हुई है पर विपक्षी दल कांग्रेस इसका फायदा उठाने में नाकाम रही है। राज्य में कांग्रेस के दो धड़े हैं, एक का नेतृत्व ज्योतिरादित्य सिंधिया करते हैं वहीं दूसरे धड़े का नेतृत्व दिग्विजय सिंह करते हैं । हालांकि पिछले कुछ वक़्त में सिंधिया का प्रभाव प्रदेश कांग्रेस में बढ़ा है पर वह अभी भी शिवराज सिंह चौहान के मुकाबले कहीं खड़े नहीं होते। 2014 के लोकसभा चुंनावों में मध्य प्रदेश में कांग्रेस को मिली 2 सीटों में से एक सीट ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जीती थी।
राजस्थान की राजनीति का स्वभाव उस ऊँट की तरह है जो किसी भी ओर करवट ले सकता है। यह बात यहाँ के नेताओं को भी पता है और अबतक कोई इसे बदलने में सफल नहीं रहा है। फिर चाहे वो कांग्रेसी दिग्गज और राजीव गाँधी के विश्वासपात्र रहे अशोक गहलोत हो या मौजूदा मुख्यमंत्री और भाजपाई दिग्गज वसुंधरा राजे। हालांकि वसुंधरा राजे इससे पहले भी लगातार 2 बार राज्य की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं पर उनकी मौजूदा सरकार की लोकप्रियता कोई शुभ संकेत नहीं दे रही है। कांग्रेस के मौजूदा प्रदेशाध्यक्ष और राहुल गाँधी के विश्वासपात्र सचिन पायलट युवाओं में लोकप्रिय हैं और गुर्जर बिरादरी का प्रतिनिधित्व करते हैं। हालांकि वह अजमेर से अपनी लोकसभा सीट 2014 के चुनावों में हार गए थे पर इससे उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। हार के बावजूद उन्हें 2009 के चुनावों के मुकाबले ज्यादा मत मिले थे और उनकी हार का कारण मोदी लहर को बताया गया। 2014 लोकसभा चुनावों में भाजपा ने राजस्थान में क्लीन स्वीप किया था। पर हालिया गुर्जर आरक्षण आन्दोलन ने सचिन पायलट को गुर्जरों में लोकप्रिय बना दिया है और मुमकिन है आगामी चुनावों में बिरादरी उनके पक्ष में लामबंद होकर वोट करे।
इन सभी तर्कों के बाद एक बात जिसका जिक्र सबसे जरुरी है वह है ‘मोदी लहर’। भले ही विपक्ष इस तथ्य को आधारहीन मानता हो पर पिछले लोकसभा चुनावों में पूरे देश में प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव देखा गया। जाने कितने प्रत्याशी तो मोदी के नाम मात्र से जीत गए और पूरे देश ने प्रधानमन्त्री के चेहरे को देखकर वोट दिया। 2014 के बाद हुए हर विधानसभा चुनावों में मोदी लहर का स्पष्ट प्रभाव देखा गया है। अगर बिहार को छोड़ दें तो हर जगह इसके सकारात्मक परिणाम ही सामने आये हैं। ऐसे में एक बात तो तय है कि इन सभी राज्यों के विधानसभा चुनावों पर भी ‘मोदी लहर’ का असर जरूर होगा और एक साथ चुनाव का होना भाजपा के लिए फायदेमंद साबित होगा।