श्रीलंका में राष्ट्रपति के नाटकीय अंदाज़ के कारण राजनीतिक संकट बरक़रार है। राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरिसेना ने पूर्व प्रधानमन्त्री रानिल विक्रमसिंघे को पद से बर्खास्त कर, संसद को भंग कर दिया था। गुरुवार को श्रीलंका की शीर्ष अदालत ने राष्ट्रपति के इस निर्णय को असंवैधानिक करार दिया। राष्ट्रपति के इस विवादित फैसले से राष्ट्र को संवैधानिक संकट से जूझना पड़ा था।
शीर्ष अदालत की सात सदस्य पीठ ने कहा कि जब तक संसद साढ़े चार साल पूर्ण न कर दें, राष्ट्रपति सदन को भंग नहीं कर सकते हैं। राष्ट्रपति ने सदन को भंग कर 5 जनवरी को दोबारा चुनाव का ऐलान किया था।
श्रीलंका की 225 सदस्य संसद में बहुमत के लिए 113 सांसदों का समर्थन जरुरी है और यह आंकड़ा छूने में विवादित प्रधानमन्त्री महिंदा राजपक्षे असमर्थ थे। सदन में रानिल विक्रमसिंघे के समक्ष बहुमत है जिसे वह हाल ही में सदन में साबित भी कर चुके हैं।
महिंदा राजपक्षे पर पाबन्दी
9 नवम्बर को संसद को भंग करने से सम्बंधित राष्ट्रपति के खिलाफ अदालत में 13 याचिका दायर की गयी थी। राष्ट्रपति ने कार्यकाल पूर्ण होने के 20 माह पूर्व ही सदन को भंग कर दिया था। सुनवाई के दौरान उपस्थित वकील ने बताया कि महिंदा राजपक्षे और उनकी विवादित सरकार को प्रधानमंत्री, मंत्री और कैबिनेट मंत्री की तरह कार्य करने पर पाबंदी लगा दी है। अदालत ने कहा कि पद पर जबरदस्ती कोई प्रधानमन्त्री और मंत्री आसीन हो तो यह एक अपूरणीय क्षति होती है।
रानिल विक्रमसिंघे ने कहा कि अगर राष्ट्रपति ने अदालत के फैसले की अवहेलना की तो कोलोम्बों में उनके समर्थकों का हुजूम उमड़ेगा। उन्होंने कहा कि अदालत के फैसले के बाद हम ‘पीपल पॉवर’ अभियान की शुरुआत करेंगे ताकि राष्ट्रपति पर दबाव बने और वह इस संकट को खत्म करें।
श्रीलंका के सबसे बड़े संजातीय समूह ने तमिलों के गठबंधन ने रानिल विक्रमसिंघे को अपना समर्थन दिया है। इस गठबंधन के समक्ष 14 सीटें हैं जो विक्रमसिंघे का संसद में बहुमत साबित करती है।