कभी देश के सबसे बड़े राजनीतिक कुनबे रहे सपा में अब दो फाड़ हो चुके हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव अपने चाचा रामगोपाल यादव के सहयोग से एक धड़े की कमान सँभाले हुए थे वहीं सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव अपने भाई शिवपाल सिंह यादव के साथ दूसरे धड़े का नेतृत्व कर रहे थे। यह वर्चस्व की लड़ाई चुनाव आयोग जा पहुँची जहाँ बाजी अखिलेश यादव के हाथ लगी थी। पार्टी पर नियंत्रण स्थापित होने के बाद अखिलेश यादव ने एक-एक कर अपने विरोधियों को किनारे लगाना शुरू किया और उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव भी इससे अछूते नहीं रहे। अखिलेश ने उनसे मंत्री पद छीनकर सपा से निष्कासित कर दिया। मुलायम सिंह यादव ने शिवपाल का पक्ष लेते हुए अखिलेश यादव के सहयोगी रामगोपाल यादव को 6 साल के लिए सपा से निष्कासित कर दिया।
मुलायम सिंह यादव के बीच-बचाव करने के बाद चाचा-भतीजे में सुलह हो गई और शिवपाल वापस सपा और अखिलेश मन्त्रिमण्डल में लौट आए। पर इसके बाद भी कई मौकों पर इन दोनों के बीच मतभेद देखने को मिले। अखिलेश यादव पार्टी में अपनी पकड़ का इस्तेमाल कर सपा अध्यक्ष बन गए और मुलायम सिंह यादव को सपा संरक्षक की भूमिका तक सीमित कर दिया। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में मिली करारी शिकस्त के बाद शिवपाल सिंह यादव ने कहा था कि मुलायम सिंह यादव को सपा अध्यक्ष बना देना चाहिए। अखिलेश यादव ने ऐसी किसी भी सम्भावना से इंकार करते हुए कहा था कि वह आगे भी सपा अध्यक्ष बने रहेंगे। सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव द्वारा की गई हालिया प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि शिवपाल आगे की लड़ाई अकेले लड़ेंगे।
सियासी लड़ाई में आड़े आ रहा है मुलायम का पुत्रमोह
देश के सबसे बड़े सियासी कुनबे में जारी इस वर्चस्व की लड़ाई में मुलायम सिंह यादव का पुत्रमोह आड़े आ रहा है। कई मुद्दों पर मतभेद होने के बावजूद मुलायम सिंह यादव का अखिलेश के प्रति रुख नरम रहा है। सोमवार, 25 सितम्बर को लोहिया ट्रस्ट में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह उम्मीद की जा रही थी नेताजी नई पार्टी के गठन को लेकर कोई बड़ी घोषणा करेंगे। पर उन्होंने सभी संभावनाओं को दरकिनार करते हुए नई पार्टी के गठन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। स्थापना के वक्त से ही सपा में नंबर दो रहे शिवपाल सिंह यादव इस प्रेस कॉन्फ्रेंस से नदारद दिखे। इससे पूर्व लोहिया ट्रस्ट की बैठक में मुलायम सिंह यादव ने रामगोपाल यादव को हटाकर शिवपाल सिंह यादव को ट्रस्ट का नया सचिव नियुक्त किया था। अखिलेश यादव के गुट ने इस बैठक का बहिष्कार किया था।
सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि अखिलेश मेरे पुत्र हैं और एक पिता होने के नाते मेरा आशीर्वाद हमेशा उनके साथ रहेगा। लेकिन उन्होंने कहा था कि वह अखिलेश यादव के फैसलों का समर्थन नहीं करते हैं। उन्होंने कहा था कि अखिलेश यादव मेरे पुत्र हैं और पिता-पुत्र की यह लड़ाई कब तक चलेगी, इसपर कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसा कह उन्होंने एकजुटता की संभावनाओं को बल दिया था। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा था कि अखिलेश ने मुझे 3 महीने बाद सपा अध्यक्ष का पद वापस देने को कहा था जो उन्होंने नहीं किया। उन्होंने कहा था कि जो इंसान अपने पिता का नहीं हो सकता वह किसी का भी नहीं हो सकता और उसे जिंदगी में सफलता नहीं मिल सकती। अपनी नाराजगी के बावजूद उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से अखिलेश के खिलाफ नई पार्टी के गठन की चर्चाओं को नकार दिया था।
सियासी वनवास खत्म करेंगे शिवपाल
इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि दशहरा के दिन रावण का वध होने के बाद शिवपाल सिंह यादव अपना सियासी वनवास खत्म करने की तैयारी में हैं। वह इस बाबत दीवाली से पहले ही कोई बड़ा धमाका कर उत्तर प्रदेश की सियासत में भूचाल ला सकते हैं। शिवपाल सिंह यादव सपा की स्थापना के वक्त से ही पार्टी से जुड़े हैं और अपने सियासी सफर में उन्होंने नेताजी के साथ हर तरह के उतार-चढ़ाव देखे हैं। संगठन में उनकी पकड़ की वजह से उन्हें नेताजी का दायाँ हाथ कहा जाता था और हमेशा ही मुलायम सिंह यादव के बाद सपा में उनका प्रभुत्व रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से पूर्व कुनबे में मची सियासी कलह का फायदा अखिलेश यादव को मिला है। सपा नेता और कार्यकर्ता अखिलेश को नेताजी के उत्तराधिकारी के तौर पर स्वीकार कर चुके हैं।
शिवपाल सिंह यादव धीरे-धीरे सपा में हाशिए की तरफ बढ़ रहे हैं। पुत्रमोह की वजह से नेताजी भी प्रत्यक्ष रूप से उनका साथ नहीं दे पा रहे हैं। उनके कई करीबी सपा का साथ छोड़ बसपा और भाजपा का दामन थाम चुके हैं। मौजूदा सपा पूरी तरह अखिलेशमय हो चुकी है पर उसमे शिवपाल के रसूख को भी नकारा नहीं जा सकता। लोहिया ट्रस्ट में शिवपाल का बोलबाला है और उनके समर्थक शीर्ष पदों पर काबिज हैं। सपा विधायक दल के कई सदस्य उनके समर्थन में हैं। ऐसे में अगर शिवपाल सिंह यादव का अपने राजनीतिक जीवन की नई पारी शुरू करने के लिए नई पार्टी का गठन करना स्वाभाविक है। यह कदम उनके डूबते राजनीतिक जीवन को नया आधार देगा और उनकी संगठन क्षमता सूबे की सियासत में उनके रसूख को और मजबूत करेगी।