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    गुजरात विधानसभा चुनाव

    एक वक्त था जब देश में हर तरफ कांग्रेस का बोलबाला था। केंद्र के साथ-साथ राज्यों में भी कांग्रेस से टक्कर लेने वाला कोई नहीं था। इंदिरा राज के बाद कांग्रेस की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती गई और वामपंथ के साथ-साथ दक्षिणपंथी संगठनों ने भी भारतीय राजनीति में मजबूत दस्तक दी। भारतीय जनता पार्टी ने अपने गठन के बाद से ही हिंदुत्व को अपना मुख्या मुद्दा बनाया और 90 के दशक में राम मंदिर को मुद्दा बनाकर देश का सियासी कायापलट कर दिया। अटल, आडवाणी और जोशी की तिकड़ी कांग्रेस के लिए अबूझ पहेली बन गई थी और भाजपा एक-एक कर देश के सभी प्रमुख राज्यों में सत्ता हथियाती जा रही थी। देश की आजादी के बाद से ही कांग्रेस का गढ़ रहा गुजरात भी इससे अछूता नहीं रहा और कभी ‘खाम’ राजनीति से गुजरात में रिकॉर्ड जीत हासिल करने वाली कांग्रेस के दिन भी लद गए।

    90 के दशक में कांग्रेस के ‘खाम’ समीकरण पर निर्भर होने की वजह से उसके हिमायती रहे पाटीदारों का झुकाव भाजपा की तरफ होने लगा था। 1995 विधानसभा चुनावों में भाजपा ने केशुभाई पटेल को अपना चेहरा बनाकर गुजरात के पाटीदारों को साधने का दांव खेला जो सफल रहा। 90 का दशक राम मंदिर आन्दोलन की वजह से भी चर्चा में रहा था लिहाजन भाजपा को हिंदुत्व हितैषी छवि का भी लाभ मिला। भाजपा पहली बार पूर्ण बहुमत से गुजरात की सत्ता में आई और केशुभाई पटेल के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ। इसके बाद हालत कुछ ऐसे बने कि कांग्रेस आज तक गुजरात में सत्ता वापसी नहीं कर सकी और 22 वर्षों से सियासी वनवास काट रही है। 1995 के बाद पहली बार 2017 में कांग्रेस गुजरात की सत्ताधारी भाजपा सरकार के सामने खड़ी होती नजर आ रही है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी जी-जान से गुजरात जीतने की कोशिशों में लगे है।

    पाटीदारों के समर्थन और हिंदुत्व हितैषी छवि के सहारे भाजपा पिछले 5 बार से गुजरात में चुनाव जीतती आई है पर इस बार उसका दांव उल्टा पड़ता दिख रहा है। परंपरागत वोटबैंक पाटीदार समाज के कटने और सरकार विरोधी लहर के चलते भाजपा गुजरात में बैकफुट पर नजर आ रही है। गुजरात भाजपा के पास अब मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी जैसा लोकप्रिय और सशक्त चेहरा भी नहीं है जो चुनावों में पार्टी की नैया अपने दम पर पार लगा सके। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी सॉफ्ट हिंदुत्व का कार्ड खेल रहे हैं और धुआँधार प्रचार अभियानों और जातीय समीकरणों को साधकर भाजपा की नींव हिलाने में जुटे हैं। राहुल गाँधी की इस राजनीतिक सक्रियता और गुजरात में कांग्रेस की मजबूत होती पकड़ के पीछे राजीव गाँधी के विश्वासपात्र रहे राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का दिमाग है।

    गुजरात में राहुल के चाणक्य बने गहलोत

    यूँ तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल को कांग्रेस का चाणक्य कहा जाता है पर गुजरात विधानसभा चुनावों में गुजरात कांग्रेस प्रभारी अशोक गहलोत यह भूमिका निभाते नजर आ रहे हैं। 80 के दशक से गाँधी परिवार के भरोसेमंद रहे अशोक गहलोत को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी राजस्थान की राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में लाए थे। अशोक गहलोत इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में केंद्रीय मंत्री के पद पर रहे। गाँधी परिवार से अपनी नजदीकियों के चलते अशोक गहलोत 2 बार राजस्थान के मुख्यमंत्री भी बने। अब अशोक गहलोत गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी का मार्गदर्शन करते नजर आ रहे हैं। भारतीय सियासत के पुराने खिलाड़ी अशोक गहलोत के पास तकरीबन 4 दशकों का सियासी तजुर्बा है और गुजरात में इसकी बानगी देखने को मिल रही है।

    राष्ट्रपति चुनावों के ठीक बाद दिग्गज कांग्रेसी शंकर सिंह वाघेला ने गुजरात कांग्रेस से किनारा कर लिया था। इस वजह से राज्यसभा चुनावों के वक्त कांग्रेस उम्मीदवार अहमद पटेल की दावेदारी खतरे में पड़ गई थी। तमाम दुश्वारियों के बावजूद भी कांग्रेस के चाणक्य अहमद पटेल भाजपा का सियासी चक्रव्यूह भेदने में सफल रहे। हालाँकि कांग्रेस इस बार गुजरात विधानसभा चुनावों में अहमद पटेल को प्रचार अभियान में नहीं उतार रही फिर भी गुजरात की सियासत में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। शंकर सिंह वाघेला की बगावत के बाद गुजरात कांग्रेस में शक्ति सिंह गोहिल, भरत सिंह सोलंकी और अर्जुन मोडवाड़िया जैसे नेता बचे हैं। ये सभी क्षेत्रीय नेता हैं और इनमें से किसी का कद अकेले दम पर पार्टी की जिम्मेदारी उठा लेने लायक नहीं है। ऐसी नाजुक परिस्थितियों में अशोक गहलोत महीनों से गुजरात में कांग्रेस और राहुल गाँधी का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

    राहुल के लिए दिल्ली का आधार बना गुजरात

    कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी के तेवर पिछले कुछ समय से बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। राहुल गाँधी राजनीतिक रूप से काफी सक्रिय नजर आ रहे हैं। पिछले कुछ महीनों में राहुल गाँधी की लोकप्रियता में जबरदस्त बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। पिछले 22 सालों से गुजरात की सत्ता से बाहर रहने के बाद कांग्रेस इस बार भाजपा को टक्कर देती नजर आ रही है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री अनरेन्द्र मोदी का गृह राज्य होने की वजह से गुजरात विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपनी चुनावी रैलियों में कई बार गुजरात में 150+ सीटें जीतने की मंशा जाहिर कर चुके हैं। मौजूदा सियासी हालातों को देखते हुए यह लक्ष्य काफी मुश्किल नजर आ रहा है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी भाजपा का विरोध कर रहे हर नेता से हाथ मिला रहे हैं और माहौल को कांग्रेस के पक्ष में करने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं।

    कांग्रेस में पिछले काफी वक्त से राहुल गाँधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की माँग उठ रही थी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी भी यह इच्छा जाहिर कर चुकी हैं कि राहुल गाँधी अब कांग्रेस की कमान सँभाल लें। ऐसे में गुजरात विधानसभा चुनाव राहुल गाँधी के लिए अच्छा प्लेटफार्म साबित हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य और भाजपा के दबदबे वाले गुजरात में कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन पार्टी में राहुल गाँधी के कद को और ऊँचाई देगा और बतौर अध्यक्ष उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ेगी। राहुल गाँधी लगातार गुजरात में सक्रिय नजर आ रहे हैं और पिछले 2 महीनों में 5 बार राज्य का दौरा कर चुके हैं। राहुल गाँधी भाजपा को रोकने के लिए गुजरात का जातीय समीकरण भी साध रहे हैं और पाटीदार, ओबीसी और दलित नेताओं को साथ मिलाकर भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेंकने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।

    कांग्रेस ने चुनी जातिगत राजनीति की राह

    गुजरात देश का एकलौता ऐसा राज्य था जहाँ पिछले कई चुनावों से भाजपा विकास को मुख्या मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ती आ रही थी और उसे जीत भी मिल रही थी। बतौर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकलाल में गुजरात में भाजपा की लोकप्रियता चरम पर थी और गुजरात देश के सबसे समृद्ध राज्यों की सूची में अग्रणी स्थान पर था। मगर देशभर में विकास का ढिंढोरा पीटने वाला गुजरात आज जातीय गणित की सियासत में उलझ कर रह गया है। भाजपा का करते वोटबैंक माना जाने वाला पाटीदार समाज भाजपा से कट चुका है और राज्य के दो अन्य मुख्य मतदाता वर्ग ओबीसी व दलित भी भाजपा के खिलाफ खड़े हो चुके हैं। ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर तो कांग्रेस में शामिल भी हो चुके हैं और जिग्नेश व हार्दिक ने पिछले दरवाजे से कांग्रेस को समर्थन देने की बात कही है।

    अभी तक देश में कांग्रेस की छवि मुस्लिम हितैषी दल की रही थी और हर चुनाव में मुस्लिम समाज के वोटर खुल कर कांग्रेस का साथ देते थे। लेकिन भाजपा के हिंदुत्व कार्ड की काट के लिए कांग्रेस ने इस बार जातीय वोटरों को साधने का दांव खेला। गुजरात की सत्ताधारी भाजपा सरकार के खिलाफ आन्दोलनरत पाटीदार, ओबीसी और दलित समाज के नेताओं को अपनी ओर मिलाकर कांग्रेस ने गुजरात का सियासी कायापलट कर दिया है। अब तक एकतरफा रहने वाला गुजरात चुनाव इस बार सभी पूर्वानुमानों और आंकलनों से परे जाता दिख रहा है। इतिहास इस बात का गवाह है कि भाजपा हमेशा से ही जातिगत राजनीति के दांव में उलझ कर रह जाती है और उसकी नैया पार नहीं लग पाती। बिहार विधानसभा चुनाव इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जब ओबीसी-यादव-मुस्लिम समीकरण में उलझकर भाजपा को मुँह की खानी पड़ी थी।

    इस बात को ध्यान में रखते हुए गुजरात कांग्रेस प्रभारी अशोक गहलोत ने भाजपा के हिंदुत्व और विकास कार्ड के सामने कांग्रेस का जातीय कार्ड खेला है। आन्दोलनरत जातीय आन्दोलन के अगुवाओं की त्रिमूर्ति गुजरात में भाजपा के गले का फांस बनती जा रही है। अल्पेश ठाकोर, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी की यह तिकड़ी कांग्रेस के लिए उतनी ही फायदेमंद है जितनी की भाजपा के लिए नुकसानदेह। अशोक गहलोत ने इस तिकड़ी को राहुल गाँधी से मिलाने से लेकर उनकी मांगों पर सहमति तक की कहानी लिखी है और हर जगह सक्रिय दिखे हैं। अल्पेश ठाकोर कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं और कांग्रेस उन्हें चुनावी मैदान में भी उतार सकती है। कांग्रेस के इस जातीय कार्ड से बैकफुट पर आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी चुनावी यात्रा के दौरान यह तक कहना पड़ा कि गुजरात के लोग विकास की राह छोड़कर जातीय राजनीति के बहकावे में ना आए।

    गुजरात में है गहलोत की स्वीकार्यता

    आम तौर पर यह देखा गया है कि प्रदेश प्रभारी के दूसरे राज्य से होने के कारण स्थानीय नेता उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं देते हैं। हिमाचल कांग्रेस में इसका स्पष्ट प्रमाण देखा गया था जब वीरभद्र सिंह ने टिकट बंटवारे में हस्तक्षेप पर बगावत की धमकी दे डाली थी। मगर गुजरात में हालात बिल्कुल अलग है। अशोक गहलोत के सियासी तजुर्बे का गुजरात कांग्रेस के सभी नेता सम्मान करते हैं और उनके निर्णयों पर सहमति रहती है। अशोक गहलोत ने गुजरात में भाजपा के प्रभाव वाली 50 सीटों को छोड़कर 132 ऐसी सीटों को चिन्हित किया है जहाँ कांग्रेस जीत सकती है। कांग्रेस का लक्ष्य इन 135 में से 120 सीटों पर जीत हासिल करना है। इसके लिए कांग्रेस कार्यकर्ता और नेता जी-जान से जुटे हैं और दिन-रात एक किए हुए हैं। भाजपा को बैकफुट पर रखने के लिए गहलोत ने नोटबंदी, जीएसटी, जातीय आन्दोलन को अहम चुनावी मुद्दा बनाया है।

    कांग्रेस की छवि में सुधार

    गुजरात यात्रा के दौरान कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी के नए अंदाज देखने को मिले। सोशल मीडिया पर सक्रियता और लोकप्रियता के अतिरिक्त राहुल गाँधी ने भाजपा के भगवे को टक्कर देने के लिए द्वारका में पीली चादर ओढ़ी। राहुल गाँधी अपनी गुजरात यात्रा के दौरान मंदिर-मंदिर घूमते नजर आए और जनसभाओं में माथे पर त्रिपुण्ड लगाए दिखे। भाजपा कांग्रेस पर ‘हिंदुत्व विरोधी’ और ‘अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण’ करने वाला दल होने का आरोप लगाती थी जिस पर जवाबी हमला करते हुए राहुल गाँधी ने यह सॉफ्ट हिंदुत्व का दांव खेला है। राहुल गाँधी की यात्राओं के दौरान कोई भी मुस्लिम नेता उनके आस-पास नजर नहीं आ रहा है और ना ही अहमद पटेल अब तक चुनाव प्रचार में दिखाई दिए हैं। इसका कारण यह है कि पिछले चुनावों में प्रचार के अंतिम चरण में नरेंद्र मोदी ने ‘मियाँ अहमद पटेल’ कह कर मतों का ध्रुवीकरण कर लिया था जो भाजपा की जीत का आधार बना था।

    राहुल गाँधी की इस सॉफ्ट हिंदुत्व हितैषी छवि के पीछे अशोक गहलोत का दिमाग है। 2014 के लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस ने पूर्व रक्षामंत्री ए के एंटनी के नेतृत्व में हार के कारणों का पता लगाने के लिए कमेटी गठित की थी। एंटनी कमेटी द्वारा दी गई रिपोर्ट में कांग्रेस की हिंदुत्व विरोधी छवि को भी हार के प्रमुख कारणों में से एक माना गया था। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी पिछले कुछ समय से पार्टी की इस छवि को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए वह गुजरात में अपने चुनावी दौरों पर मंदिरों में जा रहे हैं और माथे पर त्रिपुण्ड-तिलक लगाए नजर आ रहे है। भाजपा ने दो दशक पहले इसी हिंदुत्व मुद्दे को आधार बनाकर कांग्रेस को गुजरात की सत्ता से बेदखल किया था और अब आज कांग्रेस इसी हिंदुत्व हितैषी छवि का सहारा लेकर गुजरात की सत्ता तक पहुँचने की कोशिश में लगी है।

    By हिमांशु पांडेय

    हिमांशु पाण्डेय दा इंडियन वायर के हिंदी संस्करण पर राजनीति संपादक की भूमिका में कार्यरत है। भारत की राजनीति के केंद्र बिंदु माने जाने वाले उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले हिमांशु भारत की राजनीतिक उठापटक से पूर्णतया वाकिफ है।मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक करने के बाद, राजनीति और लेखन में उनके रुझान ने उन्हें पत्रकारिता की तरफ आकर्षित किया। हिमांशु दा इंडियन वायर के माध्यम से ताजातरीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर अपने विचारों को आम जन तक पहुंचाते हैं।