गुजरात विधानसभा चुनावों के लिए रणभेरी बज चुकी है। भले ही अभी चुनावी कार्यक्रम की घोषण ना हुई हो पर यह तय है कि गुजरात नव वर्ष में नए मुख्यमंत्री के साथ प्रवेश करेगा। देश के सबसे संपन्न राज्यों में गिने जानेव वाले गुजरात में नवरात्रि के दौरान डांडिया की धूम रहती है पर इस वर्ष साथ-साथ सियासी धमक भी स्पष्ट सुनाई दे रही है। आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर महत्वपूर्ण माने जा रहे गुजरात विधानसभा चुनावों के लिए सियासी बिसात बिछ चुकी है और सभी दल अपने-अपने मोहरों पर दांव लगा सियासी चालें चल रहे हैं। लौह पुरुष सरदार पटेल की जन्मभूमि एक बार फिर राजनीतिक दंगल का मैदान बनने को तैयार है। देश की सियासत में अहम भूमिका निभाने वाले गुजरात राज्य में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव 2019 के लोकसभा चुनावों की पृष्ठभूमि तैयार करेंगे और सभी सियासी दलों को हकीकत का आईना दिखाएंगे।
भाजपा के लिए आसान नहीं होगा इतिहास को दोहराना
भाजपा पिछले 19 सालों से लगातार गुजरात में सत्ता पर काबिज है। इसका बड़ा कारण यह भी रहा है कि इन 19 सालों में से 13 सालों तक नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली है। उनके नेतृत्व में भाजपा ने लगातार 3 विधानसभा चुनाव जीते हैं। बतौर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के दौरान गुजरात ने हर क्षेत्र में विकास किया था और राज्य की गिनती देश के सबसे खुशहाल प्रदेशों में होती थी। अगर गोधरा दंगों को छोड़ दें तो पिछले 19 सालों के दौरान गुजरात में अन्य कोई हिंसक वारदात, साम्प्रदायिक दंगे या आतंकी गतिविधियां नहीं हुई हैं। लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद गुजरात में हालात बदल गए। नरेंद्र मोदी ने आनंदीबेन पटेल को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाकर महिला सशक्तिकरण का नारा बुलंद किया पर वह लोकप्रियता हासिल करने में नाकाम रही।
75 वर्ष की उम्र पार करने के बाद आनंदीबेन पटेल ने मुख्यमंत्री पद त्याग दिया और भाजपा आलाकमान ने विजय रुपाणी को गुजरात का मुख्यमंत्री बना दिया। आंनदीबेन पटेल की तरह विजय रुपाणी भी बतौर मुख्यमंत्री गुजरात में लोकप्रिय नहीं हैं। दरअसल प्रत्यक्ष रूप से इसमें इनकी गलती भी नहीं है। नरेंद्र मोदी के शासनकाल के दौरान गुजरात में उनके अलावा अगर कोई भाजपा का सशक्त चेहरा था तो वह थे उनके दाहिने हाथ कहे जाने वाले अमित शाह। अमित शाह भी इसी वर्ष राज्यसभा सांसद निर्वाचित होकर दिल्ली जा चुके हैं। इन दोनों दिग्गजों के पीछे भाजपा का अभेद्द्य दुर्ग बन चुके गुजरात में कांग्रेस सेंधमारी करने की फिराक में है। इसके लिए वह हर मुमकिन कोशिश कर रही है और हर ओर हाथ-पाँव मार रही है।
आन्दोलनरत युवाओं को साध रही है कांग्रेस
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी पिछले कुछ वक्त से लगातार गुजरात का दौरा कर रहे हैं। राज्यसभा चुनावों में अहमद पटेल को मिली जीत से कांग्रेस को भाजपा पर मनोवैज्ञानिक बढ़त मिली थी और गुजरात कांग्रेस में मची बगावत के जख्मों पर भी मरहम लगा था। कांग्रेस तभी से गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर तैयारियों में जुट गई थी। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी के तीन दिवसीय गुजरात दौरे का आज आखिरी दिन है। उन्होंने इन तीन दिन के दौरे के दौरान सौराष्ट्र क्षेत्र का दौरा किया और छोटे-बड़े स्तर की कई सभाएं की। इसके बाद वह उत्तरी, दक्षिणी और मध्य गुजरात का दौरा करेंगे। गुजरात में भाजपा का अभेद्द्य दुर्ग भेदने के लिए कांग्रेस राज्य के आंदोलनरत युवाओं का सहारा ले रही है। कांग्रेस अगर इनको अपनी तरफ करने में सफल रहती है तो उसे चुनावों में फायदा मिलना तय है।
भारी पड़ सकती है पाटीदार समाज की नाराजगी
25 अगस्त, 2015 का दिन गुजरात ही नहीं वरन देश के इतिहास में दर्ज हो गया। हार्दिक पटेल के आह्वान पर अहमदाबाद के जेएमडीसी मैदान में भारी भीड़ एकत्रित हुई थी और गुजरात का पाटीदार समाज आरक्षण की मांग को लेकर सड़कों पर उतर गया। तकरीबन 5 लाख लोगों की भीड़ सडकों पर उतर गई और कई दिनों तक गुजरात बिलकुल थम सा गया। आरक्षण की मांग को लेकर हुए इस पाटीदार आन्दोलन ने गुजरात की दशा को ही बदल कर रख दिया और विपक्षी दलों को भाजपा के खिलाफ उम्मीद की एक रोशनी दिखाई। अभी बीते दिनों ही पाटीदार आन्दोलन के अगुआ हार्दिक पटेल ने भाजपा के खिलाफ संकल्प यात्रा निकाली थी जिसमें बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए थे। राहुल गाँधी की सौराष्ट्र यात्रा करे दौरान हार्दिक पटेल ने उनका स्वागत भी किया और उनकी मुलाकात ने सियासी सरगर्मियां बढ़ा दी।
पाटीदार समाज भाजपा का परंपरागत वोटबैंक रहा है और उसके खिसकने का नुकसान निश्चित तौर पर भाजपा को होगा। भाजपा इस कमी की भरपाई करने के लिए अन्य जातीय समीकरणों को साधने में जुटी थी जो इतने आसान नजर नहीं आ रहे हैं। गुजरात विधानसभा की कुल 182 सीटों में से 70 सीटों पर पाटीदार समाज का प्रभुत्व है। गुजरात में कुल मतदाताओं की संख्या का पाँचवा हिस्सा पाटीदार समाज के वोटरों का है। पाटीदार समाज की नाराजगी का असर वर्ष 2015 में सौराष्ट्र में हुए जिला पंचायत चुनावों में भी देखने को मिला था जब भाजपा क्षेत्र की 11 में से 8 सीटों पर हार गई थी। गुजरात विधानसभा चुनावों से पूर्व भाजपा को पाटीदार समाज को अपनी तरफ मिलाना होगा नहीं तो कांग्रेस-पाटीदार समाज का गठजोड़ चुनावों में भाजपा की मुश्किलें और बढ़ा देगा।
जिग्नेश मेवानी ने दलितों को दिखाई नई राह
पिछले कुछ वक्त से गुजरात में युवा दलित नेता के तौर पर उभर कर जिग्नेश मेवानी का नाम सामने आ रहा है। पेशे से वकील और सामाजिक कार्यकर्ता जिग्नेश मेवानी ने राज्य में दलित नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई है। ऊना में गौरक्षा के नाम पर हुई दलितों की पिटाई का जिग्नेश मेवानी ने विरोध किया था और इसके खिलाफ आन्दोलन भी छेड़ा था। जिग्नेश के इस आन्दोलन को मुस्लिम समाज का भी साथ मिला और दलित-मुस्लिम एकता की बानगी देखने को मिली। “आजादी कूच आन्दोलन” के माध्यम से जिग्नेश मेवानी ने एक साथ 20,000 दलितों को मरे जानवर ना उठाने और मैला ना ढ़ोने की शपथ दिलाई। इस दलित आन्दोलन ने बहुत ही शांतिपूर्ण ढंग से गुजरात की भाजपा सरकार को करारा झटका दिया था।
इस आन्दोलन के दौरान सूबे में दलित-मुस्लिम एकता का संगम देखने को मिला। मुस्लिम समाज ने भी इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और भाजपा सरकार के खिलाफ अपना आक्रोश जाहिर किया। गुजरात राज्य में दलित मतदाताओं की संख्या 7 फीसदी है वहीं मुस्लिम मतदातों की संख्या 7 फीसदी है। गुजरात विधानसभा की 182 सीटों में से 35 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं का प्रभाव है वहीं 13 सीटों पर दलित मतदाताओं का प्रभाव है। ऐसे में अगर कांग्रेस भाजपा सरकार के खिलाफ आन्दोलनरत दलित-मुस्लिम समाज को अपनी ओर मिला ले तो वह इन सीटों पर मजबूत हो सकती है और भाजपा के अभेद्द्य दुर्ग में सेंध लगाने की उसकी मंशा पूरी हो सकती है।
अल्पेश ठाकुर के रूप में गुजरात को मिला नया ओबीसी नेता
अल्पेश ठाकुर अब किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। आरक्षण की मांग कर रहे हार्दिक पटेल के पाटीदार आन्दोलन के खिलाफ खड़े हुए अल्पेश ठाकुर को आज गुजरात का ओबीसी समाज अपना नेता मान चुका है और उन्हें सिर-आँखों पर बिठा रखा है। अल्पेश ठाकुर ने पाटीदार आरक्षण आन्दोलन का विरोध किया था और कहा था कि भाजपा शासित गुजरात सरकार अगर पाटीदार आन्दोलन के आगे घुटने टेकती है तो उसे सत्ता से उखाड़ फेंका जाएगा। अल्पेश ठाकुर गुजरात क्षत्रिय-ठाकुर सेना के अध्यक्ष हैं और ओबीसी एकता मंच के संयोजक की भूमिका में भी हैं। ओबीसी वर्ग में अल्पेश ठाकुर की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने राज्य में ओबीसी वर्ग की 146 जातियों को एकजुट किया है और उनका समर्थन हासिल किया है।
अल्पेश ठाकुर लगातार भाजपा के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं और बेरोजगारी और शराबबंदी को मुद्दा बना रहे हैं। भाजपा उनको मनाने में जुटी हुई है पर अभी तक इसके कोई सार्थक परिणाम नहीं आ सके हैं। गुजरात में ग्रामीण क्षेत्र की करीब 80 विधानसभा सीटों पर अल्पेश ठाकुर ने बूथ स्तर पर प्रबंधन का काम किया है। उन्हें राजनीतिक दांव-पेंच ना सही पर संगठन में काम करने की अच्छी समझ है और उन्हें इसमें अनुभव भी हासिल है। अल्पेश ठाकुर के साथ गुजरात का ओबीसी समाज खड़ा है जिसकी राज्य के 70 विधानसभा सीटों पर पकड़ है। भाजपा पाटीदार समाज के कटने के बाद ओबीसी वर्ग का साथ ढूंढ रही थी पर अभी तक इसपर कोई स्पष्ट निर्णय नहीं हो सका है। अगर कांग्रेस ओबीसी वर्ग को अपनी ओर मिला ले तो वह इसकी नाराजगी को अपने फायदे के लिए कैश करा सकती है। इन हालातों में भाजपा के लिए गुजरात बचाना और मुश्किल हो जाएगा।