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    Gahlot Vs Tharoor

    गहलोत Vs थरूर (Gehlot Vs Tharoor) : साल था 2004 जब लोकसभा चुनावों के नतीजे आये और जनता ने भारतीय जनता पार्टी की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार को नकार दिया। इन चुनावों में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नही मिली लेकिन इतनी सीटें मिल गयी थी कि आसानी से गठबंधन की एक ऐसी सरकार बनाई जा सकती थी जिसका नेतृत्व कांग्रेस के हाँथो में हो।

    उस समय कांग्रेस पार्टी की कमान श्रीमती सोनिया गांधी के हाँथो में थी और इस बात के पूरे आसार थे कि प्रधानमंत्री के तौर पर सोनिया गांधी ही शपथ लेंगी। इसे लेकर विपक्ष ने भी अपने तेवर स्पष्ट कर दिए थे कि वह बस इसी के इन्तेजार में है ताकि श्रीमती सोनिया गांधी की इटालियन मूल के होने तथा गांधी-नेहरू परिवार के सत्तासुख को मुद्दा बनाकर जनता के बीच भुनाई जा सके।

    परन्तु यही राजनीति ने करवट ली और सोनिया गांधी ने अपना ‘मास्टरस्ट्रोक’ चल दिया। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इंकार के दिया और पूर्व वित्तमंत्री और बेदाग क्षवि वाले श्री मनमोहन सिंह को प्रधनमंत्री बनने के लिए राजी किया।

    सोनिया गांधी के इस फैसले को ‘मास्टरस्ट्रोक’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि एक तीर से उन्होंने कई निशाने साध लिए। इस से विपक्ष के एजेंडे को तो निष्क्रिय किया ही; साथ ही खुद को त्याग की प्रतिमूर्ति के तौर पर भी पेश किया कि गांधी नेहरू परिवार को सत्ता-सुख का कोई मोह नही है। हालांकि यह अलहदा बात है कि हमेशा यह आवाज उठती रही कि सत्ता की असली चाभी तो सोनिया के पास ही है।

    अब इन सब का जिक्र अभी इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि देश की सबसे पुरानी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अगले कुछ दिनों में अपने नए अध्यक्ष की खोज में आंतरिक चुनाव करवाने जा रही है। इसके लिए अधिसूचना भी जारी कर दिया गया है और अभी तक के घटनाक्रम के आधार पर दो मुख्य उम्मीदवार शशि थरूर और अशोक गहलोत का नाम सामने आया है।

    राहुल गाँधी ने पार्टी के भीतर तमाम राज्यों से एक सुर में उठी मांग, कि उन्हें ही अध्यक्ष बनना चाहिए, को दरकिनार करते हुए खुद को अध्यक्ष पद के उम्मीदवारी से दूर कर लिया।

    थरूर और गहलोत के रूप में दो उम्मीदवार जो सामने हैं उनमें गहलोत को गांधी-परिवार का सबसे करीबी लोगों में गिना जाता है। वहीं थरूर को “रिफॉर्मिस्ट” प्रवृति का और G-23 का सदस्य माना जाता है।

    G-23 कांग्रेस के भीतर वरिष्ठ नेताओं का वह ग्रुप है जो समय समय पर पार्टी के भीतर यह अमूलचूल परिवर्तन की मांग करता रहा है और कई बार पार्टी के शीर्ष नेतृत्व यानी गांधी परिवार पर तरह-तरह के आरोप लगाती रही है।

    ऐसे में गहलोत के पक्ष में पलड़ा ज्यादा झुका हुआ मालूम पड़ता है। राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद का त्याग वैसे ही किया जैसे 2004 में सोनिया गांधी ने PM पद का। फिर आंतरिक चुनाव जो लोकतांत्रिक तरीके से होनी है, उसके पहले ही गहलोत की जीत पक्की मानी जा रही है।

    अगर ऐसा होता है तो क्या इसे 2004 के PM चयन वाली घटना की पुनरावृत्ति नही मानी जाए? या दूसरे शब्दों में कहें तो क्या वही आरोप फिर से नहीं लगेंगे कि अध्यक्ष जरूर गहलोत होंगे लेकिन फैसले सोनिया और राहुल ही करेंगे जैसे PM मनमोहन सिंह थे लेकिन आरोप लगता था कि फैसले सोनिया गांधी करती थीं?

    खैर जो भी अध्यक्ष बने, लेकिन एक स्पष्ट संदेश तो जरूर है कि देर से ही सही, द ग्रैंड ओल्ड पार्टी ऑफ इंडिया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जागती हुई मालूम पड़ रही है और अपने आंतरिक अवलोकन करने की तैयारी में है।

    गहलोत Vs थरूर: कितने पास, कितने जुदा

    कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए जो दो नाम सामने आए हैं, वह बड़े ही दिलचस्प है। एक तरफ़ संगठन और जमीन से जुड़े नेता माने जाने वाले अशोक गहलोत हैं। दूसरी तरफ़ अपने राजनीति से ज्यादा अपने विचारों, किताबों और चमकीले-चटकीले अंदाज़ के लिए प्रसिद्ध शशि थरूर हैं।

    अशोक गहलोत जहाँ हिंदी भाषी क्षेत्र से आते हैं वहीं शशि थरूर दक्षिण के राज्य केरल से आते हैं। एक हिंदी-भाषी क्षेत्र राजस्थान की धरती से आते हैं वहीं दूसरा सुदूर दक्षिण के राज्य केरल से संबंध रखते है और अपनी अंग्रेजी के लिए न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया भर में जाने-माने जाते हैं।

    71 वर्षीय गहलोत और 66 वर्षीय थरूर -दोनों ही के पास संसदीय कार्य प्रणाली और शासन-प्रशासन का पर्याप्त अनुभव है पर गहलोत इस मामले में थरूर पर थोड़े बीस पड़ते हैं। गहलोत 3 बार राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे हैं, 5 बार लोकसभा सांसद रहे है और लगभग 5 दशक से देश और कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय हैं। उनके पास गाँधी परिवार के लगभग हर सदस्य के साथ  काम करने के अनुभव है।

    वे इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और PV नरसिम्हा राव की सरकार में मंत्री रहे हैं। संजय गाँधी के करीबी होने से लेकर राजीव गांधी और सोनिया गांधी के विश्वनीयता हासिल रहा है और आज राहुल गांधी के भी सबसे प्रमुख सिपहसालार माने जाते हैं।

    गहलोत OBC श्रेणी से सबंध रखते हैं जो आने वाले दिनों में राजनीति के लिहाज से अहम है। कुल मिलाकर गहलोत कांग्रेस के भूत, वर्तमान और भविष्य के बीच एक लिंक का काम कर सकते हैं।

    लेकिन कुछ बातें जो उनके विपक्ष में भी हैं। जैसे गहलोत अगर भविष्य में कांग्रेस को नेतृत्व देते हैं तो उन्हें नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल जैसे कुशल वक्ताओं से मुकाबला करना होगा। गहलोत के लिए यही बात उनके ख़िलाफ़ जाती है।

    दूसरा यह कि उनपर गांधी परिवार के करीबी होने का ठप्पा लगता रहा है ऐसे में उनके हर फैसले को रबर स्टाम्प बताकर विपक्ष भविष्य में फायदा उठा सकती है। हालांकि मनमोहन सिंह के कार्यकाल से कुछ उदाहरण जैसे न्यूक्लिर डील जैसे फैसले रबर स्टाम्प वाली बात को ख़ारिज भी करती हैं।

    वहीं शशि थरूर की बात की जाए तो वह जिस तरह के चरित्र को कांग्रेस के सामने लाते हैं, असल मे कांग्रेस को उसी की जरूरत है- एक ताजा तरीन सियासी खिलाड़ी जो बदलाव का पक्षधर हो लेकिन अपनी समझ का इस्तेमाल करता हो। शशि थरूर पूरी दुनिया मे अपने विचारों और नवीनता के लिए जाने जाते हैं। कांग्रेस पार्टी को इस वक़्त इसी नए विचार और नई ऊर्जा की जरूरत है।

    शशि थरूर के पास गहलोत जैसा लंबा राजनीति का अनुभव नहीं है लेकिन 2009 में कांग्रेस से जुड़ने के बाद वह लागतार सक्रिय रहे हैं। इस दौरान वह तीन बार लोकसभा सांसद भी रहे हैं। इस से पहले उनके पास प्रशासनिक अधिकारी का भी अनुभव है। शायद यही वजह है कि पिछले 12-13 साल के कांग्रेस पार्टी में होते हुए भी रबर स्टाम्प का ठप्पा उनके उपर नही लग सका है।

    थरूर के पास एक कुशल वक्ता होने की वही क्षमता है जो मोदी और केजरीवाल के पास है। हालाँकि दक्षिण से आने के कारण हिंदी में उतने प्रभावी नहीं लगते लेकिन उनकी अंग्रेजी के वक्तव्य युवाओं को खूब प्रभावित करते हैं। कांग्रेस पार्टी बतौर अध्यक्ष उनके इस गुण को युवा वोटरों के लिए बखूबी इस्तेमाल कर सकती है।

    हालांकि थरूर पर कांग्रेस के भीतर ही बागी कहे जाने वाले G-23 गुट के सदस्य होने का टैग है और यह गुट गांधी परिवार के नेतृत्व पर गाहे बगाहे आपत्ति जताते रही है। परंतु यह बात थरूर के पक्ष में भी जा सकती है क्योंकि विपक्ष इसी नेतृत्व को लेकर कांगेस पार्टी को घेरते रही है।

    स्पष्ट है कि दोनों ही उम्मीदवार एक दूसरे से काफी जुदा हैं और दोनों के ही अपने अपने आधार हैं कि वह कांग्रेस अध्यक्ष पद पर दावेदारी कर सके।

    अब अशोक गहलोत हों या शशि थरूर, जीत जिसकी भी हो लेकिन भारत की राजनीति और कांग्रेस के लिहाज से यह बहुत महत्वपूर्ण है कि लोकतंत्र के भीतर भी एक लोकतंत्र की वापसी हो रही है। आज भारत के सभी राजनीतिक दलों में सर्वसम्मति से अपना अध्यक्ष चुनने की प्रणाली चल पड़ी है लेकिन कांग्रेस अगर अध्यक्ष का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से करती है तो निश्चित ही बाकी के दल पर भी सवाल उठेंगे।

    दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात कि हो सकता है इस से कांग्रेस को आगामी चुनाव में सत्ता से फिर एक बार निराशा हाँथ लगे लेकिन कांग्रेस के सीटों की संख्या में इज़ाफ़ा न सिर्फ कांग्रेस बल्कि देश की राजनीति के लिए भी जरूरी है।

    कांग्रेस की सीटों में इज़ाफ़ा का सीधा मतलब है एक मजबूत विपक्ष जो सरकार के मनमानियों पर रोक टोक कर सके। आज विपक्ष जब अपने वजूद की लड़ाई में उलझा है तो इसी के कारण सरकार के कई फैसलों पर एक सवालिया निशान रह जाता है और उनपर सरकार की जवाबदेही भी तय नहीं हो पाती।

    By Saurav Sangam

    | For me, Writing is a Passion more than the Profession! | | Crazy Traveler; It Gives me a chance to interact New People, New Ideas, New Culture, New Experience and New Memories! ||सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ; | ||ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ !||

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