सोमवार से संसद का मानसून सत्र शुरू हुआ। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनावों की ख़बरों के बीच बसपा सुप्रीमो मायावती का राज्यसभा से इस्तीफ़ा का मामला देश के राजनीतिक परिदृश्य के पटल पर छाया हुआ है। आनन-फानन में इस्तीफ़ा सौंपकर मायावती ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है। दरअसल भाजपा द्वारा रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद से ही मायावती की दलित पृष्ठभूमि पर आधारित राजनीति पर संकट के बादल मंडराने लगे थे। हालिया विधानसभा चुनावों में पार्टी उत्तर प्रदेश में हाशिये पर आ गई थी। ऐसे में सुर्खियां बटोरने और पुनः अपने जनाधार में लौटने के लिए मायावती ने इस्तीफे का दांव खेला है।
दरअसल मानसून सत्र के शुरूआती दिन ही मायावती सहारनपुर में दलितों पर हो रहे अत्याचार का मुद्दा उठा रही थीं। उपसभापति द्वारा रोके जाने पर तल्ख़ अंदाज़ में वो इस्तीफे की धमकी देकर सदन से बाहर चली गई। कल शाम उन्होंने अपना तीन पन्नों का त्यागपत्र सौंपा जो अभी तक स्वीकार नहीं हुआ है।
कुन्द पड़ गयी थी पार्टी की धार
एक वक़्त में दलित-ब्राह्मण गठजोड़ के आधार पर उत्तर प्रदेश की राजनीति की धुरी रही मायावती की बसपा पिछले दो चुनावों से प्रदेश में लगातार जनाधार खो रही थी। 2014 के लोकसभा चुनावों में बसपा को कोई भी सीट नहीं मिली। 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी पिछली बार की 80 सीटों के मुकाबले 19 सीटों पर सिमट कर रह गई। उत्तर प्रदेश के निवासी रामनाथ कोविंद की राष्ट्रपति पद उम्मीदवारी के दलित कार्ड के बाद भाजपा की साख प्रदेश के दलितों में बढ़ गई थी। ऐसे में अपना भविष्य अधर में लटकता देख मायावती ने सहारनपुर के दलित अत्याचार के मुद्दे पर इस्तीफ़ा देकर अपना आधार मजबूत करने की कोशिश की है।
राज्यसभा सदस्यता पक्की
मायावती की राज्यसभा सदस्यता अप्रैल,2018 में समाप्त हो रही हैं। दुबारा राज्यसभा जाने के लिए उनके पास पर्याप्त आंकड़ें नहीं है। ऐसे में दलित मुद्दे पर इस्तीफ़ा देकर उन्होंने विपक्ष का समर्थन जुटा लिया है और आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव ने तो उन्हें पार्टी के कोटे से राज्यसभा सदस्यता की पेशकश भी की है। इस्तीफ़ा मंजूर होने की सूरत में भी उनके पुनः राज्यसभा में जाने के रास्ते खुले हैं।
एकजुट हुआ विपक्ष
दलित राजनीति की अगुआ मायावती के राज्यसभा सदस्यता से इस्तीफे के मुद्दे पर सारे विपक्षी दल एकजुट हो गये हैं। इसमें उनका अपना स्वार्थ भी छिपा हुआ है। रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी से भाजपा ने उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में दलित वोटबैंक पर सेंध मारी है। सभी दल भाजपा के इस कदम से घबराये हुए थे और ऐसी नाजुक स्थिति में यह मुद्दा उनके लिए संजीवनी का काम कर सकता है। विपक्ष की एकजुटता संसद में मानसून सत्र की कार्यवाही को प्रभावित करेगी और यह कदम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुश्किलें बढ़ा सकता है।
नजर आये केंद्र में महागठबंधन के आसार
इस मुद्दे पर पूरे विपक्ष की एकजुटता ने 2019 में होने वाले आगामी लोकसभा चुनावों में केंद्रीय महागठबंधन की उम्मीदों को जन्म दे दिया है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के बाद अखिलेश और मायावती साथ आने की बात कह चुके हैं और कांग्रेस व आरजेडी भी मायावती के समर्थन में खड़ी है। ऐसे में मुमकिन है कि मायावती का यह दांव केंद्रीय महागठबंधन के लिए नींव का कार्य करे और सभी दल एकजुट हो भाजपा के खिलाफ 2019 में साथ खड़े दिखें।