Wed. Oct 9th, 2024
    Newly Elected President of India Srimati Draupadi Murmu

    द्रौपदी मुर्मू- “Governor With the Difference” To “President With the Difference”: देश मे पिछले 1 महीने से या कहें कि खासकर दो हफ़्तों से राष्ट्रपति चुनाव को लेकर चलकर सभी हलचलों पर कल यानि 21 जुलाई को विराम लग गया और NDA की उम्मीदवार श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को देश ने नया राष्ट्रपति चुन लिया गया

    श्रीमती मुर्मू ने विपक्ष के उम्मीदवार श्री यशवंत सिन्हा को बड़ी आसानी से हरा दिया। राष्ट्रपति मुर्मू के पक्ष में कुल वैध मतों का 64% मत पड़े वहीं यशवंत सिन्हा को 36% मत मिला।

    इस तरह देश को दूसरी महिला राष्ट्रपति तथा पहली दफा कोई अनुसूचित जनजाति का राष्ट्रपति मिला। इसे निःसंदेह लोकतंत्र की खूबसूरती के तरह से देखा जाना चाहिए कि भारत मे किसी वर्ग के काबिल व्यक्ति को किसी भी पद पर आसीन होने का मौका है।

    राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के आगे लोकतांत्रिक चुनौतियां

    अभी हर तरफ़ से श्रीमती मुर्मू को जीत की बधाई का तांता लगा हुआ है। लेकिन कुछ दिनों में यह बधाइयों का दौर थमेगा और मैडम प्रसिडेंट इस लोकतंत्र के संवैधानिक मुखिया होने की अपनी जिम्मेदारी संभाल लेंगी।

    आज धर्म और सम्प्रदायवाद हावी है; लोकतंत्र का चौथा खंभा यानि पत्रकारिता दुनिया भर में 150वें स्थान पर है; आर्थिक हालात खराब होने के कारण आर्थिक विषमता बढ़ता जा रहा है; किसान आंदोलन हो या अग्निपथ या फिर रेलवे रिक्रूटमेंट में देरी; जनता के बीच सरकार से नाराजगी सोशल मीडिया से लेकर सड़कों तक दिखने लगी है; संसद के सत्र लगातार अपनी साख और उपयोगिता खो रहे हैं; न्यायपालिका पर आए दिन सवाल खड़े हो रहे हैं…आदि आदि!

    भारत आज जिन परिस्थितियों से गुजर रहा है, वह निश्चित ही एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए प्रश्नचिन्हों से भरा दौर है। ऐसे में नए महामहिम श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के आगे ऐसी कई अन्य लोकतांत्रिक चुनौतियां होंगी।

    “महिला सशक्तिकरण और आदिवासी अधिकार”

    द्रौपदी मुर्मू के गाँव में जश्न का माहौल
    श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का देश के सर्वोच्च पद पर बैठना महिला कल्याण और आदिवासी हकों के लिए काफी उम्मीदों से भरा है। (Photo Credit: The Hindu)

    राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार घोषित होने से लेकर चुनाव जीतने तक श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के लिए दो शब्दों का खूब इस्तेमाल हुआ- एक उनका “महिला” होना और दूसरा ” प्रथम आदिवासी” को इस पद तक पहुंचना। जाहिर है इसे महिला सशक्तिकरण और आदिवासियों के नागरिक अधिकारों से जोड़ कर देखा जाएगा।

    इधर महिला और प्रथम आदिवासी राष्ट्रपति के चुनाव का प्रचार चल रहा था, दूसरी तरफ इसी दौरान दो महत्वपूर्ण खबरें सामने आई जो देश की जनमानस के आगे वह स्थान नहीं बना पाई जो उसे हासिल होना चाहिये था।

    एक- वैश्विक जेंडर गैप रिपोर्ट 2022 जिसने बताया कि भारत मे महिलाओं का राजनीति में ठीक ठाक प्रतिनिधित्व तो मिली है लेकिन स्वास्थ और उत्तराधारिता (Health & Survival) में भारतीय महिलाएं दुनिया भर में सबसे निचले पायदान पर हैं।

    दूसरा यह कि राष्ट्रपति चुनाव के ठीक पहले छत्तीसगढ़ी कोर्ट ने 121 उन आदिवासियों को सबूत के अभाव में जेल से रिहा करने का आदेश दिया जिन्हें बिना कोई सबूत के 5 सालों तक माओवादी गतिविधियों के आरोप में जेल में बंद रखा गया था।

    यहाँ स्पष्ट कर दे कि राष्ट्रपति चुनाव के साथ इन दोनों खबरों का जिक्र इसलिए किया है क्योंकि नए राष्ट्रपति की पहचान में उनके भूतकाल के अनुभवों और कामों से ज्यादा इसी बात पर जोड़ दिया गया कि वह एक “महिला” हैं और “आदिवासी” समाज से आती हैं। उपरोक्त दोनों खबरें भारतीय समाज मे महिलाओं की स्थिति और आदिवासी समाज के अधिकारों से जुड़े हैं।

    महिलाओं की हिस्सेदारी भारतीय कार्य-बल (Work Force) में लगातार गिरती जा रही है और वर्तमान में महज 9.2% है। ऐसे में महिला राष्ट्रपति से यह उम्मीद लगाना वाज़िब भी है कि और लाज़िमी भी।

    दूसरे द्रौपदी मुर्मू आदिवासी समाज से आती हैं और यह बात किसी से छुपी नहीं है कि आदिवासियों को कितनी आसानी से माओवादी, नक्सली आदि बताकर सरकार के विभिन्न तंत्रों द्वारा शोषण होता है।

    विकास की आड़ में उनके जमीन और जंगल के संसाधनों का पहले दोहन होता है और फिर जब वे उग्र प्रदर्शन करते हैं तो उन्हें माओवादियों और नक्सलियों से जोड़कर आये दिन पुलिस की गोलियों से लेकर और भी दूसरे तरह के प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ता है।

    यहाँ स्पष्ट कर दें कि यह अधिकार माननीय न्यायालय को ही है कि तय करे कि पुलिस की गिरफ्त में चढ़ा आदिवासी नक्सली है या फिर नहीं… लेकिन अभी जिन 121 लोगों का जिक्र ऊपर किया गया है, क्या उनके 5 साल पुलिस, सरकार या न्याय व्यवस्था वापस दे पाएगा?

    स्पष्ट है कि श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का देश के सर्वोच्च पद पर बैठना महिला कल्याण और आदिवासी हकों के लिए काफी महत्वपूर्ण है। उम्मीद की जानी चाहिए कि श्रीमती मुर्मू का कार्यकाल राष्ट्रपति के तौर पर उतना ही प्रभावी हो जितना कि बतौर झारखंड के राज्यपाल रहा था।

    द्रौपदी मुर्मू से हैं ढेरो उम्मीदें

    बड़ा आश्चर्य हुआ कि अपने चुनाव प्रचार के दौरान श्रीमती मुर्मू ने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की जरूरत नहीं समझी। जबकि यह परंपरा रही है कि अब्दुल कलाम से लेकर प्रणव मुखर्जी तक ने अपने राष्ट्रपति निर्वाचन प्रक्रिया के दौरान प्रेस से अपने कार्यो और अनुभवों को साझा करते रहे हैं।

    ऐसा नहीं है कि श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के पास अपने सीवी या पोर्टफोलियो में कहने को कुछ नहीं था। श्रीमती मुर्मू एक अव्वल दर्जे की प्रशासक और मजबूत इरादों वाली महिला रही हैं जिन्होंने राज्यपाल के तौर पर आदिवासियों और आम जनता के लिए कई बार बीजेपी की सरकार के ख़िलाफ़ जाकर निर्णय लेती रही हैं।

    उस दौर में जहाँ बीजेपी पर आरोप लगता रहा है कि राज्यपाल महज रबर स्टाम्प बनकर रह गए हैं; श्रीमती मुर्मू ने बतौर राज्यपाल राज्य सरकार की दो बिलों को आदिवासी व आम जनता के हित में ख़ारिज किया है। इसी दौरान उनका खुद के लिये “गवर्नर विथ द डिफरेंस” वाला नाम बहुत प्रसिद्ध हुआ।

    बतौर राज्यपाल, झारखंड में कई मुद्दों पर, जैसे पत्थलगढ़िया से जुड़े हो या भूमि-अधिग्रहण का मामला हो, अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ जाने वाली श्रीमती मुर्मू ऐसे वक्त में राष्ट्रपति की भूमिका संभाल रही हैं जब केंद्र सरकार पर सत्ता का दुरूपयोग करने का आरोप लगता रहा है।

    यह सच है कि भारत का राष्ट्रपति का पद संवैधानिक मूल्यों के तहत उस तरह मजबूत नहीं होता जैसे अमेरिका या अन्य लोकतंत्र में होता है। इसलिए यह दिलचस्प होगा कि राष्ट्रपति बन जाने के बाद श्रीमती द्रौपदी मुर्मू क्या महज रबर स्टाम्प रहेंगी या फिर झारखंड की  “Governor with the Difference” राष्ट्र के लिये भी “President with the Difference” साबित होंगी?

    By Saurav Sangam

    | For me, Writing is a Passion more than the Profession! | | Crazy Traveler; It Gives me a chance to interact New People, New Ideas, New Culture, New Experience and New Memories! ||सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ; | ||ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ !||

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