Sat. Jul 27th, 2024
    G23 leaders & Congress

    हाल में हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस (INC) की अपमानजनक हार ने पार्टी-नेतृत्व के सामने फिर से वही सवाल लाकर पटक दिया है कि “अब आगे क्या…? क्या पार्टी का शीर्ष नेतृत्व गाँधी-परिवार के हाँथो में रहनी चाहिए…? या पार्टी की कमान गाँधी-नेहरू परिवार से इतर किसी और के हाँथ में सौंपने का वक़्त आ गया है?

    ये वह सवाल हैं जो पिछले कई सालों में बार-बार सामने आते रहीं हैं। कांग्रेस की स्थिति पार्टी नेतृत्व को लेकर ऊहापोह वाली रही है। समय-समय पर पार्टी के भीतर से एक खेमा ये मांग करते रहा है कि कांग्रेस को शीर्ष नेतृत्व के लिए गाँधी नेहरू परिवार से इतर कोई चेहरा तलाशना चाहिए। फिर उसी पार्टी के भीतर दूसरा खेमा चाहता रहा है कि शीर्ष नेतृत्व गाँधी-नेहरू परिवार के हाँथ में ही रहे तो पार्टी के लिए बेहतर है।

    कांग्रेस की दुविधा: बाहर लड़े या भीतर?

    दरअसल बीते कई सालों में कुछेक सफलताओं को छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस लगातार चुनाव हारती रही है। 2014 के बाद से एक-एक कर के कई राज्य उसके हाँथ से निकलते गए। सबसे ताजा-तरीन उदाहरण पंजाब है जहाँ विपक्षियों से कई कदम आगे दिख रही कांग्रेस अचानक ही अपनी जमीं गँवा बैठी।

    कांग्रेस की आज इस हालात के लिए कांग्रेस के बाहर दूसरी पार्टियों का मजबूत प्रदर्शन तो जिम्मेदार है ही लेकिन पार्टी का आंतरिक गतिरोध भी इसकी सबसे बड़ी वजह है।अभी पंजाब की हार के बाद आंतरिक प्रतिरोध फिर से सामने आया है जब पार्टी के भीतर ही G-23 के नाम से प्रसिद्ध वरिष्ठ नेताओं के गुट ने शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठाया।

    इस G-23 गुट के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने राहुल गांधी पर सीधा आरोप लगाते हुए कहा कि, आखिर किस हैसियत से राहुल गाँधी ने पंजाब में मुख्यमंत्री के चेहरे की घोषणा की थी जबकि वह पार्टी में किसी पद पर नहीं है, सिर्फ वायनाड से सांसद हैं।

    क्या है G-23?

    G-23 कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का एक समूह है जो पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के फैसलों को लेकर समय समय पर मुखर हो कर अपना विरोध जताते रहते हैं। इन नेताओं ने पार्टी में रहते हुए मनमोहन सरकार में सत्ता का सुख भोगा है और पार्टी का समृद्ध दौर को देखा है।

    आज जब कभी भी कांग्रेस की हार होती है, तो इनका दर्द छलककर बाहर आता है। मजे की बात ये है कि ये G23 के नेताओं को शीर्ष नेतृत्व के फैसले हज़म भी नहीं होते, उसपर सवाल भी उठाते हैं, नेतृत्व बदलाव की बात भी करते हैं; लेकिन अंततोगत्वा सोनिया गांधी के नेतृत्व में विश्वास भी दिखाते हैं।

    अभी इसका ताजा उदाहरण फिर देखने को मिला। G23 के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने पार्टी हाइकमान के फैसले पर सवाल खड़ा किया साथ ही राहुल गांधी को उन्होंने सीधे तौर पर पंजाब में गलत रणनीति अपनाने का जिम्मेदार ठहराया। इसके बाद इन नेताओं की कई बैठकें हुई। ये बैठकें गुलाम नबी आजाद के आवास पर चलती रहीं। कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी जैसे बड़े नेता इसमें शामिल हुए। बगावत के सुर साफ़ तौर पर मीडिया के सामने आए।

    अंत मे हुआ क्या- वही “ढाक के तीन पात”…..वही पुराना राग कि “सोनिया गांधी के नेतृत्व पर कोई सवाल नहीं है। हम कांग्रेस के साथ हैं और जब तक कांग्रेस पार्टी हमें खुद नहीं निकालती, हम कांग्रेस में ही रहेंगे।”

    ये नेता ना तो कांग्रेस से इतर अपनी कोई पार्टी बनाते हैं ना ही कांग्रेस पार्टी इन्हें निकाल पाती है। कुल मिलाकर कांग्रेस और G23 दोनों के लिए स्थिति ऐसी है कि ना एक दूसरे के साथ रह पा रहे हैं ना ही छोड़ पा रहे हैं।

    आखिर क्यों है ऐसी स्थिति?

    दरअसल कांग्रेस नेतृत्व बहुत सालों से इन G23 के नेताओं पर भरोसा दिखाता रहा है। हक़ीक़त यह भी है कि आज के दौर में G23 के ज्यादातर नेताओं के पास कोई अपनी राजनीतिक जमीन नहीं है। कुछ नेताओं को छोड़ दें तो इनमें से ज्यादातर चेहरे जनता के बीच से चुनकर लोकसभा पहुंचे भी कभी तो गाँधी परिवार के करीबी होने की वजह से, ना कि जनता से अपने बूते पर वोट हासिल कर के।

    इन नेताओं का मक़सद सीधा है। इनका अपना कोई राजनीतिक जनाधार तो है नहीं और ऐसा भी लगता है कि G23 समूह नहीं चाहती कि पार्टी की कमान राहुल गांधी के हाँथ में जाये।

    इसकी वजह यह है कि राहुल गांधी जब पार्टी प्रमुख रहे तो वह भी कांग्रेस की हार तो नहीं टाल सके, लेकिन उन्होंने अपेक्षाकृत युवा चेहरों को तरज़ीह दी या फिर उन पुराने नेताओं पर दांव लगाया जिनका जनाधार हो।

    अब G23 के नेता (कुछेक को छोड़कर) लगभग वे सभी हैं जो राहुल गांधी के इन दोनों ही मापदंड पर खरे नहीं उतरते। और इन नेताओं को शायद यही डर हो कि आने वाले 2-4 की मुख्य धारा की राजनीति में इन्हें दरकिनार ना कर दिया जाए। इसलिए समय समय पर शीर्ष नेतृत्व पर दबाव बनाने के लिए ऐसे बगावत के सुर सामने आते रहते हैं।

    वहीं कांग्रेस की मजबूरी है कि इनमें से ज्यादातर नेता अपने पूरे राजनीतिक करियर में पार्टी की सेवा की है। ग़ुलाम नबी आजाद जैसे दिग्गज चेहरे राजीव गांधी के जमाने से पार्टी में रहे हैं। कपिल सिब्बल पार्टी के पक्षकार के तौर पर देश के सर्वोच्च न्यायालय में वर्षों से अपनी बात रखते रहे हैं।

    ऐसे में दोनों ही पक्षों G23 और समूल पार्टी को एक दूसरे से नाराज़गी है तो एक दूसरे की जरुरत भी। ऐसे में हिंदी की वही देशी कहावत सटीक बैठती है – “ना उगला जाए, ना निगला जाय”

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    आख़िर क्या करे कांग्रेस पार्टी?

    सच तो यह है कि बीते कुछ सालों से कांग्रेस पार्टी भारतीय राजनीति में हासिये पर चली गयी है। लगातार हुई हार ने आज कांग्रेस के राजनीतिक वजूद पर सवाल खड़े कर दिये हैं। भारतीय राजनीति में इसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठने लगे हैं।

    कांग्रेस को सबसे पहले जनता जनार्दन का भरोसा पुनर्स्थापित करना होगा। इसके लिए जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की फ़ौज खड़ी करनी पड़ेगी। गत उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान बेशक कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा लेकिन प्रियंका गांधी के नेतृत्व में पार्टी की उपस्थिति गाँव-गाँव तक महसूस की गई। उन्होंने ज़मीनी स्तर पर कैडर तैयार करने की एक कोशिश की जिसकी सख्त आवश्यकता है।

    दूसरी बात कि आज कांग्रेस उस मुहाम पर खड़ी है जहां उसे अपने हाँथ से एक भी राज्य इतनी आसानी से नहीं जाने देनी चाहिए जैसे पंजाब चला गया। उत्तराखंड में कांग्रेस का प्रदर्शन उम्मीद से बदतर रही। यह सब इसलिए क्योंकि पार्टी-नेतृत्व चन्नी-सिद्धू-कैप्टन के त्रिकोणीय गतिरोध में फंसा रहा और इसको सुलझाने का जिम्मा दिया गया हरीश रावत को।

    हरीश रावत पंजाब की लड़ाई सुलझाने में इतना उलझ गए कि उत्तराखंड में अपनी जमीन भी ना बचा पाए साथ ही पंजाब भी हार गई।

    तीसरी बात यह कि कांग्रेस के पास अपने ही कार्यकर्ताओं के लिए स्पष्ट रणनीति का अभाव दिखता है। अभी पंजाब का ही उदाहरण लिया जाए तो स्पष्ट है कि जिन कार्यकर्ताओं ने साढ़े चार साल कैप्टन के लिए कार्य किया, आखिरी के 6 महीने में चन्नी और सिद्धू में उलझकर रह गए।

    चौथी महत्वपूर्ण बात है कि पार्टी हाईकमान का अपने राज्यस्तरीय नेताओं के आगे थोड़ी पकड़ ढीली दिखी है। मध्य-प्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में सरकार बनाई लेकिन पार्टी अपने ही युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ के बीच के मतभेद को नहीं सुलझा पाई। नतीजतन सिंधिया ने भाजपा की राह पकड़ ली और मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार असहाय होकर गिर गई।

    कर्नाटक में भी कांग्रेस गठबंधन का यही हाल रहा और वहाँ भी सत्ता में आकर सत्ता खो देने वाली कहानी बदस्तूर जारी रही। ऐसे ही कई अन्य राज्य भी कांग्रेस ने गवां दिए जहां पार्टी को सबसे ज्यादा मत मिले लेकिन फिर भी सरकार या तो बना नहीं पाई या सरकार चला नहीं पाई।

    ऐसे में कांग्रेस के आगे ना सिर्फ बाहरी चुनौतियाँ सामने हैं बल्कि कई अंदरुनी समस्याओं से जूझ रही है। जब तक कांग्रेस पार्टी इसको सही नही करेगी, यह उम्मीद करना कि जनता भरोसा जताएगी, यह एक राजनीतिक मूर्खता होगी।

    नेहरू-गाँधी-पटेल-पटेल की विरासत वाली राजनीति तब तक प्रभावी नहीं होगी जब तक आज की कांग्रेस में नेहरू गांधी पटेल वाली कांग्रेस जैसी नीतिगत स्पष्टता नहीं होगी।

    कांग्रेस का इतिहास उठाकर देखने पर साफ़ जाहिर है कि बाकि दलों ने अपनी सफलता की तारीख़ कांग्रेस की ही राजनीतिक जमीन को हड़पकर लिखा है। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सफलता और कांग्रेस की निराशाजनक हार यही दर्शाता है।

    इन तमाम वस्तु स्थिति पर कांग्रेस को जल्दी ही विचार करना होगा वरना वह दिन दूर नहीं जब पार्टी जनता के बीच बची खुची विश्वसनीयता के साथ साथ अपना वजूद भी खो देगी।

    By Saurav Sangam

    | For me, Writing is a Passion more than the Profession! | | Crazy Traveler; It Gives me a chance to interact New People, New Ideas, New Culture, New Experience and New Memories! ||सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ; | ||ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ !||

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