Kota Suicide Case: राजस्थान का कोटा (Kota) शहर जहाँ देश के अलग-अलग हिस्सों से लाखों बच्चे आँखों मे इंजीनियर या डॉक्टर बनने का ख्वाब संजोए आते हैं: यह शहर आजकल सुर्खियों में बना हुआ है क्योंकि यहाँ देश के भावी इंजीनियर और डॉक्टर के खुदकुशी के मामले लगातार दर्ज किए जा रहे हैं।
बीते रविवार को भी कोटा (Kota) में महज चार घंटे के अंतराल में दो छात्रों ने आत्महत्या कर ली। छात्रों द्वारा खुदकुशी के पीछे की वजह उनका कोचिंग में हुए परीक्षा (Test) में अच्छा प्रदर्शन न करना बताया जा रहा है। इसके बाद राज्य सरकार ने वहाँ अगले 2 महीने तक कोई भी किसी भी प्रकार के टेस्ट आदि पर रोक लगा दिया है।
Rajasthan: Student allegedly commits suicide by jumping off a building in Kunhadi area of Kota, investigation underway.
— ANI (@ANI) June 30, 2016
ज्ञातव्य हो कि, यहाँ इस साल (जनवरी 2023 से लेकर) अभी तक कुल 24 बच्चों ने अपनी जिंदगी खत्म कर ली है। बीते कुछ वर्षों में कोटा में तैयारी करने वाले विद्यार्थियों द्वारा खुदकुशी की संख्या इस समस्या की गंभीरता को बयां करने के लिए काफी है।
Year | Number of Students Committed Suicides |
2015 | 18 |
2016 | 17 |
2017 | 10 |
2018 | 12 |
2019 | 19 |
2020 & 2021 * | —- |
2022 | 15 |
2023 (Till date) | 24 |
Source: Kota Police Record, as reported by Hindustan Times.
*2020 & 2021 were Covid affected Years. Most of the Coaching institutions were running Online mode.
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर हमने यह कैसी शिक्षा-व्यवस्था बनाई है जहाँ शिक्षा के किसी एक क्षेत्र में असफल होना अन्य विकल्पों को अप्रासांगिक बना देता है ? सवाल समाज से भी हैं कि आखिर किस दवाब में ये बच्चे असफल होने को पचा पाने में समर्थ नहीं हो पाते? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल बच्चों के माता-पिता और परिवार जनों से है कि ऐसी कौन सी अपेक्षाएं हैं जो किसी को डॉक्टर इंजीनियर के अलावे कुछ और बनते नही देख सकते?
कोटा (Kota) में छात्र आखिर क्यों उठा रहे ऐसे कदम ?
दरअसल, हमारे समाज में ‘सफलता की पूजा’ करने का ऐसा रिवाज है मानो असफल होना कोई गुनाह हो। हमने एक ऐसा सामाजिक ताना-बाना बुना है कि छात्रों के लिए असफल होने का विकल्प ही नहीं छोड़ा है।
सुबह उठकर ‘गुड मॉर्निंग संदेश’ साथ के सफलता और असफलता से जुड़े दर्जनों विचार भेजने वाला समाज उस व्यक्ति की कद्र नहीं करता जिसने जी-तोड़ मेहनत तो किया पर किसी कारणवश असफल रहा। हम ऐसे लोगों की चर्चा तो करते हैं, लेकिन उनके प्रति हमारे भाव उदार नहीं रहता।
समाज का यही रवैया हर साल हजारों लाखों की तादाद मे कोटा पहुंचने वाले छात्रों का मशीनीकरण कर देता है। समाज का यह ताना-बाना उनके उपर अपरिमेय दवाब बना देता है जिसे 15-16 साल का छात्र/छात्रा कभी कभी सह नहीं पाते हैं और खुदकुशी जैसे आत्मघाती कदम उठा लेते हैं।
सामाजिक दवाब और सफलता की पूजा करने वाली प्रवृति से इतर कई अन्य वजहें हैं जो इस समस्या के मूल में हैं। जैसे-
1. इंजीनियरिंग या चिकित्सा में दाखिला हेतू गलाकाट प्रतियोगिता,
देश मे इंजीनियरिंग या मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं में बच्चों पर दवाब होता है कि अच्छा रैंक लाना है। क्योंकि अच्छे रैंक या अंक नही आएंगे तो भारी भरकम पैकेज दिलाने वाले संस्थानों में प्रवेश नहीं मिलेगा। यही वह दवाब है जो इन प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिये कोचिंग (Kota etc) के व्यवसाय के फलने-फूलने के लिए जिम्मेदार है।
2. स्वयं की और माता-पिता व परिवारजनों की भारी अपेक्षाएं
भारत एक विविधताओं का देश है और यह विविधता हमारे शिक्षा-व्यवस्था में भी है। सही शब्दो मे कहें तो शिक्षा व्यवस्था की विविधता को शिक्षा व्यवस्था की असमानता कहना चाहिए।
शिक्षा व्यवस्था की इस असमानता की वजह से कई दफा अपने विद्यालय या क्षेत्रीय स्तर का कोई अव्वल मेधावी छात्र या छात्रा जब कोटा जाकर इन संस्थानों में पहुंचते हैं और वहाँ कोचिंग के साप्ताहिक या मासिक जांच परीक्षणों में अव्वल या टॉपर्स में खुद को नहीं पाते तो आत्मविश्वास जमींदोज हो जाता है। अपेक्षाओं के बोझ और गिरे हुए आत्मविश्वास के कारण कई छात्र असली परीक्षा से पहले ही हार जाते हैं और खुदकुशी जैसे रास्ते चुन लेते हैं।
अपेक्षाओं का यह जाल सिर्फ उन बच्चों के द्वारा ही बुना जाता है, ऐसा नहीं है। आजकल माँ-बाप भी अपने बच्चों की छोटी सफलता को सोसल मीडिया और अन्य स्थानों पर जरूरत से ज्यादा भाव देते हैं। नतीजतन, कई बार वे बच्चे खुद को एक ऐसा जन्मजात विजेता मान बैठते हैं जिसके लिए हार या असफलता जैसे शब्द बने ही न हों।
ऐसे में जब घर से दूर कोटा (Kota) जैसे शहर में जाकर कोचिंग की भीड़ में पहुंचते हैं और कम अंक मिलना या फिर साथी- संगी आदि से पिछड़ना जैसी स्थिति में खुद को संभाल नहीं पाते। खुद से उनकी उम्मीदें टूटने लगती हैं, और कई दफा गलत कदम उठा लेते हैं।
3. बिना ब्रेक (Break) वाले सप्ताह
कोटा (Kota) या किसी भी जगह कोचिंग में 10-14 घंटे पढ़ाई करने वाला दिनचर्या, रविवार की छुट्टी भी कोचिंग में साप्ताहिक परीक्षण के कारण कोई अवकाश के पल का नही होना, आदि ऐसी वजहें हैं जो इन बच्चों के दिमाग पर गहरा मनोवैज्ञानिक दवाब डालते हैं। इसे समझने की आवश्यकता तो है ही, साथ ही जरूरी दिशा निर्देश की भी आवश्यकता है।
4. परिवार और दोस्तों से दूर रहकर एक अनजान शहर में जाकर रहने से उत्पन्न अकेलापन
देश मे इंजीनियरिंग या मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं में बच्चों पर दवाब होता है कि अच्छा रैंक लाना है; क्योंकि अच्छे रैंक या अंक नही आएंगे तो भारी भरकम पैकेज दिलाने वाले संस्थानों में प्रवेश नहीं मिलेगा।
यही वह दवाब है जो देश के सुदूर इलाके से हर तबके के बच्चों को कोटा (Kota) के कोचिंग संस्थानों में खींच लाता है। यही वह वजह है जो इन प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिये कोचिंग के व्यवसाय के फलने-फूलने के लिए जिम्मेदार है।
5. असमान शिक्षा-व्यवस्था और “सफलता की मार्केटिंग”
अव्वल तो यह कि देश की शिक्षा व्यवस्था अगर सुदृढ ही तो कोचिंग का व्यवसाय की आवश्यकता ही क्यों है? इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षा के लिए न्यूनतम योग्यता बारहवीं या समकक्ष है। अगर इन परीक्षाओं के पाठ्यक्रम और उनका स्तर 12वीं के लायक हो तो इन कोचिंग संस्थानों की आवश्यकता की क्या है?
एक और महत्वपूर्ण बात यह कि आप राजस्थान के कोटा शहर जाइये, बिहार के पटना जाइये, UP के दुर्गाकुंड,वाराणसी या फिर काकादेव कानपुर, दिल्ली के पंजाबी बाग, मुखर्जी नगर या करोलबाग, महाराष्ट्र के पुणे का शिवाजीनगर या स्वारगेट आदि- इन तमाम जगहों पर कोचिंग संस्थानों ने अपने अपने टॉपर्स के बड़े बड़े बोर्ड और होर्डिंग लगा रखे हैं।
ये संस्थान छात्रों की सफलता को अपने मार्केटिंग के लिए जन विज्ञापनों के माध्यम से बेचते हैं। ये संस्थाएं कुछ टॉपर छात्रों को उन्ही के सहपाठियों और समकक्षों के बीच एक हीरो बना देते हैं।
बात सिर्फ यहीं नहीं रुकती। कोचिंग के दौरान भी साप्ताहिक या मासिक परीक्षणों (Weekly or Monthly Test) के आधार पर टॉप 40, टॉप 30, टॉप 50 आदि जैसे अलग बैच बना दिये जाते हैं जो कई बार कई छात्रों के किशोर मन में हीनभावना (Inferiority Complex) भर देता है।
परिवार, समाज, सरकार- सबके सम्मिलित प्रयास की जरुरत
ख़ैर, इन सब के बीच राजस्थान सरकार फिलहाल कोटा (Kota) में क्रियाशील (In Action Mode) हुई है। पंखे से लटककर फांसी लगाने या बहुमंजिला इमारत से कूदकर जान देने आदि जैसी घटनाओं को रोकने के लिए कई उपाय किये जा रहे हैं। अगले 2 महीनों तक किसी भी तरह के जाँच परीक्षा पर रोक लगा दी गयी है।
सरकार के ये सभी कदम महज़ तात्कालिक प्रयोग है। समस्या का मूल तो समाज, परिवार और समूची व्यवस्था से जुड़ा है। जाहिर है, समाधान भी यहीं से आएगा; परिवार, समाज, सरकार- सबके सम्मिलित प्रयास से आएगा।
“हमें सफलता की पूजा करने से बचना होगा। किसी भी सफलता की कीमत “सपनो” की कुर्बानी हो सकती है, जिंदगी की कुर्बानी कतई नहीं।”
Prime reason for suicide from my point of view is not the fear of failure but young students are really unaware of the opportunity they have in future……..
Because Pressure is also there in IAS, IES exam but people do not commit suicide because they become so mature to think that is not the correct way of giving up. But at the age of 13-17 we do not have that maturity.
Yes I am also jee student.now I am in class 11.i wasted my class 11 because I am a Hindi medium student and not attended classes because I couldn’t understand anything.but supposed I fail in jee exam.then I give upsc …
Be happy 😊😊