इजरायल-फिलिस्तीन विवाद (Israel-Palestine Conflict) की लंबी दास्तान में एक नया अध्याय आजकल लिखा जा रहा है। आज से ठीक १ महीना पहले यानि विगत 07 अक्टूबर (2023) की सुबह को गजा (Gaza) का आतंकवादी संगठन हमास (HAMAS) ने अचानक इजराइल पर आक्रमण कर दिया जिसमें सैंकड़ों इजराइली लोगों की जान गई।
इसके जवाब में इजराइल ने भी कार्रवाई करते हुए पहले मिसाइल दागे और फिर जमीनी हमला भी किया। इजराइल के द्वारा हुए इस जवाबी हमले में अभी तक आठ हजार से भी ज्यादा लोगों की जान गई है और लगभग 20 हज़ार से ज्यादा लोग घायल हैं। अभी भी इजराइल के तरफ़ से ग़ज़ा पर लगातार सैन्य कार्रवाई जारी है।
Hamas’ massacre was so barbaric, archeologists were needed to sift through the victims’ ashes—and identify our people.
At least ten people were identified using archeological techniques with the help of the Israel Antiquities Authority.
These aren’t just numbers, they were… pic.twitter.com/Zt6tPmZjjF
— Israel Defense Forces (@IDF) November 7, 2023
इस युद्ध के पीछे की तात्कालिक वजह हाल-फिलहाल में पूरी दुनिया की मीडिया मे इतनी बार बताया जा चुका है कि शायद ही कोई इंसान हो, जो अनभिज्ञ हो। एक तरफ़, फिलिस्तीन और उसके समर्थकों का कहना है कि इजराइल ने उनकी जमीन पर कब्ज़ा किया है। वहीं इजराइल का दावा है कि यह यहूदियों की पवित्र भूमि है, इसलिए उनका पूरा अधिकार है।
इन दो देशों के बीच के विवाद की जड़ दरअसल इतिहास के पन्नों में कुछ उसी तरह गहरी है जैसे आज भारत और पाकिस्तान के बीच है। मई 1948 में “दो राष्ट्रों के सिद्धांत” के तहत फिलिस्तीन की ज़मीन पर इजराइल नाम का एक नए राष्ट्र का निर्माण की घोषणा ने इस विवाद की नींव रखी थी। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह जानना है कि इजराइल के निर्माण के लिए कैसे मंच तैयार किया गया? ब्रिटिश और तत्कालीन विश्व-शक्तियों ने इस विवाद को हवा देने में क्या भूमिका निभाई थी?
Zionism: फिलिस्तीन में यहूदियों का राष्ट्र स्थापित करने का आंदोलन
19वीं सदी के अंत तक कनान की धरती (वर्तमान इजराइल के क्षेत्र) पर ऑटोमन साम्राज्य का शासन था। उस वक़्त तक यहूदी धर्म के लोग दुनिया के अलग अलग हिस्सों में रहते थे। कनान यानि आज के इजराइल में यहूदियों की संख्या नगण्य थी।
इतिहासकार हॉवर्ड सचर ने अपनी किताब “A History of Israel: From Rise of Zionism to Our Time ” में लिखते हैं कि 1850 ईस्वी में दुनिया के कुल यहूदी जनसंख्या का लगभग 75% (30 लाख लोग) यूरोप के पूर्वी भाग में रहते थे। इस जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा रूस में निवास करती थी जो वहाँ पर समृद्ध तो थे, परन्तु अल्पसंख्यक थे; और इस कारण उन्हें सामाजिक उत्पीड़न और भेदभाव का शिकार होना पड़ता था।
यहूदियों को रूस में एक तरह से सामाजिक और राजनीतिक बहिष्कार किया जाता था। सत्ता और प्रशासन में किसी तरह की भागीदारी से वंचित रखा जाता था। उनके जीवन यापन के लिए रोजगार के अवसर भी सीमित कर दिए गए थे।
1881 से 1884 के बीच तो रूस में रह रहे यहूदियों पर लगातार अत्याचार की घटनाएं हुईं। यहाँ तक कि बड़ी संख्या में यहूदियों का नरसंहार किया गया। रूस के जार एलेकजेंडर-III (Tsar Alexander III) ने 1882 में “मई कानून (May Laws of 1882)” बना दिया जो यहूदी-विरोधी था। इसके मुताबिक यहूदियों को किसी भी शहर के आस-पास या बाहर निवास करने का भी कोई अधिकार नहीं था।
नतीजतन, यूरोप के पूर्वी भाग में रहने वाले यहूदियों ने पश्चिमी यूरोप के तरफ़ विस्थापित होना शुरू कर दिया; और जो लोग वहाँ रह भी रहे थे, उन्होंने अपने निवास स्थान (मुहल्ला) के चारो तरफ मज़बूत चहारदीवारी बनाकर रहने लगे।
इन सब घटनाओं की वजह से यहूदी समुदाय में यह भावना जन्म लेने लगी कि जब तक उनका कोई अपना देश नहीं होगा, तब तक वे सुरक्षित नहीं होंगे। इसी भावना ने आंदोलन का एक रूप लिया जिसे जियोनवाद या यहूदीवाद (Zionism) का नाम दिया गया।
आधुनिक ज़ियोनवाद (Zionism) को शुरुआत में दुनिया भर के ज्यादातर यहूदियों ने समर्थन नहीं किया था। एक वजह यह भी थी कि उस दौर में जियोनवाद के अलावे कई अन्य यहूदी-आंदोलन भी सामानांतर में फल-फूल रहे थे।
1896 में ऑस्ट्रो-हंगेरियन पत्रकार थिओडोर हर्ज़ल (Theodore Herzl) – जिन्हें राजनीतिक ज़ियोनिस्म (Political Zionism) का जनक कहा जाता है – ने “डेर जुडेंसतात (Der Judenstaat)” नामक एक पुस्तक प्रकाशित की। इस पुस्तक के पहले अध्याय में उन्होंने लिखा कि यहूदियों का सवाल न तो बस सामाजिक सवाल है, न हीं धार्मिक बल्कि यह उनके अधिकारों से जुड़ा राष्ट्रीय सवाल है।
हर्ज़ल का यह विचार (Related to Zionism) यहूदियों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ, जिसके बाद शरुआत में फिलिस्तीन के साथ-साथ अर्जेंटीना और युगांडा जैसे देश को यहूदियों के देश बनाने की बात हुई लेकिन बाद मे फिलिस्तीन को तरज़ीह दी गई क्योंकि इसे “कभी न भूलने लायक ऐतिहासिक पवित्र मातृभूमि (Unforgettable Historic Homeland)” माना जाता है।
दरअसल, हिब्रू बाइबिल के मुताबिक, ईश्वर ने ‘इब्राहिम (Abraham)’ के पोते का नाम ‘इजरायल’ रखा था। इब्राहिम को तीनों इब्राहिमी धर्म-यहूदी, ईसाई, और इस्लाम- का पितामह माना जाता है। इब्राहिम के वंशज मेसोपोटामिया को छोड़कर कनान क्षेत्र में बस गए, जो मोटे तौर पर आधुनिक इजराइल के क्षेत्र है। यही वजह है कि यहूदी धर्म के लिए इजरायल (Israel) के क्षेत्र (खासकर जेरुसलम) पवित्र भूमि के समान है।
इसके बाद यहूदियों का पलायन दुनिया के विभिन्न हिस्सों से फिलिस्तीन (Palestine) में होने लगा। पलायन की पहली लहर 1881 से 1903 के बीच हुआ जिसे प्रथम अलियाह कहा जाता है। ये प्रवासियों ने बड़े पैमाने पर जमीन खरीदनी शुरू की, जिस पर वे खेती करने लगे।
तत्कालीन फिलिस्तीन विशाल और सुशासित ऑटोमन साम्राज्य का केवल एक प्रांत था। उस वक़्त वहाँ के जमींदार अपने जमीन से दूर रहते थे। स्थानीय निवासी और वहाँ के असली किसान बहुत कम पढ़े लिखे थे। यहूदी ने कई तरीकों से अपनी अलग और श्रेष्ठ पहचान स्थापित करने लगे। उन्होंने कृषि का मशीनीकरण किया और बिजली आदि लेकर आये। उनकी बस्तियां यूरोपीय तरीके के होते थे जो वहाँ के स्थानीय अरब तरीके के बस्तियों से भिन्न होते थे।
इस स्पष्ट बदलावों को देखकर स्थानीय चिंता और आक्रोश बढ़ गया। विदेशी यहूदियों को जमीन बेचने पर रोक लगा दी गई, लेकिन ऑटोमन साम्राज्य के इस आदेश का कभी भी प्रभावी ढंग से पालन नहीं हो सका।
इसी बीच 1908 मे युवा तुर्क क्रांति ने ऑटोमन साम्राज्य को उखाड़ फेंका। इसके बाद यहूदियों के बसने का मार्ग और अधिक प्रशस्त हो गया। लेकिन एक बड़ा महत्वपूर्ण बदलाव आया वो था 1917 का “बॉलफोर घोषणा (Balfour Declaration)”.
Israel And Balfour Declaration, 1917
यह प्रथम विश्व युद्ध का वह दौर था जब जियोनवाद आंदोलन (Zionist Movement) के सपने पूरा होने के नज़दीक पहुंचा। इस बार उनके अपने यहूदी राष्ट्र की मांग को यूरोप की सबसे बड़ी ताक़त ब्रितानियों का समर्थन हासिल हुआ।
दरअसल यहूदियों के लिए अलग राष्ट्र का मुद्दा ब्रिटिश कैबिनेट में प्रथम विश्व युद्ध के शुरुआती दिनों से ही चर्चा में था जिस से उस युद्ध मे यहूदियों के समर्थन हासिल किया जा सकता था। इसी क्रम में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा 1917 में बॉलफोर घोषणा पत्र जारी कर यह स्पष्ट किया कि यहूदियों के लिए एक उनका घर (राष्ट्र) को फिलिस्तीन में बसाया जाएगा जो इस वक़्त तक ऑटोमन साम्राज्य के अधीन था।
यद्यपि कि बॉलफोर घोषणा (Balfour Declaration) के तुरंत बाद यहूदियों के लिए अलग राष्ट्र की स्थापना नहीं हो पाया लेकिन इस घोषणा ने यहूदीवाद (Jewish) और जियोनवाद (Zionism) को एक नई ऊर्जा दी। इसके बाद जियोनवाद (Zionism) को पूरी दुनिया के यहूदियों का बड़े अनुपात में समर्थन मिला।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यहूदियों के संघर्ष
प्रथम विश्व युद्ध मे ऑटोमन साम्राज्य की हार के बाद ब्रिटेन और फ्रांस ने पूरे साम्राज्य को आपस मे बाँट लिया। फिलिस्तीन (Palestine) अंग्रेजों के हिस्से में आया था। यहीं पर यहूदियों की बस्तियां भी बस गई थीं।
प्रथम विश्व युध्द के बाद अरब हताश थे और खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे थे। यहूदी बस्तियों पर कई बार हमला किया गया। वे अंग्रेजों का भी विरोध कर रहे थे क्योंकि उनका मानना था कि ‘यहूदी समस्या’ से निपटने के लिए पहले अंग्रेजी सत्ता को खदेड़ना होगा।
हालांकि यहूदियों और अरबों के बीच बातचीत के कुछ महत्वपूर्ण प्रयास भी हुए लेकिन वह सब बेकार ही साबित हुआ है।
इसके बाद द्वितीय विश्वयुद्ध और यहूदी नरसंहार का वह दौर भी आया जब यहूदियों के प्रति पूरी दुनिया मे एक सहानुभूति देखने को मिला। इधर यहूदियों ने भी ब्रिटिश सैनिकों के साथ आधुनिक प्रशिक्षण हासिल कर अपना सशस्त्र समूह बना लिया था जो बेहद घातक थे।
1936 से 1938 के बीच मे दोनों ही पक्षों द्वारा भारी रक्तपात किया गया। फिलिस्तीन के तरफ़ से यहूदियों और अंग्रेजों पर हमला किया गया जिसके जवाब में अंग्रेजों ने कई गांव को जला दिए।
इसी समय अंग्रेजो द्वारा गठित एक पील कमीशन ने इस समस्या का एकमात्र समाधान विभाजन का विकल्प रखा। यहूदियों ने इस कमीशन के आगे अपनी बात रखने का मन बनाया लेकिन फिलिस्तीनी पक्ष ने इस सुझाव का ही बहिष्कार कर दिया था।
Israel- Palestine विवाद को बीच मझधार में छोड़ निकले अंग्रेज
फिलिस्तीन और इजराइल के बीच की समस्या को सुलझाने में नाकामयाब रहे अंग्रेजो ने यहाँ भी लगभग वही किया जो भारत के साथ किया। विभाजन की नीति ने समस्या को और उलझाने का काम किया जिस से पूरे फिलिस्तीन में हिंसा और अविश्वास का माहौल उत्पन्न हुआ।
1947 में अंग्रेजो ने फिलिस्तीन के भीतर इस तरह के विपरीत माहौल में घोषणा की कि वे फिलिस्तीन को छोड़कर जा रहे हैं।उन्होंने फिलिस्तीन और यहूदी राष्ट्र निर्माण की समस्या को संयुक्त राष्ट्र के हवाले कर दिया।
UN की कोशिश और स्वतंत्र इजराइल (Israel) की घोषणा
29 नवम्बर 1947 को संयुक्त राष्ट्र आम सभा (UNGA) में फिलिस्तीन को यहूदी और अरब राज्यों में बाँटने के लिए मतदान हुआ। प्रस्ताव में यरूशलेम को संयुक्त राष्ट्र ने अपने नियंत्रण में रखा। फिलिस्तीन पक्ष ने इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया। दूसरी ओर इजराइल ने 14 मई 1948 को स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।
इस दौरान गृह युद्ध चलता रहा था। इजरायल ने अपने हिस्से की जमीन से फिलिस्तीनी नागरिकों को निकालने का काम किया।
फिलिस्तीन द्वारा इजराइल के निर्माण को नक़बा या तबाही कहा जाता है। वह इसे एक ऐसे दिन के रूप में देखते हैं जब उन्होंने अपनी मातृभूमि खो दिया दिया था।
इजराइल (Israel) की स्वतंत्रता की घोषणा के ठीक बाद मिस्र, जॉर्डन, इराक़, सीरिया और लेबनान ने उस पर आक्रमण कर दिया। परंतु इजराइल ने अमेरिकी समर्थन के दम पर इन तमाम मुल्कों को हराने में सफलता हासिल की। इसके बाद कई अन्य मौकों पर इजराइल और अरब देशों के बीच युद्ध हुआ, इजराइल जीतता गया और कई क्षेत्रों को जीतता गया।
यक़ीन जानिये, इस बार भी हमास के आक्रमण (HAMAS Attack on Israel) ने इजराइल को एक मौका दे दिया है अपनी भूमि को और विस्तार देने का…. इजराइल (Israel) शायद जमीन जरूर हासिल कर ले या फिर हो सकता है हमास गाजा की जमीन बचने में कामयाब भी रहे…. लेकिन इन दोनों ही भविष्य की स्थितियों की कीमत उस जमीन पर रहने वाले कितने ही मासूम लोगो की जानें होंगी , यह कोई नहीं जानता।
Thanku so much….its amazing 👌👌👌👌