Role of Governor and Questions on It: “राज्यपाल”-जिसे अंग्रेजी में ‘गवर्नर (Governor)’ कहते हैं। अगर आप इतिहास के विद्यार्थी हैं तो “गवर्नर” शब्द से भली भांति परिचित होंगे। ‘गवर्नर जनरल (Governor General)’, ‘गवर्नर जनरल ऑफ इंडिया (Governor General of India) ‘ आदि शब्द आधुनिक भारत के इतिहास में आज़ादी से पहले खूब चर्चित हैं।
अब ये कौन लोग थे, क्या करते थे, यह सब एक लंबी कहानी बन जाएगी। संक्षेप में कहें, तो ये वो लोग थे जिन्हें ब्रितानिया हुकूमत ने भारत पर उनके राज को बनाये रखने की जिम्मेदारी सौंपी थी।
1947 में तारीख 15 अगस्त को दुनिया के पटल पर अंग्रेजो की हुकूमत से 2 आज़ाद मुल्क उभरे- भारत और पाकिस्तान। भारत ने संघीय लोकतंत्र (Federal Democracy) अपनाया। इस शासन व्यवस्था की परिपाटी के लिए जल्दी ही 26 जनवरी 1950 को भारत ने एक सविधान बनाया जो केंद्र और राज्य दोनों के लिए एक ही था, लेकिन शक्तियों का बंटवारा इसमें लिखित था।
राष्ट्रपति (President) को भारत देश का प्रमुख माना गया। केंद्र में देश की जनता द्वारा चुनी गई एक सरकार की व्यवस्था बनाई गई जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री करते हैं । यह सरकार राष्ट्रपति के नाम पर ही देश मे अपना शासन-व्यवस्था चलाती है। इसी के तर्ज़ पर, राज्यो में भी जनता की चुनी हुई सरकार द्वारा शासन की व्यवस्था गई जिसका नेतृत्व मुख्यमंत्री करता है। परंतु मुख्यमंत्री राज्य की शाशन व्यवस्था राज्यपाल (Governor) के नाम पर चलाता है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि, केंद्र में राष्ट्रपति तथा राज्यो में राज्यपाल (या उपराज्यपाल) नाम-मात्र के प्रमुख होते हैं और इनके नाम पर ही क्रमशः केंद्र सरकार और राज्य सरकार अपना शासन चलाती हैं। केंद्र में राष्ट्रपति और राज्यो में राज्यपाल के पास कोई वास्तविक शक्ति नहीं होती। वे उन्हीं मामलों में अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकते हैं जहाँ संविधान में उनसे अपेक्षा की गई है।
परंतु, कुछ राज्यपाल (Governor) ऐसे रहे हैं जिन्हें मुख्यमंत्री या तो पसंद नहीं आता या फिर चुनी हुई सरकार पर अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश करते हैं। राज्यपाल शायद भूल जाते हैं कि उनके लिए इस्तेमाल होने वाला “Governor” शब्द के मायने आज़ादी के बाद बदल गए हैं। अब वे किसी सम्राट या राजशाही व्यवस्था के प्रतिनिधि नहीं है। अब उनकी शक्तियां सीमित हो गई हैं।
यही वजह है कि पिछले कुछ दशकों से राज्यपाल केंद्र सरकार के राजनीतिक नुमाइंदे ज्यादा, संविधान के प्रतिनिधि कम नजर आते हैं। बीते कई सालों से ऐसी शिकायतें आतीं रही हैं जहाँ राज्यपाल (Governor) और राज्य-सरकार आमने सामने दिखें हैं।
महाराष्ट्र और दिल्ली से जुड़े मामलों में Governor & LG की भूमिका पर सुप्रीम कोर्ट की खरी-खरी
सबसे ताजा उदाहरण महाराष्ट्र और दिल्ली से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में देखने को मिला। महाराष्ट्र में जहाँ पिछले साल हुए राजनीतिक उठापटक में राज्यपाल की भूमिका पर सवाल थे, वहीं दिल्ली में मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच शक्तियों के निर्वहन को लेकर विवाद था।
महाराष्ट्र में पिछले साल तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से बगावत कर शिवसेना के कुछ विधायकों ने अलग पार्टी बनाने का एलान कर दिया था। इस से उद्धव ठाकरे की सरकार पर बहुमत का संकट पैदा हो गया था। तब तत्कालीन राज्यपाल (Governor) भगत सिंह कोश्यारी ने उद्धव ठाकरे को बहुमत साबित करने का आदेश जारी कर दिया। भारी राजनीतिक हंगामे के बीच आखिरकार ठाकरे को इस्तीफ़ा देना पड़ा था।
इन तमाम राजनीतिक ड्रामेबाजी के बीच यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता था कि तत्कालीन राज्यपाल कोश्यारी केंद्र सरकार के इशारों पर काम कर रहे हैं। अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी उनके व्यवहार को अनुचित ठहराया है।
Maharashtra political crisis | Supreme Court says there were no communications relied on by the Governor indicating that the dissatisfied MLAs wanted to withdraw support to the government.
The Governor erred in relying on the resolution of a faction of MLAs of Shiv Sena to… pic.twitter.com/mLonbI7e6l
— ANI (@ANI) May 11, 2023
दूसरा मामला (Govt of Delhi Vs LG) दिल्ली सरकार से जुड़ा है, जिसमे उपराज्यपाल (Lieutenant Governor) वीके सक्सेना ने जनता द्वारा चुनी गई दिल्ली की आम आदमी पार्टी (AAP) की सरकार से सारे अधिकार अपने हाँथो में ले लिए थे और प्रशासनिक कामकाज में लगातार अड़ंगा डाल रहे थे। इसी विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई गई थी और सर्वोच्च न्यायालय ने अभी राज्य की चुनी हुई सरकार के पक्ष में फैसला दिया है।
राज्यपाल (Governor) की भूमिका पर पहले भी उठे हैं सवाल
दरअसल ये दोनों मामले अपनी तरह के न तो प्रथम मामले हैं और देश की राजनीति जिस माहौल से गुजर रही है, यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि यह आखिरी मामला भी नहीं है। राज्यपालों की भूमिका पर सवाल और संशय पहले भी रहे हैं और आगामी निकट भविष्य में भी रहेंगे।
1982 में हरियाणा के तत्कालीन राज्यपाल GD तपासे (Governor GD Tapase) ने चौधरी देवीलाल के नेतृत्व वाली लोकदल के पास बहुमत होते हुए भी अल्पमत वाले कांग्रेस के भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। बाद में भजनलाल ने लोकदल के ही कुछ विधायकों ने को तोड़कर दल-बदल करवा के अपना बहुमत साबित कर दिया।
1983 में आन्ध्र प्रदेश, 1983 में ही जम्मू कश्मीर में भी राज्यपालों ने अपनी मनमानी कर राज्य में सत्ता परिवर्तन किया। 1989 में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई की बर्खास्तगी का मामला तो भारत के संसदीय इतिहास का एक नया अध्याय बन गया।
एस आर बोम्मई केस ( SR Bommai Case) में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि बोम्मई सरकार की बर्खास्तगी असंवैधानिक थी और उन्हें बहुमत साबित करने का मौका मिलना चाहिए था। 1994 में आया यह फैसला अनुच्छेद 356 (Article 356) के इस्तेमाल के विषय मे राजनीति शास्त्र में एक मील का पत्थर माना जाता है।
1998 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली सरकार को नाटकीय ढंग से तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने बर्खास्त कर के जगदंबिका पाल के नेतृत्व में सरकार बनवा दी। हालांकि, इसके डेढ़ दिन बाद ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कल्याण सिंह की बर्खास्तगी को असंवैधानिक करार दे दिया।
इसी साल (1998) में बिहार में राबड़ी देवी की सरकार को तत्कालीन राज्यपाल (Governor) विनोद चंद्र पांडे ने बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया। केंद्र में तब भाजपा नेतृत्व वाली अटल बिहारी वाजपेयी की NDA सरकार थी। राष्ट्रपति शासन का प्रस्ताव लोकसभा से तो पारित हो गया लेकिन राज्यसभा से यह प्रस्ताव पास नहीं हो पाया। लिहाजा राबड़ी देवी की सरकार को वापस बहाल करना पड़ा।
2005 में झारखंड में भी राज्यपाल (Governor) ने अल्पमत के नेता शिबू सोरेन को शपथ दिला दी। लेकिन बहुमत साबित न करने के कारण महज़ 9 दिन में यह सरकार भी गिर गई। बाद में अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में भाजपा नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार बनी।
2005 में बिहार में हुए विधानसभा चुनाव के बाद राज्यपाल बूटा सिंह (Governor Boota Singh)की सिफारिश पर मई में विधानसभा भंग कर के राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने बूटा सिंह के विधानसभा भंग करने के निर्णय को असंवैधानिक करार दिया था।
ये तमाम उदाहरण वे बड़े राजनीतिक वाकया हैं जिसमें राज्यपाल (Governor) की भूमिका न सिर्फ सवालों के घेरे में थी बल्कि कई दफा न्यायालयों ने इसे असंवैधानिक करार दिया। दूसरा, ये सभी उदाहरण मौजूदा केंद्र सरकार के पहले के है। लेकिन वर्ष 2014 में बीजेपी सरकार आने के बाद तो राज्यपालों के राजभवन और केंद्र की सत्तारूढ़ दल के दफ्तर में व्यवहारिक तौर पर कोई अंतर नही रह गया।
पिछले 9 सालों में राज्यपाल (Governor) द्वारा तमाम राज्यों में सरकारें बनाने-गिराने का खेल खेला गया। इस खेल की शुरुआत 2014 के दिसंबर में अरुणाचल प्रदेश में दल-बदल के जरिये सरकार को गिराने और फिर राष्ट्रपति शासन लगाने से हुई। हालांकि, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के रवैया को असंवैधानिक ठहराते हुए राज्य में कांग्रेस सरकार को पुनर्बहाल करने आदेश दिया था।
इसके बाद तो राज्यों में दल-बदल और फिर राज्यपाल के आदेश के जरिये सरकारों का बनाने-गिराने का खेल मध्यप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र सहित कई अन्य राज्यों में खेला गया। अभी महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार गिराकर वर्तमान मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की सरकार बनाने में राजपाल की भूमिका को लेकर सुप्रीम कोर्ट की दो-टूक भी राज्यपालों के भूमिका पर उठे सवालों की ही एक कड़ी है।
आखिर राज्यपाल क्यों लाँघ रहे अपनी मर्यादा?
दरअसल, राज्यपाल (Governor) और उपराज्यपाल (LG) की नियुक्ति इसलिए की जाती है कि वे राज्य सरकारों को किसी प्रकार के अनुचित या असंवैधानिक फैसला करने से रोकें। मगर जब से इन पदों पर राजनीतिक व्यक्तियों की नियुक्ति होने लगीं, तब से इस पद की भूमिका और गरिमा सवालों के घेरे में है।
केंद्र सरकार अपने खास लोगों को इन पदों पर नियुक्त कर उनके जरिये राज्यों में अपने विपक्षी दलों की सरकारों पर अंकुश लगाने का काम करती है। इन पदों पर आसीन लोग राजनीतिक पृष्टभूमि से होने के कारण अपने पार्टी के प्रति वफादारी साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। यही वजह है कि कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल में या वर्तमान में केरल, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ और दिल्ली जैसे प्रदेशों में जनता द्वारा चुनी गई राज्य सरकारें और राज्यपाल आमने-सामने दिखते हैं।
अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले के बाद क्या “महामहिम (Governor)” को अपना दायर याद रहेगा? क्या वे उस मर्यादा और भूमिका को बखूबी निभाते हैं जो संविधान के मुताबिक उनसे अपेक्षित है या खुद को इतिहास वाले “गवर्नर(Governor)” की भूमिका में ही रखेंगे जिनका नियंत्रण किसी और (तब ब्रिटेन की हुकूमत, आज केंद्र सरकार) के हाँथो में था।
As you mentioned in the article This isn’t the first time that a governor of a state has acted in a partisan and biased manner. and I think it’s because of the procedure of appointment of Governors, at the end of the day Governors are political appointees – explicitly political appointees.
“A governor is appointed by the President of India, but the President acts on the advice of the Council of Ministers at the Centre, as per Article 74 of the Constitution. So in essence, the governor is chosen by the (Union) government of the day.”
I think there should be some changes in the procedure of appointment of Governors.