ED यानी प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) का नाम पिछले कुछ सालों में लगातार गूंजता रहा है। हर दूसरे दिन कोई ना कोई विपक्षी नेता के घर ED की कार्रवाई की खबर आती है। अभी बंगाल के पूर्व मंत्री पार्थ चटर्जी के करीबी के घर से लगभग 5 करोड़ के कीमत की रकम के कैश और सोना बरामद हुआ है और कार्रवाई जारी है।
ED ने कुछ दिन पहले ही नेशनल हेराल्ड मामले में मनी लांड्रिंग के सिलसिले में कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी और अध्यक्षा सोनिया गांधी से पूछताछ की थी। आज 31 जुलाई यानि रविवार को भी ED की एक टीम महाराष्ट्र में शिवसेना नेता संजय राउत के घर पर पूछताछ कर रही है।
ED raids Sena’s Sanjay Raut’s residence, questions him on Patra Chawl land scam case
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— ANI Digital (@ani_digital) July 31, 2022
सुप्रीम कोर्ट ने ED की शक्तियों को बताया वाज़िब
कुल मिलाकर बीते कुछ वर्षों में खासकर मोदी सरकार में राजनीतिक विपक्षियों के खिलाफ ED की कार्रवाई बढ़ी है। ED की इसी तेज होती गतिविधियों को लेकर विपक्षी नेताओं कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। भारत के कई अलग अलग अदालतों में ढेरों मामले इसके ख़िलाफ़ लंबित थे जिसे एक कर के सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की।
सुनवाई के उपरांत माननीय सुप्रीम कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) की सभी शक्तियों को सही बताया तथा अपने आदेश में कहा कि प्रवर्तन निदेशालय के सभी अधिकार जैसे गिरफ्तारी, कुर्की-जब्ती आदि वाज़िब हैं।
असल मे प्रवर्तन निदेशालय यानी ED को पहले गिरफ्तार करने या कुर्की जब्ती जैसे अधिकारों के इस्तेमाल के पहले कोर्ट के सामने इसके मक़सद को साबित करना पड़ता था कि किसी अमूक मामले में इन अधिकारों का इस्तेमाल करना क्यों जरूरी है।
परंतु मोदी सरकार ने इसमें परिवर्तन करते हुए ED को यह अधिकार दे दिया कि निदेशालय बिना औचित्य बताए ही किसी व्यक्ति के खिलाफ गिरफ्तारी, कुर्की जब्ती आदि कानूनी अधिकारों का इस्तेमाल कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस ताजे फैसले में प्रवर्तन निदेशालय के इन्ही अधिकारों को न्याय-संगत व संवैधानिक बताया है। जिसके बाद उम्मीद है कि ED की कार्रवाई और तेज हो सकती है।
ट्रैक-रिकॉर्ड बेहद खराब
दरअसल विवाद प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारों को लेकर उतना नहीं है जितना वर्तमान सरकार द्वारा इसके इस्तेमाल को लेकर है। दूसरा इसकी जांच की सफलता दर को लेकर भी निश्चित ही चिंतन-मंथन की आवश्यकता है।
यहां स्पष्ट कर दें कि ऐसा नहीं है कि बस यह मोदी सरकार ही इसका इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों को शांत करने के लिए कर रही है; इस से पहले की सरकारों में भी इन जांच एजेंसियों का इस्तेमाल विरोधियों के खिलाफ इसी मक़सद से किया जाता रहा है।
बस हुआ यह है कि पहले ED से ज्यादा CBI आदि का इस्तेमाल होता था, अब प्रवर्तन निदेशालय को ज्यादा शक्ति प्रदान करके इस्तेमाल भी कई गुना ज्यादा बढ़ गया है। ED के ट्रैक-रिकॉर्ड यह स्पष्ट कर देता है कि इसका इस्तेमाल सरकार द्वारा राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ ज्यादा हुआ है।
राज्यसभा में शिवसेना सांसद प्रियंका चतुर्वेदी के एक प्रश्न के जवाब में केंद्रीय राज्य वित्त मंत्री पंकज चौधरी ने बताया कि 2004-05 से लेकर 2013-14 तक कांग्रेस नेतृत्व वाली UPA सरकार के दौरान ED ने कुल 112 छापे डाले थे जिसमें 114 मामलों में चार्जशीट दायर की गई तथा लेकिन इन मामलों में प्रवर्तन निदेशालय किसी को भी सजा नहीं दिला पाई।
वहीं वर्तमान मोदी सरकार के दोनों कार्यकालों को सम्मिलित रूप से देखा जाए तो 2014-22 के बीच ED ने कुल 3010 छापे मारे हैं जो पिछली सरकार के कार्यकाल के आंकड़ों से 27 गुना ज्यादा है। इन 3010 मामलों में 888 चार्जशीट दाखिल किए गए और कुल 23 लोगों को सजा मिली है।
केंद्रीय जाँच एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय में अभी तक कुल 5422 मामले दर्ज किए हैं और इनमें से 3555 PMLA (Prevention Of Money Laundering Act) मामले बीते 8 सालों में दर्ज किए गए हैं। इन मे से कुल 23 मामलों में सजा मिल सकी है जो कि कुल मामलों का 0.5% से भी कम सफलता दर है।
इतने बड़े जाँच एजेंसी जिसके कार्यवाही व संचालन पर सरकार करोड़ो रूपये खर्च करती है, उसका सफलता दर महज़ 0.5% से भी कम होना संसाधनों और अधिकारियों के कार्यकुशलता का समुचित इस्तेमाल ना होना या फिर इन संसाधनों के दुरुपयोग की बात की तरफ़ इशारा करता। साथ ही यह भी पता चलता है कि इस जाँच एजेंसी के कार्यप्रणाली में ही कोई खोंट है जिसे दूर किये जाने की आवश्यकता है।
महज़ राजनीतिक हथियार बन कर रह गई है ED?
ED के कार्यप्रणाली पर सवाल उठना लाजिमी है। क्योंकि इसके राडार में जिन राजनेताओं, या अन्य व्यक्तियों का नाम आता है वह सत्ता पक्ष का विरोधी होता है या फिर सरकार को सहयोग नहीं करता है। जिसकी भी सत्ता पक्ष के साथ रिश्ते अच्छे हैं, ED की नज़र उन भ्रष्टाचारी नेताओं या उद्योगपति के तरफ़ नहीं जाती।
नतीजतन अब कहीं पर भी प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई होती है, सीधा आरोप केंद्र सरकार पर आ जाता है कि वह अपने विरोधियों को दबाने के लिए केंद्रीय जाँच एजेंसी का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ के लिए कर रही है। यह सब महज़ उस व्यक्ति को परेशान करने के नियत से किया जा रहा है।
बीते कुछ सालों में इस जाँच एजेंसी के कार्रवाई का अध्ययन करें तो विपक्ष के इन दावों में कहीं ना कहीं सच्चाई दिखती है कि ED की कार्रवाई एक निष्पक्ष जांच एजेंसी की कार्रवाई नहीं मालूम पड़ती है और यह सत्ता कब इशारों पर काम कर रही है।
अब तो धीरे-धीरे आम जनमानस के बीच भी यह बात बैठती जा रही है कि इस केंद्रीय जाँच एजेंसी भ्रष्टाचार रोकने में कम, राजनीतिक दाव पेंच में ज्यादा इस्तेमाल हो रही है। बीते दिनों महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन के पीछे भी ED के कार्रवाई के खौफ़ को एक कारण बताया गया था।
स्पष्ट है कि जिस भ्रष्टाचार को रोकने के लिए यह एजेंसी वजूद में आई थी, कहीं ना कहीं उस भ्रष्टाचार को एक सामाजिक स्वीकृति मिलती जा रही है और अब ED के कार्रवाई जिन नेताओं पर हो रही है वह इसके राजनीतिक इस्तेमाल के दृष्टिकोण का सहारा लेकर अपने भ्रष्टाचार को एक मूक स्वीकृति समाज के एक बड़े वर्ग में दिलवाने में कामयाब हो जा रहे हैं।
अदालतों की अपनी सीमाएं हैं और उसी दायरे में रहकर सुप्रीम कोर्ट ने अभी ED की शक्तियों को सही बताया है लेकिन इस एजेंसी के राजनीतिक इस्तेमाल के कारण सचमुच मनी लांड्रिंग जैसे राष्ट्रविरोधी मामलों को प्रवर्तन निदेशालय के दायरे से बाहर रह जाने का खतरा सामने है जो एक गंभीर विषय है।
आदर्श स्थिति तो यह होनी चाहिए कि ED, CBI, NIA, NCRB जैसी केंद्रीय जाँच एजेंसियों को स्वतंत्र रहना चाहिए, सत्ता के हाँथ की कठपुतली नहीं।