भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जिसे जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के संदर्भ में “ग्राउंड जीरो” की संज्ञा दी जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे गंभीर विषय पर देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां ख़ामोश नज़र आती हैं।
देश मे हर साल किसी न किसी राज्य का या हर 5 साल में केंद्र का आमचुनाव होते ही रहता है जिसमें राष्ट्रीय स्तर से लेकर क्षेत्रीय स्तर तक के राजनीतिक दल अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी करते हैं।
इन घोषणा पत्रों को उठाकर देखने पर पता चलता है कि पर्यावरण से जुड़ी समस्याएं (Environmental Issues) या तो ग़ायब हैं; या है भी तो चुनावी नीतियों में उनका कोई महत्व नहीं होता। अब इसके लिए कौन जिम्मेदार है, यह एक अलग बहस है।
हालिया IPCC रिपोर्ट (Intergovernmental Panel on Climate Change Report 2021-22) के मुताबिक जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के कारण भारत के कई शहर पर्यावरण संबंधित गंभीर समस्याओं जैसे कि बाढ़, समुद्र जलस्तर में बढ़ोतरी, हीट वेव आदि के लिए “हॉटस्पॉट” साबित होंगे।
देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई पर बढ़ते जलस्तर और अतिवृष्टि जनित बाढ़ की समस्या जैसे गंभीर रूप धारण कर रहे हैं, वहीं अहमदाबाद हीट वेव का शिकार है। अन्य प्रमुख शहर जैसे चेन्नई भुवनेश्वर पटना लखनऊ गर्मी और आर्द्रता के खतरनाक स्तर पर पहुंचने के मुहाने पर है।
ये वो समस्याएं हैं जिसके लिए किसी रिपोर्ट या कोई नेताजी के भाषण का इंतजार नहीं है। इस देश का हर नागरिक इन समस्याओं से हर वक़्त दो-चार हो रहा है।
मसलन अभी गर्मी का मौसम चल रहा है। हीट-वेव (Heat Wave) और उमस (Humidity) की समस्या ऐसी है कि अचानक से देश भर में बिजली की मांग में 10% का इज़ाफ़ा हो गया है। इस से बिजली की संकट देश के कई शहरों में होने लगी है। भारत मे बिजली उत्पादन ज्यादातर ताप-विद्युत घरों मे कोयले से की जाती है।
इसलिए बिजली के इस बढ़े मांग को पूरा करने के लिए कोयले की खपत बढ़ेगी जिस से ‘कार्बन फुटप्रिंट’ बढ़ना शुरू होगा और परिणामस्वरूप और ग्लोबल वार्मिंग …और फिर और समस्या… यानि हम एक विकट दुष्चक्र में फंसते जा रहे हैं।
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देश के अलग अलग हिस्सों में पेयजल संकट की समस्या अतिगंभीर है। कई हिस्सों पेयजल की उपलब्धता की समस्या है तो कई जगहों पर जहाँ पेयजल उपलब्ध है, वह इतना प्रदूषित है कि उस “पेयजल” को “पेयजल” की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
हरित क्रांति की अंधी दौड़ ने पंजाब हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भूमिगत जल की उपलब्धता को खतरनाक स्तर पर प्रभावित किया है। वहीं देश के अन्य हिस्सों में भूमिगत जल में आर्सेनिक, मरकरी आदि जैसे खतरनाक रसायन विद्यमान है।
जल गुणवत्ता सूचकांक के आधार पर भारत दुनिया भर के 122 देशों में 120वें स्थान पर है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश भर के 640 जिलों में से 276 जिलों के भूमिगत जल में फ्लोराइड, 387 जिलों में नाइट्रेट, 113 जिलों में अन्य भारी तत्वों के रूप में प्रदूषण है।
ग़ौरतलब है कि 61 जिलों के भूमिगत जल में रेडियोएक्टिव तत्व यूरेनियम मौजूद है। ये सभी तत्व हमारे स्वास्थ्य के लिए जहर के समान हैं जो रोज ही पानी के साथ हमारे शरीर मे जा रहे हैं।
बीते दशक में भारत ने कई जलवायु परिवर्तन जनित कई आपदाएं इस देश ने देखा है। 2013 में उत्तराखंड त्रासदी, 2014 में जम्मू कश्मीर में बाढ़, 2015 में चेन्नई और 2018 में केरल में बाढ़ की विभीषिका में जान माल का गंभीर नुकसान हुआ।
बात बिहार की करें तो स्थिति और जुदा और भयावह है। उत्तर बिहार जहाँ बाढ़ की समस्या से हर साल परेशान रहता है वहीं दक्षिण बिहार उसी वक़्त भीषण सूखे से जूझ रहा होता है।
देश की हवा में एरोसोल पार्टिकल कुछ ऐसे घुले हुए हैं कि हम हर सांस के साथ ऑक्सीजन नहीं मौत खींच रहे होते हैं। विश्व वायु गुणवत्ता सूचकांक के अनुसार विश्व के 100 सबसे प्रदूषित शहरों में 61 शहर भारत के हैं।
जलवायु परिवर्तन व उसके प्रभावों से जनित समस्याओं की चर्चा जो ऊपर की गई है, वह एक बड़ी समस्या का खाका मात्र है। असल मे ये समस्याएं और भी खतरनाक हैं।
मसलन अगर ये प्रदूषण-जनित रसायन हमारे आहार श्रृंखला में शामिल होकर पीढ़ी दर पीढ़ी अपने कुप्रभाव छोड़ते रहते हैं। साथ ही जीवन प्रत्याशा (Life Expectancy) को भी प्रभावित कर रहे हैं।
इसके अलावे हमारे चारो तरफ़ शारीरिक, मानसिक के अलावा आर्थिक समस्याएं भी इसके कारण उत्पन्न हो रही है।लंदन स्थित Overseas Development Institute द्वारा जारी एक रिपोर्ट केअनुसार भारत को अभी से लेकर 2100 तक 3-10% प्रति वर्ष की दर से GDP का नुकसान सिर्फ जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभाव से उत्पन्न समस्याओं के कारण उठाना पड़ेगा।
अब यह सवाल बाजिब है कि जब समस्या इतनी गंभीर है तो फिर हमारे देश की राजनीतिक पार्टियाँ इसे अपने चुनावी वादों या नीतियों में वह प्रमुखता क्यों नहीं देती जितना इसे देना चाहिए?
असल मे इसके लिए सिर्फ ये राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं, ऐसा नहीं है। इस देश की सिविल सोसाइटी जिसमें हम आप सब आते हैं, की जिम्मेदारी भी है।
राजनीतिक पार्टियां अपने एजेंडे में वही सब बातें शामिल करती हैं जिस से उन्हें वोट मिले। उदाहरण के लिए , इस देश की ज्यादातर नदियां गंभीर रूप से प्रदूषित हैं लेकिन नीतियाँ जो सबसे ज्यादा बनती है वह सिर्फ गंगा की सफाई के लिए।
ऐसा इसलिए क्योंकि गंगा सिर्फ एक नदी नहीं बल्कि राजनीतिक दलों के वोटरों के लिए एक धरोहर है, राष्ट्रीय प्रतीक है, एक भावनात्मक जुड़ाव है। इसलिए हेडलाइंस सिर्फ गंगा की साफ सफाई से मिलती है। जबकि गंगा उत्तर भारत के कई अन्य नदियों को अपने साथ ले जाती है। इसलिए उन नदियों की साफ सफाई उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि गंगा का प्रदूषण मुक्त होना।
अगर सिविल सोसाइटी जागरूक हो तो राजनीतिक पार्टियों को इन मुद्दों पर विचार करना ही पड़ता है। दिल्ली का प्रदूषण इसका उदाहरण है कि कैसे नवंबर से लेकर फरवरी तक दिल्ली सरकार से लेकर केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट तक प्रदूषण से बचने के लिए तमाम उपाय करते हैं जबकि देश के अन्य हिस्सों के।लिए इन्हीं दलों में वह जागरूकता नहीं दिखती।
भारतीय राजनीति के दो सबसे बड़ी पार्टियां भाजपा और कांग्रेस, दोनों ही विकास दर और प्रदूषण की समस्या के बीच संतुलन बनाये रखने में नाकामयाब रही हैं। सिविल सोसाइटी का जागरूक ना होने के साथ-साथ विकास दर को बनाये रखने का दवाब भी राजनीतिक पार्टियों को इन मुद्दों को अपने घोषणा पत्र में प्रमुखता देने से रोकती रहीं है।
तीसरा भारत मे कोई प्रभावकारी “ग्रीन पार्टी” नहीं है जिसकी देशव्यापी पकड़ हो। इंटरनेट पर खंगालने पर “ग्रीन पार्टी ऑफ इंडिया” नाम की एक संस्था दिखती तो है लेकिन जमीन पर राजनीतिक मौजूदगी गौण है। इस से अन्य दलों पर कोई दवाब नही बन पाता कि वे भी अपने एजेंडे में प्रदूषण ,जलवायु परिवर्तन आदि जैसे मुद्दे शामिल करें।
आपको बता दें कि भारत मे हर साल ट्यूबरक्लोसिस, एड्स, इत्यादि जैसी बीमारियों से होने वाली मौत की तुलना में प्रदूषण से मरने वालों की संख्या कहीं ज्यादा है। भारत एक कृषि प्रधान देश कहा जाता है इसलिए जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव लोगो के रोजी रोजगार पर भी पड़ता है।
ऐसे में इतने महत्वपूर्ण मुद्दे का भरतीय राजनीतिक पटल से गायब रहना निश्चित ही आश्चर्यजनक और विस्मृत करने वाली है।