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    Judiciary vs Centre

    Collegium Vs Govt: केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू, लोकसभा अध्यक्ष श्री ओम बिरला तथा उपराष्ट्रपति व राज्यसभा सांसद श्री जगदीप धनखड़- संवैधानिक पदों पर बैठे इन तीन लोगों ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता, कॉलेजियम व्यवस्था (Collegium System) आदि को लेकर सुप्रीम कोर्ट पर हमलावर दिखे हैं।

    पहले तो जजों के नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार एक दूसरे के आमने सामने आए। एक तरफ़ न्यायालय का आरोप है कि कॉलेजियम व्यवस्था (Collegium System) के तहत जिन नामों को बतौर जज नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार को अनुमोदन भेजा है, केंद्र सरकार उस फ़ाइल को दबा कर बैठ जाती है।

    सरकार के तरफ़ से पलटवार करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री किरण रिजिजू ने एक मीडिया इंटरव्यू में कहा,

    जब सुप्रीम कोर्ट के जजों का चयन खुद जजों को ही करना है, तो केंद्र सरकार को फ़ाइल भेजे ही मत।

    बात यहीं तक नहीं रुकी। हाल में राजस्थान विधानसभा में एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने पहुँचे उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और लोकसभा अध्यक्ष श्री ओम बिरला ने अपने व्यक्तव्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र से पारित 99वें (99th CAA) संविधान संशोधन, जिसे राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून (NJAC Act, 2015) कहते हैं, को ख़ारिज किये जाने के फैसले पर सवाल खड़ा किया।

    श्री धनखड़ ने, जो राजनीतिक जीवन से इतर पेशेवर वक़ील भी रहे हैं, इसी दौरान भारतीय संविधान और न्याय-व्यवस्था के लिए मील का पत्थर कहे जाने वाले बहुचर्चित केशवानंद भारती केस (1973) से निकले “संविधान की मूल-ढाँचे की परिभाषा (Basic Structure of Constitution Doctrine)” पर भी सवाल खड़े कर दिए।

    इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन नामों को उजागर कर दिया गया जिनकी सिफारिश कॉलेजियम सिस्टम (Collegium System) के तहत बतौर जज नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार को भेजी गई और केंद्र सरकार ने नकार दिया।साथ ही, इन नामों के नकारे जाने के पीछे केंद्र सरकार द्वारा जो वजह बताई गई थी, कॉलेजियम ने उसे भी सार्वजनिक कर दिया।

    यह एक ऐतिहासिक कदम था जो केंद्र बनाम कॉलेजियम के टकराव को न सिर्फ सार्वजनिक किया गया बल्कि केंद्र द्वारा दिये तर्कों से केंद्र सरकार की राजनीतिक हीला-हवाली भी हो गई।

    सबसे महत्वपूर्ण और चौंकाने वाला खुलासा यह कि कॉलेजियम द्वारा वक़ील सौरभ कृपाल (Senior Advocate Saurabh Kirpal) की दिल्ली उच्च न्यायालय में बतौर जज नियुक्त करने की सिफारिश को केंद्र सरकार पिछले कई सालों से यह कहकर टाल रही थी कि सौरभ किरपाल एक समलैंगिक हैं और उनका पार्टनर विदेशी (Swiss Citizen) है।

    सरकार का तर्क है कि उनके विदेशी व्यक्ति के साथ समलैंगिक होने से बतौर न्यायाधीश उनके निष्पक्ष रहने को लेकर खतरा तो है ही, साथ ही समलैंगिकता के कारण समाज के एक बड़े खंड में गलत संदेश जाएगा और उनके निजता का हनन हो सकता है।

    सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम व्यवस्था के इस कदम से सरकार को घिरते देख केंद्रीय कानून मंत्री ने एक बार फिर मोर्चा संभाला और इस बार उन्होंने सीधे सीधे कॉलेजियम व्यवस्था (Collegium System)में केंद्र सरकार के प्रतिनिधित्व हेतु एक सीट की मांग रख दी।

    इन सभी घटनाक्रमों से स्पष्ट है कि सरकार चाहती है कि न्यायपालिका पर संसद यानि राज्य-सत्ता का दखल बढ़े जबकि न्यायपालिका संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure Of Constitution) का तर्क देकर न्यायालय की स्वायत्तता को केंद्र के प्रभाव से बचाना चाहती है।

    एकतरफ सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम व्यवस्था (Collegium System) पर गाहे-बगाहे भाई-भतीजावाद (Nepotism & Favoritism) का आरोप लगता रहा है। केंद्र  सरकार का कहना है कि जब सभी अन्य संवैधानिक संस्थाओं के मुखिया की नियिक्तियाँ केंद्र सरकार के अधीन होती है तो फिर न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में केंद्र सरकार क्यों नहीं शामिल होती है?

    केंद्र सरकार ने 2015 में इसे ही आधार बनाते हुए NJAC कानून को पास किया था जिसे न्यायपालिका ने संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध बताते हुए ख़ारिज कर दिया था।

    दूसरी तरफ़ न्यायपालिका का तर्क है कि कोई भी व्यवस्था अपने आप में पूर्णतया निर्दोष नहीं होती। हो सकता है कि कॉलेजियम व्यवस्था (Collegium System) में कुछ दोष हों, लेकिन न्यायालय की स्वतंत्रता और स्वायत्तता बनाये रखने के लिए कॉलेजियम व्यवस्था अपने आप मे उत्तम है।

    न्यायपालिका की स्वतंत्रता देश के आम नागरिकों को उनके मूल अधिकारों की रक्षा हेतू आवश्यक है। संविधान में वर्णित नागरिकों के मूल अधिकार संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है, अतः न्यायालय की स्वायत्तता और स्वतंत्रता (In Concurrence to Collegium System) भी संविधान के मूल ढांचे का एक हिस्सा है।

    संवैधानिक पदों पर बैठे इन व्यक्तियों के बयानबाज़ी और इस कॉलेजियम बनाम सरकार (Collegium Vs Govt) के टकराव से कई ऐसे महत्वपूर्ण सवाल पैदा हो रहे हैं जिनका जवाब आज़ादी के इस स्वर्णिम काल में ढूंढ़ना भारतीय लोकतंत्र की आत्मा के लिए अतिआवश्यक है।

    सबसे पहले तो एक तात्कालिक सवाल यह कि क्या केंद्र सरकार नए मुख्य न्यायाधीश (CJI) चंद्रचूड़ को लेकर असहज है? इन से पहले के जजों के साथ जो केंद्र सरकार सहज महसूस कर रही थी, आज वह इतना घबराई हुई क्यों मालूम पड़ रही है?

    इस से पहले के जजों ने राफेल डील, राम-मंदिर जैसे कुछ ऐसे ऐतिहासिक फैसले दिए जो वर्तमान केंद्र सरकार के राजनीतिक एजेंडे में फिट बैठती थी। यहाँ तक कि एक CJI को तो रिटायरमेंट के बाद बीजेपी की सीट से राज्यसभा भी भेजा गया। आखिर वह क्यों चाहती है कि जजों की नियिक्तियाँ उसके मनमाफ़िक भी हो?

    फिर इस तात्कालिक सवाल से हटकर एक दूरदर्शी चश्में से यह सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार संविधान का “कायाकल्प” करना चाहती है? आखिर उपराष्ट्रपति श्री धनखड़ द्वारा अप्रत्याशित रूप से संविधान के मूल ढांचे पर सवाल उठाने का क्या यही अर्थ है?

    यह वो सवाल है जिसे लेकर इस लोकतंत्र के सभी स्तंभों, नागरिक समाज (Civil Society), दवाब समूहों (Pressure Groups) आदि को गंभीर रूप से सोचना चाहिए। भारतीय लोकतंत्र ने अतीत में न्यायपालिका के अधिकारों में केंद्र की दखल का परिणाम देख रखा है, जिसका परिणाम “आपातकाल” के रूप में सामने आया था।

    श्री धनखड़ और श्री ओम बिरला ने तो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के इस काले अध्याय को अपनी आंखों से देखा होगा। जबकि केंद्रीय कानून मंत्री श्री किरण रिजिजू ने देखा नहीं तो इसे सुना और पढ़ा जरूर ही होगा। बावजूद इसके, इन व्यक्तियों द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर लगातार हमला किया जाना समझ से परे है।

    एक बार मान लीजिए कि न्यायालय पर केंद्र सरकार या संसद का वर्चस्व कायम हो जाये तो क्या इस से संसद द्वारा पास किये जाने वाले कानून की न्यायिक समीक्षा उसी स्वतंत्रता से हो पाएगी जैसे आज हो रही है? क्या न्यायिक समीक्षा करने वाला जज जो खुद केंद्र सरकार के सिफारिशों से नियुक्त हुए है, सरकार के खिलाफ जाने की हिम्मत करेगा? दूसरा इस से क्या एक और स्थिति नहीं उत्पन्न हो जाएगी कि हाई कोर्ट या अन्य न्यायालय के जज पदोन्नति के लिए केंद्र सरकार के तरफ़ झुकाव रखने लगेंगे?

    निश्चित ही यह वे सवाल हैं जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उसकी स्वायत्तता को प्रभावित कर सकती है। तब तो और जब आज केंद्र की बीजेपी सरकार पर CBI, ED जैसी केंद्रीय संस्थाओं के दुरुपयोग के आरोप लगते रहते हैं।

    केंद्र सरकार को यह समझना चाहिए कि ज़रूर केंद्र की सरकार और संसद देश की जनता की आवाज़ है। लेकिन इसी जनता के ख़िलाफ़ केंद्र की सरकारें अतीत में निर्दयी भी हुई हैं। फिर बहुदलीय केंद्रीय व्यवस्था में सत्ता-दल को नागरिकों के मतों से बहुमत हासिल होता है ना कि देश के सम्पूर्ण जनसंख्या का सीधा समर्थन।

    इसलिए कॉलेजियम सिस्टम (Collegium System) को लेकर वर्चस्व की यह लड़ाई निहायत ही अनावश्यक जान पड़ती है। यह जरूर है कि अगर किसी व्यवस्था में कोई ख़ामी है तो उसे निश्चित ही दूर करने का प्रयास होने चाहिए। लेकिन उसके परिणाम ऐसे ना हो कि आम जनता के मौलिक अधिकारों को लेकर वर्तमान या भविष्य में कोई खतरे की स्थिति उत्पन्न हो जाये।

    न्यायालय ही जनता की आवाज़ को बुलंद रखने की आखिरी चौखट है, इसलिए उसकी स्वतंत्रता के साथ छेड़छाड़ का सीधा मतलब है नागरिक अधिकारों के साथ समझौता।

    By Saurav Sangam

    | For me, Writing is a Passion more than the Profession! | | Crazy Traveler; It Gives me a chance to interact New People, New Ideas, New Culture, New Experience and New Memories! ||सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ; | ||ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ !||

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