जाति-आधारित जनगणना (Caste Based Census) की माँग बिहार से शुरू होकर धीरे धीरे अन्य राज्यों में और फिर राष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी जगह तलाश रही है। विपक्षी एकता की जिज़ तरह क़वायद चल रही है और सभी क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस (INC) के नेतृत्व में एक साथ लाने का प्रयास चल रहा है; यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आगामी लोकसभा चुनाव 2024 में यह एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरे।
दरसअल केंद्र की सत्ता में काबिज़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने पहले ही कोर्ट में हलफनामा दाखिल करते हुए प्रशासनिक मुश्किलात और सामाजिक ताना-बाना के बिखर जाने का हवाला देते हुए जाति-आधारित जनगणना (Caste based Census) को करवाने से इनकार किया है।
यह एक अलहदा बात है कि, जाति आधारित जनगणना तो छोड़िए, वर्तमान भाजपा सरकार में नियमित जनगणना (Census 2021) जो हर 10 साल में किया जाता है और 2021 में ही करवाया जाना था; अभी 2023 के एक तिहाई समय निकल जाने के बाद भी नहीं करवाया है।
उधर दूसरी तरफ, जाति-आधारित जनगणना (Caste Based Census) की मांग विभिन्न राज्यों में अभी तक तो क्षेत्रीय दलों के द्वारा ही की जा रही थी। लेकिन इसी सप्ताह दिग्गज कांग्रेस नेता व पूर्व लोकसभा सदस्य राहुल गांधी ने कर्नाटक की एक चुनावी सभा मे केंद्र सरकार से जाति-आधारित जनगणना की मांग कर डाली।
प्रधानमंत्री जी, वंचितों को खोखले शब्द नहीं, राजनीतिक और आर्थिक शक्ति की ज़रूरत है।
ये तीन कदम उठाइए:
✅ 2011 की जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक कर, देश में OBC कितने हैं बताइए
✅ आरक्षण से 50% कैप हटाइए
✅ दलितों, आदिवासियों को आबादी के अनुसार आरक्षण दीजिए#जितनी_आबादी_उतना_हक़ pic.twitter.com/woYP7ddoXE— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) April 17, 2023
राहुल के इस मांग को उनकी राजनीतिक मजबूरी समझिए ताकि क्षेत्रीय दलों को साथ लाया जाए या कुछ और… लेकिन अगर इसे 2024 के आम चुनाव के नजरिए से देखें तो यह कहना कतई अनुचित नहीं होगा कि जाति आधारित जनगणना की मांग धीरे धीरे राजनीति के केंद्र में अपनी जगह पुख्ता कर रही है।
जाति (Caste) और भारतीय राजनीति: एक दूसरे के पूरक
अब इसे इस देश की राजनीति का दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य, लेकिन जाति (Caste) इस देश की एक सामाजिक हक़ीक़त है। भारत के संविधान में भी जातीय आधार पर प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था है। संविधान निर्माताओं और उसके बाद के प्रतिनिधियों ने ऐसी व्यवस्था को संविधान में इसलिए जगह दी ताकि समाज के उत्पीड़ित, उपेक्षित, ग़रीब, दबे-कुचले वर्ग के लोगों व पिछले वर्ग को भी आगे बढ़ने का अवसर मिले।
संविधान निर्माताओं को यह लगा था कि इस व्यवस्था से आज़ादी के बाद कुछ वर्षों में सामाजिक दूरियां और विभेद मिट जाएंगी और फिर इन प्रावधानों को हटाकर सबके लिए एक समान कानून और नियम लागू कर दिए जाएंगे।
परंतु आज आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी जब देश आज़ादी के अमृतकाल मे विश्वगुरू बनने का ख्वाब देख रहा है, क्या ऐसा हुआ जिससे यह कहा जाए कि संविधान निर्माताओं ने जो सपने देखे थे, वे पूरे हो गए? जवाब साधारण है- नहीं।
प्राचीन काल से ही फैला यह सामाजिक ज़हर यह “जाति (Caste)” आज भी समाज की एक हक़ीक़त है। किसी के इंसानियत और उसके कर्मो से बढ़कर जाति ही पहचान है। और भारत की राजनीति में राजनीतिक दलों ने इसी सामाजिक बिखराव का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है।
आज़ादी के बाद से पहले अनुसूचित जाति, जनजाति को संवैधानिक प्रावधानों के तहत सिर्फ 10 साल तक आरक्षण दिया गया। फिर यह मियाद हर 10 साल बाद बढ़ाया गया जो आज भी जारी है।
1950 और 60 का दशक जहाँ क्षेत्रवाद और भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग वाली राजनीति का गवाह बना; वहीं 1970 का उत्तरार्ध और 1980 में जाती आधारित राजनीति ने अपने पैर पसारने शुरू किया। यह वह दौर था जब “जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” जैसे माँग राजनीति में गूंजने लगे।
इसका परिणाम हुआ कि 1990 में आरक्षण का दायरा मंडल कमीशन के रिपोर्ट के आधार पर और बढ़ा दिया गया। आरक्षण पाने वालों की सूची में एक नया हिस्सा जोड़ा गया- “अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)”. भारतीय राजनीति में यह एक ऐसा कदम था जो आने वाले दशकों में भारतीय राजनीति की दिशा और दशा दोनों तय करने वाली थी।
इसके बाद ही भारतीय राजनीति में ख़ासकर हिंदी भाषी राज्यों मे- OBC समाज के नेताओं का बोलबाला बढ़ा। ओबीसी और दलित जाति समूहों की लामबंदी ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों के लिए एक नया बना-बनाया राजनीतिक फॉर्मूला बन गया। चाहे बिहार में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार आदि या फिर उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव – ये तमाम धुरंधरों के कैरियर को असली पंख इस ओबीसी राजनीति ने दी।
“जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी इतनी हिस्सेदारी……..?”
परंतु, मंड़ल कमीशन( Mandal Commission) द्वारा लाये गए व्यवस्था कोई रामबाण तो थी नहीं। फलस्वरूप, यह देखा गया कि राजनीति के इस खेल से उपजे ओबीसी आरक्षण (Other Backward Class- OBC Reservation) का लाभ भी सभी पिछड़ी जातियों (Backward Caste) तक नहीं पहुंच सका।
यह देखा गया कि इस आरक्षण पर भी OBC के दबंग जातियों का ही कब्जा रहा है। इन पिछड़ी जातियों में से सिर्फ पर्याप्त राजनीतिक नुमाइंदगी वाले समुदायों या जातियों ने आरक्षण की सुविधा व अन्य कल्याणकारी योजनाओं की मलाई का ज्यादातर हिस्सा खाते रहे जबकि उन जातियों यया समुदायों के जिनका राजनीतिक दबदबा खूब नहीं रह, वे बड़ी संख्या में आरक्षण व अन्य सरकारी सुविधाओं से वंचित रह गए हैं।
पिछले कुछ दशकों में हिंदी भाषी क्षेत्र में अम्बेडकरवादी और समाजवादी विचारों के छाया में कई नई राजनीतिक पार्टियों का उद्भव हुआ है जो मात्र एक विशेष जाति या समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह पार्टियां आरक्षण के साथ साथ राजनीति और अन्य जगहों जैसे नौकरी पेशा आदि में अपना प्रतिनिधित्व अपनी अनुमानित जनसंख्या के आधार पर चाहती हैं।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि ओबीसी और दलित समुदायों के छोटी छोटी जातियों में बंटवारा अब समाजिक ताने बाने के साथ साथ राजनीतिक व अन्य क्षेत्रों में अपने प्रतिनिधित्व तक की माँग में भी देखने को मिला है। इसी संदर्भ में अक्सर ही इन राजनेताओं द्वारा दलित नेता काशीराम के मशहूर नारा “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी इतनी हिस्सेदारी” की गूंज सुनाई देती है।
बिहार में जारी है Caste Based Census का दूसरा चरण
केंद्रीय राजनीति के लिहाज से एक महत्वपूर्ण राज्य बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के नेतृत्व में जाति आधारित जनगणना (Caste Based Census) के दूसरा दौर जारी है। सरकार के उच्च अधिकारी, क्लर्क, नियोजित शिक्षकों , आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और आशा दीदी आदि सहित लगभग 4 लाख राज्यकर्मी इस लू और भीषण गर्मी के बीच घर घर जाकर इस पूरे प्रक्रिया को पूरा कर रहे हैं।
सरकार के हालिया घोषणा (जिसमें नियोजित शिक्षकों को शिक्षक पात्रता परीक्षा (S TET) पास करने के बावजूद राजकर्मी का दर्जा पाने के लिए BPSC की परीक्षा पास करना अनिवार्य कर दिया गया है) का राज्य के नियोजित शिक्षकों द्वारा जारी तीव्र विरोध के बावजूद सरकार इन शिक्षकों से जनगणना कार्य करवा रही है।
उधर दूसरी तरफ़, बिहार सरकार के इस पूरे प्रक्रिया को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका फिर से दाखिल हुआ है। इस मसले पर याचिका पहले भी दायर किये गए थे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे नकार दिया था। तब जनगणना के कार्य अपने प्रथम चरण में था।
इस बार, जबकि बिहार में इस प्रक्रिया का दूसरा चरण जारी है जो पहले चरण से ज्यादा महत्वपूर्ण है, उस समय सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को स्वीकार किया है। ऐसे में अगर मान लें कि माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला बिहार सरकार के ख़िलाफ़ जाता है तो क्या होगा? जब तक मामले की संवैधानिकता सुनिश्चित न हो जाए, यह कहाँ तक जायज है कि राज्य के कर्मचारियों को धूप-बारिश, लू-लहर आदि में गाँव-गाँव, घर-घर, गली-गली घुमाया जाए?
दूसरा, अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बिहार सरकार के जाति आधारित जनगणना (Caste Based Census) के पक्ष में आता है तो यह तय है कि मंडल कमीशन (Mandal Commission) से पनपी ओबीसी केंद्रित राजनीति (OBC Centered Politics) में यह नया कदम होगा जो आने वाले भविष्य में न सिर्फ आरक्षण की मांग को नई दिशा देगा बल्कि राजनीतिक समीकरणों को भी एक नई रूप रेखा हासिल होगा।
EWS आरक्षण देने के केंद्र सरकार के फैसले को सही ठहरा कर कोर्ट ने पहले ही आरक्षण की 50% वाली सीमा को तोड़ दिया है। इससे मंडल आधारित राजनीति करने वाली पार्टियों को जाति-जनगणना और आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी वाली माँग को और पुख्ता करने में मदद ही मिली है।