रेपो रेट में बढ़ोतरी (Hike in Repo Rate): जैसा कि अनुमान था और अर्थशास्त्री इसका अंदेशा लगा रहे थे, पिछले दिनों RBI ने फिर से रेपो दर (Repo Rate) मे पचास फीसदी (50 bps) की बढ़ोतरी की है। मई से लेकर यह अब तक चौथी बार है जब धीरे-धीरे कर के रेपो-रेट मे इज़ाफ़ा किया गया है।
मई से लेकर अब तक कुल 1.90 फीसद (190 bps) की बढ़ोतरी की जा चुकी है जिसके कारण वर्तमान रेपो रेट 5.90% हो गया है। इस कारण बैंकों से कर्ज लेकर व्यापार , मकान, कार आदि खरीदने वाली आम जनता की किस्तों में थोड़ी और बढ़ोतरी होगी। हालांकि छोटे बचत करने वाले लोगों के लिए यह कुछ हद्द तक राहत का फैसला भी साबित हो सकता है।
RBI hikes repo rate by 50 bps to 5.90 pc, inflation projection retained at 6.7 pc
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— ANI Digital (@ani_digital) September 30, 2022
रेपो रेट में बढ़ोतरी और आम-जन पर इसके प्रभाव: आसान भाषा मे
रेपो रेट (Repo Rate) असल मे वह दर है जिस पर रिज़र्व बैंक दूसरे बैंकों को कर्ज देती है। फिर ये बैंक आम-जनता को उस से थोड़े ज्यादा दर पर कर्ज देते हैं। अतः स्पष्ट है कि रेपो रेट में बढ़ोतरी का सीधा प्रभाव आम जनता को दिए गए कर्ज के ब्याज दरों पर पड़ेगा और किस्तें (EMI) बढ़ जाएगी।
पिछले 4 महीनों में 1.90% की बढ़ोतरी से आमजन के पॉकेट पर असर पड़ना स्वाभाविक है। जाहिर है कि इस से साधारण जनता के खर्च करने के बजट और बचत का संतुलन प्रभावित होगा।
रेपो रेट को क्यों बढ़ा रही है RBI
असल मे मुद्रास्फीति (Inflation), महँगाई (Price Rise), बढ़ते व्यापार घाटे (Trade Deficit) तथा रुपये की गिरती कीमत आदि के कारण चालू खाता घाटा (Current Account Deficit) पर काबू पाना कठिन होता जा रहा है। इस समस्या से निपटने का सबसे आसान तरीका रेपो रेट में इज़ाफ़ा ही है। हालाँकि, यही अंतिम और एक मात्र उपाय है, ऐसा RBI भी नहीं मानता।
चालू वित्त वर्ष (FY 2022-23) के पहले तिमाही (First Quarter) में चालू खाता घाटे (Current Account Deficit) में चिंताजनक बढ़ोतरी के आंकड़े सामने आए हैं। इसके लिए जिम्मेदार व्यापार घाटे को माना जा रहा है।
दूसरे शब्दों में कहें तो निर्यात में कमी और अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपये की गिरती कीमत मुख्यतः जिम्मेदार हैं। ऐसे में इस अर्थशास्त्र की दुनिया से बाहर सरकार के नीतियों जैसे -Make in India, आत्मनिर्भर भारत आदि की सफलता पर भी सवाल उठते हैं।
अभी और गिर सकता है रुपया
आज की दुनिया मे अर्थशास्त्र का पूरा ढाँचा एक देश का दूसरे देश पर निर्भर है। भारतीय मुद्रा का डॉलर के मुकाबले कमजोर होना भी इसी से संबंधित है। हमें इस पूरे चक्र को समझने की आवश्यकता है।
दरअसल पिछले कुछ हफ़्तों में अमेरिकी फेडरल बैंक ने अपने दरों में इज़ाफ़ा किया है। इस से दुनिया भर के मुद्राओं का डॉलर के मुकाबले बड़ा झटका लगा है। जाहिर है, भारतीय मुद्रा रूपया भी इस झटके से अछूता नहीं है लेकिन अन्य देशों के मुद्राओं की तुलना में फिर भी रुपये की स्थिति थोड़ी मजबूत है। (मतलब, गिरावट तो रुपये में भी है लेकिन स्थायी और नियंत्रित है।)
परिणामस्वरूप भारत जैसे देश जहाँ विदेशी निवेशकों के पैसे लगे होते हैं, उस निवेश में कमी होगी और डॉलर का भारत के अर्थव्यवस्था से बाह्य-मुखी प्रवाह (Outflow) होना तय है।
दूसरा पहलू यह भी है कि भारत जैसे विकासशील देश जो निर्यात से ज्यादा आयात करते हैं, उन्हें डॉलर के मुकाबले रुपये के कमजोर होने के कारण ज्यादा भुगतान करना होगा। जिसका सीधा असर चालू खाते (Current Account) पर पड़ता है और पड़ भी रहा है।
इसी को एक स्थायित्व देने के वास्ते RBI ने रेपो रेट में इज़ाफ़ा किया है। लेकिन क्या इतने से मामला सँभल जाएगा, आसार कम नजर आते हैं। क्योंकि अमेरिकी फेडरल बैंक ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि वह अभी अपने दरों में और इज़ाफ़ा करने जा रही है।
अगर ऐसा होता है तो डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत और नीचे जाएगी। इसलिए जाहिर है भारत में भी RBI रेपो रेट को और बढ़ाएगा। यानि भारत के आम जनता को किस्तों में और इज़ाफ़ा के लिए तैयार रहना होगा।
अर्थ-नीतियों की समीक्षा की जरूरत
रेपो रेट के इज़ाफ़ा से महंगाई और मुद्रास्फीति पर थोड़ा बहुत नियंत्रण जरूर पाया जा सकता है पर यही समस्या का सपूर्ण निदान है, तो ऐसा नहीं है। रेपो रेट में परिवर्तन का सीधा असर विकास की रफ्तार पर पड़ता है।
अभी RBI ने जब इन दरों में इज़ाफ़ा किया है तो उसके साथ ही भारत के इस वित्तीय वर्ष में अनुमानित विकास दर में भी कटौती की है। पहले यह विकास दर 7.2% था जिसे घटाकर अब 7% आंका गया है। अभी इस पर भी संदेह है कि क्या आने वाले दिनों मे वास्तविक विकास दर यह 7% भी रह पाएगा या नहीं।
इसके लिए सरकार को अपनी नीतियों में अल्पकालिक और दीर्घकालिक-दोनों तरह के कुशल प्रबंधन की आवश्यकता है। हालांकि सरकार ने वित्तीय घाटे को कम रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में ठीक ठाक गिरावट के बावजूद देश मे ईंधन की कीमत में कोई कमी नही की है। परंतु इन बातों का ज्यादा प्रभाव दिख नहीं रहा है।
असल मे अब भारत के बाजार में विदेशों से ज्यादा निवेश नहीं आ रहा है। उद्योग जगत का भारत के जीडीपी में योगदान बहुत कम हो गया है। अब यह आत्मनिर्भर भारत या Make In India जैसी नीतियों को लेकर विदेशी निवेशकों के असमंजस के कारण है, इसे लेकर सरकार को अपनी नीतियों की समीक्षा और गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
नए रोजगार के अवसर उत्पन्न नही हो रहे है। महँगाई और बेरोजगारी का दोहरा मार से जनता के पास खर्च करने की क्षमता कम होते जा रही है। विदेशी मुद्रा भंडार में भी लगातार कमी आ रही है। यह सब वो मुद्दे हैं जिसे लेकर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
सरकार का हर नुमाइंदा यह दावा करता है कि भारत के निर्यात में तेजी से बढ़ोतरी हुई है; लेकिन स्थिति इसके उलट है और इन दावों की पोल खुल रही है। साधारण सी बात है कि निर्यात अगर बढ़ रहा होता तो ना तो व्यापार घाटा इतना ज्यादा बढ़ता, ना ही निवेश लाने और निवेशकों को भारतीय बाज़ार की तरफ़ आकर्षित करने में इतनी समस्या होती।
भारत की IT कंपनियां लगातार अपने कर्मचारियों की छँटनी के बहाने तलाश रही हैं, जिसका स्पष्ट मतलब है कि इन कंपनियों को जिन्हें पहले बाहर के बाजारों से काम मिल रहे थे, अब वह भी संकट का सामना कर रहे हैं।
कुल मिलाकर आज भारत के अर्थव्यवस्था और इसे चलाने वाले सरकार के अधिकारियों और मंत्रियों के सामने मामला जटिल है। इसका एक रणनीतिक तरीके से सम्पूर्ण समाधान निकालना चाहिए।
रेपो रेट में बढ़ोतरी एक तात्कालिक राहत देने वाली बात हो सकती है, लेकिन क्या इस से सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को एक जटिल कुचक्र में जाने से बचाया जा सकता है, तो जवाब है नहीं।