हिज़ाब-विवाद (Hijab Row): इस वक़्त जब दुनिया कोविड-19 के महामारी के बाद उत्पन्न महँगाई, बेरोजगारी और ग़रीबी से एक नई लड़ाई में जूझ रही है और इसका सबसे बड़ा असर दुनिया भर की महिलाओं के उपर पड़ा है; इसी समय दुनिया के कई हिस्सों में महिलाएं हिज़ाब विवाद को लेकर सड़क से लेकर सरकार और कोर्ट तक का दरवाजा खटखटा रही हैं।
ईरान में 22 वर्षीय महसा अमिनी की मौत के बाद महिलाएं हिज़ाब जलाकर, बालों को काटकर और सरकार विरोधी नारे लगाकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रही हैं।
Iranian women chop off hair, burn hijabs to mark protest over death of Mahsa Amini
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— ANI Digital (@ani_digital) September 19, 2022
हिज़ाब-विवाद और ईरान की स्थिति
1979 में इस्लामी क्रांति के बाद ईरान में महिलाओं पर पाबंदी बढ़ा दी गई है। महिलाओं द्वारा कपड़े पहनने के लिए भी गाइडलाइंस हैं। जैसे – नौ साल से अधिक उम्र की लड़कियाँ व महिलाएं सार्वजनिक स्थान पर सिर ढकने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य हैं।
1981 से ईरान में हिज़ाब पहनना अनिवार्य है। महिलाएं माथे पर स्कार्फ और ढीले कपड़ों में ही सार्वजनिक स्थान पर जा सकती हैं। अगर कपड़े या हिज़ाब से सबंधित नियमों के उलंघन होता है तो उलंघनकर्ता पर 50,000 से लेकर 500,000 रियाल तक का जुर्माना और 2-12 महीने तक के कारावास का प्रावधान है।
कुछ दिन पहले 22 वर्षीय महसा अमिनी की मौत पुलिस कस्टडी में उस समय हो गई थी जब उन्हें ठीक ढंग से हिज़ाब न पहनने के जुर्म में धार्मिक मामलों की पुलिस (Morality Police) द्वारा गिरफ्तार किया गया था।
पुलिस पर आरोप है कि गिरफ्तारी के बाद अमिनी को वैन में ही इतना पीटा गया कि वह डिटेंशन सेन्टर में पूछ-ताछ के दौरान गिर पड़ी और कोमा में चली गई। डिटेंशन सेन्टर में अमिनी के भाई भी उनके साथ मौजूद थे। उन्हें अस्पताल ले जाया गया और वहाँ उनकी मौत हो गई। वहीं पुलिस का दावा है कि अमिनी पूछताछ के दौरान गिर गई जिसके बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया।
रविवार को अमिनी के परिवार से ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने बात-चीत की है। इब्राहिम रईसी ने अगस्त 2021 में सत्ता संभालने के बाद से देश मे ड्रेस कोड को लेकर सख्ती बढाई है। रईसी को कट्टरपंथी विचारधारा का माना जाता है और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने हमेशा उन्हें सवालों के घेरे में रखा है। रईसी हिज़ाब विरोधी आंदोलन को ‘इस्लाम में नैतिक भ्रस्टाचार का एक संगठित प्रचार’ मानते हैं।
मीडिया रिपोर्ट (इंडिया टाइम्स) के हवाले से यह दावा किया गया है कि रईसी के पद संभालने के बाद से ईरान में अब तक 18 महिलाओं को फांसी दी जा चुकी है। पिछले कुछ माह से उनके सख्त ड्रेस कोड वाली नीतियों के कारण महिलाओं के गिरफ्तारी के मामले बढ़े हैं।
इसी वजह से ईरान में लगातार विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, हिज़ाब जलाए जा रहे हैं, बालों को काटकर प्रतीकात्मक विरोध का संदेश दे रही हैं और आक्रोशित होकर सड़को पर आंदोलन कर रही हैं। इन महिलाओं का कहना है कि हिजाब पहनना है या नहीं, यह कोई सरकार जबर्दस्ती उनपर नही थोप सकती।
भारत में क्या है विवाद
दूसरी तरफ़ भारत में भी हिजाब विवाद ड्रेस कोड को लेकर ही उभरा है। इस वर्ष के शुरुआती दिनों में कर्नाटक के स्कूलों में मुस्लिम छात्राओं को हिज़ाब पहनकर स्कूल में आने से स्कूल प्रसाशन द्वारा रोक लगा दिया गया था। जिसके बाद मामला कर्नाटक के स्थानीय मुद्दों से बढ़कर आज सुप्रीम कोर्ट तक का सफ़र तय कर चुका है।
भारत मे इस हिजाब विवाद पर देश के सबसे बड़े न्यायालय माननीय सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी हो चुकी है लेकिन फैसला अभी भी लंबित है। इस घटना के विस्तृत व विश्लेषित रिपोर्ट द इंडियन वायर ने इस साल के शुरुआत में किये हैं, जिसे पढ़ा जा सकता है।
एक ही हिज़ाब का कहीं विरोध, कहीं समर्थन क्यों
अब दोनों घटनाओं को समानांतर रख कर देखा जाए तो एक तरफ़ ईरान है जहाँ महिलाएं सरकार से कह रही है कि उन्हें हिज़ाब नहीं पहनना है और उनके उपर इस्लाम के नाम पर हिज़ाब थोपा न जाये। वहीं दूसरी तरफ़ भारत मे सरकार और स्कूल प्रबंधन कहती है कि हिज़ाब पहनकर स्कूल ना आएं, तो इसका विरोध होता है और मामला हाई कोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया है।
पर क्या यह सब इतना स्पष्ट और सीधा है? आखिर एक ही हिजाब को लेकर एक ही धर्म को मानने वाली ये महिलाएं ईरान और इंडिया में बिल्कुल उलट माँग क्यों रख रही हैं? एक ही हिज़ाब का कहीं विरोध तो कहीं समर्थन क्यों है?
असल मे मामला इतना सरल नहीं है। भारत के कई दक्षिणपंथी मीडिया घराने भी इस हिज़ाब-विवाद को बिल्कुल ऐसे ही तुलनात्मक रूप से रख रहें है जैसे अभी ऊपर हमने रखा है और सुप्रीम कोर्ट के सुनवाई के बावजूद और आने वाले फैसले की प्रतीक्षा किये बगैर अप्रत्यक्ष रूप से यह साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे कि भारत मे मुस्लिम समुदाय ने हिज़ाब को लेकर जो रुख अख्तियार किया हुआ है, वह सरासर गलत है।
लेकिन अंग्रेजी में कहते है ना कि “There is always a gray part between black & White.” इस विवाद को लेकर जो ईरान में हो रहा है और जो भारत मे हो रहा है, उसके संदर्भ में यह पंक्ति एकदम उचित है।
असल मे मामला दोनों जगह आज़ादी का ही है- आज़ादी इस बात की कि महिलाएं क्या पहनें, यह खुद महिलाएं ही तय करेंगी; कोई सरकार उनपर यह ना थोपे कि उन्हें क्या पहनना चाहिए, क्या नहीं। 21वीं सदी की दुनिया मे जहाँ महिलाएं पुरुषों के बराबर कदम से कदम मिलाकर बढ़ रही हैं, ऐसे में उनके पहनावे-ओढ़ावे को लेकर इस तरह का जबर्दस्ती वाले कानून निश्चित ही अग्रोन्मुख कदम नहीं कहे जा सकते हैं।
हालांकि, भारत मे इस विवाद के दूसरे आयाम भी है। मुस्लिम पक्ष का आरोप है कि यह अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम) के ख़िलाफ़ एक सोची-समझी साजिश है कि एक-एक कर उनके मान्यताओं, उनके धार्मिक प्रतीकों आदि पर चोट की जा रही है।
हिज़ाब विवाद के साथ ही कर्नाटक में ही हलाल मीट को लेकर भी विवाद उभरा था जिसे लेकर भी राजनीति और धार्मिक सद्भाव उद्वेलित हुआ था। इसी साल रामनवमी के दौरान कर्नाटक के कई मंदिरों में वर्षों से व्यवसाय चला रहे मुस्लिम दुकानदारों को अपनी दुकानें बंद करने के निर्देश कई मंदिर प्रशासनों द्वारा जारी किया गया था।
इसलिए मुस्लिम पक्षकारों की मांग है कि कर्नाटक हिज़ाब विवाद को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। फिलहाल फैसला न्यायालय के पास सुरक्षित है और आगामी कुछ दिनों में सार्वजनिक किया जाएगा। मुस्लिम पक्षकारों के इन बातों में कितना दम है, यह कोर्ट के फैसले के पन्नों में ही पढ़ा जाए तो बेहतर है।
खैर, ईरान हो या भारत, महिलाओं को क्या पहनना चाहिए क्या नहीं, यह निश्चित तौर महिला के निजी अधिकार होने चाहिए और इसे लेकर कहीं भी किसी भी सरकार को धर्म या किसी अन्य आधार पर थोपा जाना निजता के अधिकार साथ-साथ मानवाधिकार का भी उलंघन माना जाना चाहिए।
Good one