केंद्र में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं द्वारा दिए गए विवादास्पद बयान को लेकर उठा बवंडर (Prophet Muhammad Row) शायद पहला मौका है जब किसी भारतीय TV चैनल के डिबेट के कारण भारत के लोकतांत्रिक क्षवि को पूरी दुनिया के स्तर पर गहरा नुकसान पहुंचा है।
हालांकि, भारत मे प्राइम टाइम डिबेट के नाम पर होने वाले TV डिबेट्स कितने खतरनाक हैं, यह कोई रहस्यमयी बात नहीं है। परंतु अभी तक ये सब देश की सीमा के भीतर तक ही सीमित रहता था। अबकी बार उठे विवाद (Prophet Muhammad Row) ने देश के भीतर और बाहर दोनों तरफ़ भारत का एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के स्वरूप के लिए एक विकट स्थिति उत्पन्न कर दी है।
#WATCH | Stones hurled during clashes in Atala area of UP’s Prayagaraj over controversial remarks of suspended BJP leader Nupur Sharma and expelled BJP leader Naveen Kumar Jindal. pic.twitter.com/fZGmQYezs7
— ANI UP/Uttarakhand (@ANINewsUP) June 10, 2022
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत मे देश का संविधान सभी धर्मों व वर्गों को आपसी सौहार्द और समरसता के साथ जीने का अधिकार सुनिश्चित करता है। सभी धर्म के अनुयायियों को यह आज़ादी है कि वे अपने अपने धर्म का व धार्मिक मान्यताओं का प्रचार-प्रसार करें परन्तु इसी संविधान ने एक लक्ष्मण रेखा भी तय की है ताकि समाज और देश की अखंडता व आपसी सौहार्द को नुकसान न पहुंचे।
इन संवैधानिक मूल्यों ने सभी धर्मों की उपासना व उसके प्रचार प्रसार की स्वंतत्रता के साथ साथ आपसी सौहार्द को बनाये रखने की जिम्मेदारी सरकारों और उसके अन्य तंत्र- कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया आदि को दी है।
उपरोक्त जिम्मेदारी जिन संस्थाओं पर दी गई है, अक्सर वही लोग थोड़े से नफा-नुकसान के लिए अपनी सीमाएं भूल जाते है जिसके बाद पूरे देश को एक असहज स्थिति में डाल दिया जाता है। यह बात चिंता की भी है और खतरे की घंटी भी… कि अगर समय रहते ना चेता गया तो पानी सर के ऊपर जा सकता है।
भारत के सविधान निर्माताओं ने एक ऐसे बहुधर्मी भारत की तस्वीर खींची थी जिसमें अनेकता के बावजूद एकता हो। ऐसा शायद इसलिए कि हमारे पूर्वज धर्म की कीमत पर राष्ट्र को दो हिस्सों में बांटे जाने और उसके बाद के धार्मिक उन्माद और धर्म के आधार पर मचे नरसंहार आदि के दर्द को दिल-ओ-दिमाग-दिमाग में लेकर संविधान का निर्माण कर रहे होंगे।
परंतु उसके बाद इन भारत के एक बहुधर्मी पंथ-निरपेक्ष लोकतंत्र की तस्वीरों में रंग भरने की जिम्मेदारी आगे की पीढियों पर थी। इन नई पीढ़ी में बार-बार धार्मिक उन्माद और आपसी टकराव सामने दृष्टिगोचर हुए लेकिन इन्ही लोकतांत्रिक मूल्यों में हर बार इस आग को बुझाने का काम किया।
आज की स्थिति इन पुराने विवादों से थोड़ी अलग है। अलग इसलिए क्योंकि आज का भारत सूचनातंत्र के ऐसे जाल में फंसा हुआ है जहां सोशल मीडिया और मेन स्ट्रीम मीडिया की पहुँच अंतिम कोने के जनमानस तक है।
ऐसे में उन जिम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्ति की जिम्मेदारी कई गुना ज्यादा बढ़ गयी है कि वो जो भी बोलें या लिखें, कुछ ऐसा ना हो जिस से एक दूसरे की भावनाओ को नीचा दिखाया जाए। चाहे वह सोशल मीडिया कब धुरंधर हों या फिर प्रमुख मीडिया संस्थानों के लोग।
आज भारत की चुनौतियां भी अलग है। जिस इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (IT) की क्रांति ने भारत को दुनिया के शीर्ष पर पहुंचाने के ख्वाब दिखाया है, उसी IT और इंटरनेट की दुनिया ने कई नई चुनौतियां भी सामने रखीं है। उदाहरणार्थ एक पार्टी का प्रवक्ता ने TV डिबेट में कुछ आपत्तिजनक बातें कहीं जो मिनटों में न सिर्फ देश के भीतर बल्कि बाहर भी फैल गई जिसके बाद भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर असहज महसूस करवाया गया।
मेरा मानना है कि नूपुर शर्मा, इसी विवाद (Prophet Muhammad Row) में वह महज एक जरिया बनी हैं एक विचारधारा को दुनिया के नजरो में लाने की जो TV पर बैठकर आम जन के भीतर हर शाम धार्मिक उन्माद भरता है। वरना आप पिछले 5-7 सालों के TV डिबेट्स उठा कर देखिये, गिने चुने संस्थानों को छोड दें हर तरफ़ हवा में जहर घोला जा रहा है।
इसके लिए एक प्रवक्ता या एक TV चैनल भर जिम्मेदार नहीं है बल्कि TRP और विज्ञापन के खेल में एक बहुत बड़ा समूह इसी एजेंडे पर काम करता है। इसी विवाद को देखें तो सिर्फ नूपुर शर्मा ही दोषी क्यों बने? क्या उस डिबेट के एंकर ने अपनी जिम्मेदारी निभाई है? और अगर नहीं तो ऐसे चैनल और प्रवक्ताओं पर कार्रवाई कब होगी?
मिडिया के रिपोर्टिंग किस हद तक पातालगामी है इसका उदाहरण कई मुद्दों पर देखने को मिला है। अभी कोरोना वायरस के पहले लहर के दौरान तब्लीगी जमात वाले वाकये पर TV पत्रकारों ने जो रिपोर्टिंग की, क्या सरकार ने उन सब पर कोई एक्शन लिया? क्या किसी भी ऐसे चैनल ने अपनी गलती के लिए बाद में माफ़ी मांगी?
इस देश ने मीडिया के धुरंधरों द्वारा जिहाद के ऐसे कई प्रारूपों को TV पर समझा है जिसे न्यूज या मुद्दा तो कतई नहीं कह सकते। UPSC जिहाद जैसे रिपोर्ट्स को ऐसे बेचे गए जैसे मानो कोई विकीलीक्स की फ़ाइल हाँथ लग गयी हो… क्या इन धुरंधरों पर कोई कार्रवाई हुई? जवाब है- “नहीं”।
इसके उलट इन पत्रकारों की देश के प्रधानमंत्री और ऐसे बड़े जिम्मेदार लोगों के साथ तस्वीरें सोशल मीडिया पर लगातार आती हैं जिसे यह पत्रकार अपनी लोकप्रियता की नजीर बनाकर भोली आम जनता के आगे परोस देती है।
अभी “कौन बनेगा करोड़पति (KBC)” में एक प्रतिभागी ने 2000 रुपये के नोट में चिप लगे होने का दावा कर के अपने इनाम राशि का नुकसान करवाया। जब पूछा गया तो जवाब था एक मशहूर पत्रकार ने अपने TV शो में बताया था। ऐसे तमाम उदाहरण इस बात के संकेत हैं कि इन बेबुनियादी खबरों का आम जन-मानस के बौद्धिक भंडार पर और उनकी भावनाओं पर कैसे असर पड़ता है।
प्रेस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर हर शाम को हो रहे डिबेट्स अब एक ऐसे स्तर पर पहुंच गए हैं जहां से वापसी का रास्ता बहुत मुश्किल है। इसलिए यह जरूरी है कि इन प्रवक्ताओं और ऐसे TV डिबेट्स पर नकेल कसें जाएं।
सविधान ने प्रेस/व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरूर दी है लेकिन वही संविधान इस स्वतंत्रता पर जरूरी लगाम भी देता है। हम सब एक नागरिक के नाते – चाहे कोई TV पत्रकार हो, या प्रवक्ता हो या आम जन मानस- अपने सवैधानिक अधिकारों को लेकर जरूर सजग होते हैं पर उसी समय संवैधानिक कर्तव्यों को ताखे पर रख देते हैं।
यह शर्मनाक और अफसोसजनक है कि 21वीं सदी के जिस भारत ने “विश्वगुरु” और “5 ट्रिलियन” वाले अर्थतंत्र का ख्वाब देखा है, वह गरीबी, बेरोजगारीी, बेताहाशा महँगाई, प्रदूषित पर्यावरण आदि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों के ऊपर धर्म और संप्रदाय की लड़ाई में उलझा हुआ है।
इस साल (2022) के शुरू से ही एक तरफ़ रुपया और इकोनॉमी लगातार बुरी हालात से गुजर रहे हैं वहीं मीडिया में मुद्दा हिजाब, हलाल, लाउडस्पीकर, शिवलिंग या फव्वारा आदि मुद्दे छाए हैं। इन डिबेट्स में भी प्रवक्ताओं की कोशिश अपने धार्मिक मूल्यों के प्रचार या बचाव की नहीं बल्कि दूसरे धर्म की अवहेलना की ज्यादा है। नूपुर शर्मा के बयान से उत्पन्न विवाद ( Prophet Muhammad Row) भी इसी कड़ी का हिस्सा है।
यहाँ यह चर्चा भी बेहद जरूरी है कि यह सच हो सकता है कि इन प्रवक्ताओं के बयान से लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हुई होंगी। लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि आहत भावनाओं के नाम पर धार्मिक उन्माद, गुंडागर्दी और तोड़ फोड़ की जाए।
अगर नूपुर शर्मा या कोई भी ऐसी बात करता है तो देश की कानून उनको उचित सजा देने में सक्षम है परंतु इन बयानों को आधार मानकर कोई भी कानून व्यवस्था को अपने हाँथ में ले, यह भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है।
जिस पैगम्बर मुहम्मद साहब के ऊपर कथित टिप्पणी को लेकर जगह-जगह दंगे, पथराव आगजनी आदि हो रहे हैं , सच्चे अर्थों में उनका यह कृत्य उन्ही पैगम्बर मुहम्मद साहब के उसूलों के खिलाफ है।
अतः स्पष्ट है कि सरकारों और मीडिया संस्थानों को दोनों पक्षों पर निष्पक्ष होकर एक लक्ष्मण रेखा तय करना होगा और जो भी इस लक्ष्मण रेखा को पार करे, उस पर कठिन से कठिन कार्रवाई हो। मीडिया जगत के लिए एक नियंत्रक कमिटी हो जो इन TV डिबेट्स को समाज मे जहर घोलने से रोके।
सवाल एक प्रवक्ता या एक मीडिया संस्थान को निलंबित या बैन करने तक सीमित नहीं है, बल्कि सवाल उंस विचारधारा को मन-मष्तिष्क से निकालने की है जो भारत की “मज़हब नही सिखाता, आपस मे वैर करना” और “है प्रीत जहां की रीत सदा…” जैसी बुनियाद को खतरा पहुंचाता है।
कुल मिलाकर यह एक समाज के तौर पर हम सब की जिम्मेदारी है कि देश की अखंडता और एकता को कोई दाग न लगे। क्योंकि राष्ट्र सिर्फ मानचित्र का विषय नही होता बल्कि राष्ट्र उंस देश के भीतर रहने वाले लोगों के मन-चित्र का विषय होता है।
ऐसे प्रवक्ताओं और उपद्रवियों के लिए अभिनेता आशुतोष राणा की कुछ पंक्तियां हैं, जिसे पढ़ना चाहिए:-
“बांट दिया इस धरती को, क्या चांद-सितारों का होगा।
नदियों के कुछ नाम रखे, बहती धारों का क्या होगा?शिव की गंगा भी पानी है, आबे-जमजम भी पानी है।
मुल्ला भी पिये, पंडित भी पिये, पानी का मजहब क्या होगा?इन फिरका-परस्तों से पूछो, क्या सूरज अलग बनाओगे..
एक हवा में सांस है सबकी, क्या हवा भी नई चलाओगे?नस्लों का करे जो बंटवारा, रहबर वो कौम का ढोंगी है..
क्या खुदा ने मंदिर तोड़ा था, या राम ने मस्जिद तोड़ी है ??
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