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    एक्टिविस्ट फादर स्टेन स्वाम़ी का सोमवार को निधन हो गया। उनकी उम्र 84 साल थी और उनकी मौत की वजह कार्डियक अरेस्ट बताई जा रही है। दोपहर करीब 1.30 बजे बांबे हाई कोर्ट को उनकी मौत की सूचना दी गई। फादर स्टेन स्वामी भीमा कोरेगांव हिंसा से जुड़े मामले में गिरफ्तार हुए थे। उन्हें तलोजा सेंट्रल जेल में रखा गया था। यहां स्वामी और एल्गर केस मे उनके साथी बंदी लगातार खराब स्वास्थ्य सुविधाओं की शिकायत कर रहे थे। इसके बाद ही 29 मई को बांबे हाई कोर्ट के निर्देश पर उन्हें होली फैमिली हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया था।

    स्वामी स्टेन ने हाल ही में कोविड—19 को मात दी थी। लेकिन इसके बाद उनकी हालत लगातार खराब ही रही। होली फैमिली हॉस्पिटल में भी उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया था। पिछले हफ्ते ही स्वामी ने हाई कोर्ट में एक अपील दाखिल की थी। इसमें उन्होंने यूएपीए के सेक्शन 43डी—5 को चैलेंज किया था। वहीं राष्ट्रीय मानवाधिका आयोग ने रविवार को महाराष्ट्र सरकार को एक नोटिस भी इश्यू किया था। इसमें स्वामी के खराब स्वास्थ्य हालात को लेकर शिकायत की गई थी।

    2020 में हुए थे गिरफ्तार

    गौरतलब है कि राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी ने फादर स्टेन स्वामी को अक्टूबर 2020 में गिरफ्तार किया था। 31 दिसंबर 2017 को पुणे के एलगार परिषद के कार्यक्रम में उन्होंने भाषण दिया था। इन्हीं को आधार बनाते हुए स्टेन स्वामी के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ था। गौरतलब है कि इस कार्यक्रम के एक दिन बाद ही भीमा कोरेगांव में जबर्दस्त हिंसा हुई थी और कई लोगों ने अपनी जान गंवा दी थी।

    डायन-बिसाही मामले में स्वामी का अहम योगदान

    स्टेनिस्लॉस लोर्दूस्वामी उर्फ फादर स्टेन स्वामी एक रोमन कैथोलिक पादरी थे, जिनका जीवन 1990 के दशक से ही झारखंड के आदिवासियों और वंचितों के अधिकारों के लिए काम करने के लिए समर्पित रहा। डायन-बिसाही के मामले में उन्होंने गांवों में जगारुकता फैलाने की कोशिश की। खासकर चाईबासा और उसके आसपास के जिलों में बेहतरीन काम हुए। झारखंड में आदिवासियों के लिए एक कार्यकर्ता के रूप में करीब 30 साल पहले उन्होंने काम करना शुरू किया था। हाशिए पर रहने वाले उन आदिवासियों के लिए भी काम किया, जिनकी जमीन का बांध, खदान और विकास के नाम पर बिना उनकी सहमति के अधिग्रहण कर लिया जाता था।

    तमिलनाडु से झारखंड तक का सफर

    स्टेन स्वामी का जन्म 26 अप्रैल 1937 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में हुआ था। उनके जाननेवालों के अनुसार उन्होंने थियोलॉजी और मनीला विश्वविद्यालय से 1970 के दशक में समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की। बाद में उन्होंने ब्रसेल्स में भी पढ़ाई की, जहां उनकी दोस्ती आर्चबिशप होल्डर कामरा से हुई, जिनके ब्राजील के गरीबों के लिए काम ने उन्हें काफी प्रभावित किया। बाद में उन्होंने 1975 से 1986 तक बेंगलुरू स्थित इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट के निदेशक के तौर पर काम किया। चाईबासा में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता दामू वानरा ने बताया कि समाजशास्त्र से एमए करने के बाद कैथोलिक्स के चलाए जा रहे बेंगलुरू स्थित इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट में निदेशक के तौर पर काम करने के दौरान ही स्टेन स्वामी झारखंड के चाईबासा आने लगे। उन्होंने गरीबों और वंचितों के साथ रह कर उनके जीवन को नजदीक से देखने और समझने की कोशिश की।

    झारखंड आए तो चाईबासा का होकर रह गए

    इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट से 1986 में रिटायर होने के बाद स्टेन स्वामी चाईबासा में ही स्थाई तौर पर रहने लगे। ‘बिरसा’ नाम के एनजीओ के जरिए मुख्य रूप से मिशनरी के सामाजिक कार्य के लिए ‘जोहार’ नाम से एनजीओ की शुरुआत की। बाद में वो रांची के नामकुम में जाकर रहने लगे और चाईबासा में कभी-कभी जाते थे। फादर स्टेन स्वामी झारखंड आर्गेनाइजेशन अगेंस्ट यूरेनियम रेडियेशन से भी जुड़े रहे, जिसने 1996 में यूरेनियम कॉरपोरेशन के खिलाफ आंदोलन चलाया था, जिसके बाद चाईबासा में बांध बनाने का काम रोक दिया गया। वर्ष 2010 में फादर स्टेन स्वामी की ‘जेल में बंद कैदियों का सच’ नाम की किताब प्रकाशित हुई, जिसमें इस बात की चर्चा थी कि कैसे आदिवासी नौजवानों को नक्सली होने के झूठे आरोपों में जेल में डाला गया।

    By आदित्य सिंह

    दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास का छात्र। खासतौर पर इतिहास, साहित्य और राजनीति में रुचि।

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