“राम” सिर्फ एक नाम नहीं है, “राम” सिर्फ एक आस्था का धाम नहीं है, “राम” अपने आप में एक धर्म है, “राम” जीवन का सबसे बड़ा कर्म है। शायद ऐसा ही मानकर हिंदुस्तान में करोड़ों लोग अपना जीवन जीते है, लेकिन जब उनकी आस्था पर सवाल उठया जाता है, उनके आराध्य देवों के साथ और उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जाता है, तो विध्वंश होता है जिसका परिणाम पूरा विश्व 1992 में देख चूका है। अब आखिर मुद्दा भी तो कुछ इस प्रकार का है कि अगर किसी एक समुदाय के पक्ष में बोले तो दूसरा समुदाय बुरा मान जाता है, शायद इसीलिए ऐसे मुद्दों को राजनीती से दूर रखना चाहिए। वह कहते है ना “ कि ना जाने कब नीली सियाही का रंग लाल हो गया, अब कौन, कैसे, क्या लिखता है यह भी सवाल हो गया” कुछ इसी तरह का हाल पत्रकारिता का भी इस विषय को लेकर हो गया है।
दरअसल, राममंदिर का विवाद अब सुप्रीम कोर्ट तक जा चूका है, परन्तु हाल अब भी वैसे का वैसे ही बना हुआ है, धर्म से जुड़े बड़े बड़े ज्ञानी लोग अपना मत लेकर इस विषय को सुलझाने को लेकर मध्य आ चुके है। अब इस सूचि में नया नाम जुड़ा है, आध्यात्मिक नेता श्री श्री रविशंकर जो अब मध्यस्थता का चोला पहनकर सालों से चल रहे इस विवाद को सुलझाने चले है। इस बात पर विश्व हिन्दू परिषद के महासचिव चंपत राय ने कहा कि ‘‘उन्होंने (रविशंकर) हमसे इस मामले पर चर्चा नहीं की है, यदि वह मध्यस्थता कर रहे हैं तो वह अपने निजी स्तर पर कर रहे हैं, विहिप का उससे कोई लेना-देना नहीं है”। उन्होंने आगे कहते हुए बोला कि “यह चार-पांच पक्षों के बीच का विवाद नहीं है बल्कि दो समुदायों के बीच का विवाद है, श्री श्री रविशंकर को रामजन्मभूमि विवाद में नहीं पड़ना चाहिए”।
विश्व हिन्दू परिषद की ओर से इस प्रकार का बयान आना साफ तौर पर दर्शाता है कि यह मुद्दा कितना संवेदनशील है, और वह नहीं चाहते कि कोई भी इस मुद्दे में हस्तक्षेप करें।