एक ऐसा युद्ध जिसमें हारने वाले राजा ने भी इतिहास में अपने आप को अमर कर दिया। एक ऐसा युद्ध जो मध्यकालीन भारत का इतिहास में एक अलग औरा रखता है। जी हां! हम बात कर रहे हैं महाराणा प्रताप और मुगलों के मध्य लड़े गए हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में।
यूँ तो हल्दीघाटी का युद्ध इतना महत्वपूर्ण है कि लगभग आप सभी ने कुछ न कुछ पढ़ा होगा, लेकिन हमें लगता है कि अभी बहुत कुछ है जो आप को जानना चाहिए। क्योंकि हल्दीघाटी का युद्ध एक ऐसा युद्ध है जिसपर एक भारतीय होने के नाते इस बात का दुख तो होता है कि भारतीय राजा हार जाता है।
लेकिन इस बात से सीना गर्व से ऊँचा हो जाता है कि भारतीय राजा ने मुगलों की पराधीनता स्वीकार करने के बजाय युद्ध को ज्यादा बेहतर समझा था। तो चलिए, ले चलते हैं आपको आज से ठीक 450 साल पहले के भारतवर्ष में…
साल 1568 तक भारतवर्ष पर मुगलों का बोल-बाला हो चुका था। बंगाल और मध्य भारत से लेकर संपूर्ण पंजाब और पाकिस्तान का क्षेत्र मुगलों के अधीन हो चुके थे। दिल्ली की गद्दी पर अकबर के काबिल होते ही उसने इन क्षेत्रों के राजाओं को अपने अधीन होने पर मजबूर कर दिया था। इनमें से कई जगहों पर उसका प्रत्यक्ष शासन चल रहा था तो कई जगहों के राजा-महाराजा ही अकबर की पराधीनता स्वीकाते हुए अपना राज्य चला रहे थे। राजस्थान के ज्यादातर राजाओं ने अकबर की अधीनता को स्वीकार कर लिया था।
उसके अधीन रहकर ही अपना राज चला रहे थे, लेकिन इन सबके बीच एक ऐसे भी थे जिन्होंने अकबर की पराधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया था। और वो थे मेवाड़ के राजा औऱ महाराणा प्रताप के पिता, महाराणा उदय सिंह।
अकबर मेवाड़ से पहले से ही काफी चिढ़ा हुआ था, क्योंकि एक तो मेवाड़ दूसरे राज्यों की तुलना में काफी छोटा राज्य होने के बावजूद उसकी पराधीनता स्वीकार नहीं कर रहा था। और दूसरा यह कि अकबर को गुजरात पर हमला करना था लेकिन मेवाड़ भौगोलिक रूप से अकबर के लिए रास्ते का रोड़ा बना हुआ था। इसके अलावा अकबर को एक बात और चिढ़ाती थी कि मेवाड़ वही धरती है जिसने राणा कुंभा, राणा सांगा और उदय सिंह जैसे तमाम वीरों को पैदा किया था। जिन्होंने मुगलों को नाकों चने चबाने पर मजबूर किया था।
सन 1972 में महाराणा उदय सिंह के बाद महाराणा प्रताप को राजा बना दिया गया। अब महाराणा अकबर को लगने लगा कि महाराणा प्रताप उसकी अधीनता स्वीकार कर लेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। महाराणा प्रताप ने अपने पिता उदय सिंह का निर्णय पर अमल रहने का निर्णय किया था। और अधीनता स्वीकार करने से सीधे सीधे मना कर दिया।
एक बात तो तय है कि अकबर, महाराणा प्रताप से युद्ध नहीं करना चाहता था। क्योंकि उसे पता था कि अगर युद्ध हुआ तो उसमें काफी जान-माल का नुकसान होगा। इसलिए उसने शांति ढंग से महाराणा को अपने अधीन हो जाने के लिए एक के बाद एक करके आठ शांति दूतों को महाराणा प्रताप के पास भेजा। फिर भी बात नहीं बनती देख उसने महाराणा प्रताप के घर की किसी राजकुमारी से विवाह करने का प्रस्ताव तक दे दिया।
दरअसल अकबर की विस्तार नीतियों में से एक नीति यह भी शामिल थी कि जो राजा उसके अधीन होने से मना कर देते थे तो युद्ध को टालने के लिए वो उनके राजघराने की किसी राजकुमारी से शादी कर लेता तब वह राज्य स्वतः ही उसके अधीन हो जाया करते थे। अबतक वो कई राजपूत राजाओं के साथ ऐसा कर चुका था। लेकिन इस बार उसका ये दांव भी नही चल पाया। क्योंकि महाराणा प्रताप ने अपने राजघराने की किसी भी राजकुमारी का विवाह अकबर से कराने के प्रस्ताव को भी सिरे से खारिज कर दिया।
अब अकबर के पास युद्ध करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था। लेकिन फिर भी वह युद्ध में अपनी सेना नहीं भेजना चाहता था। जैसा कि आप सभी को पता होगी अकबर बड़ा चालबाज किस्म का राजा था। उसने यह भी एक चाल चली। उस चाल के हिसाब से उसने महाराणा प्रताप से युद्ध करने का निर्णय तो लिया, लेकिन प्रत्यक्ष रुप से नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से। हुआ यह कि अकबर ने अपने पैसे और कूटनीति के दम पर उस समय के पराक्रमी राजा परंतु पर अकबर के अधीन होकर आमेर (जोधपुर) पर राज करने वाले राजा मानसिंह से मेवाड़ पर हमला करवा दिया। इससे हुआ यह कि मुगलों ने मेवाड़ पर अटैक तो कर दिया, लेकिन अकबर को अपनी कोई सेना नहीं भेजनी पड़ी। महाराणा प्रताप ने भी कूटनीति अपनाई और अकबर से परेशान हो चुके पाकिस्तान और ग्वालियर सहित तमाम छोटे-छोटे राजाओं को अपने साथ ले लिया। लेकिन फिर भी मान सिंह केकेके सेना महाराणा प्रताप की सेना से 4 गुना ज्यादा थी। लेकिन इतनी कम सेना होने के बावजूद भी अकबर खुद से युद्ध में नही कूदा और गोकुण्डा से ही अपना राज चलता रहा।
मानसिंह की सेना ने मेवाड़ की तरफ कूच कर दिया। और तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरे हल्दीघाटी के पास अपना डेरा डाल दिया। मुगलों को अब भी लगता था कि महाराणा प्रताप इतनी सेना देखकर डर जाएंगे और दूसरे तमाम राजपूतों की तरह वह भी आत्मसमर्पण कर देंगे। लेकिन वो गलत थे। महाराणा प्रताप ने युद्ध करने के अपने निर्णय को कायम रखा।
मानसिंह की अगुवाई वाली अकबर की कुल सेना लगभग 80 से 90 हजार सैनिकों की थी। जबकि महाराणा प्रताप के पास कुल सेना 15 से 20 हज़ार सैनिक वाली थी। महाराणा प्रताप के साहस का अंदाजा लगाना इस बात से लगाया जा सकता है कि युद्ध के समय उनकी सामने वाले राजा की सेना की एक चौथाई भी नही थी फिर भी उन्होंने हार नही मानी और युद्ध लड़ने के अपने फैसले पर आगे बढ़ते रहे।
मान सिंह भी पूरी तैयारी के साथ था क्योंकि उसे पता था कि महाराणा प्रताप की सेना छोटी जरूर है लेकिन पराक्रमी भी बहुत ज्यादा है, तो संघर्ष बहुत तेज होने वाला है। एक तो मानसिंह अकबर की अधीनता स्वीकार करने वाले पराक्रमी राजाओं में से एक था दूसरा उसने अपनी दाहिने तरफ जनरल गाजी खान और बायीं तरफ जनरल राम लोंकारण को अपने साथ लिए हुए था। इसके अलावा उसके पास तमाम छोटी-छोटी टुकड़ियों के सेना पति और 600 धनुर्धारी भी थे। इसी साथ ही भारी मात्रा में उसके पास रिजर्व सेना भी थी। और सामने से थे, महाराणा प्रताप, जिनके दाहिनी तरफ थे ग्वालियर के राजा और दाहिनी तरफ थे-भीलों के सरदार।
और फिर वह दिन आया जब मानसिंह की अगुवाई वाली अकबर की सेना ने मेवाड़ पर चढ़ाई कर दिया। इसकी शुरुआत 18 जून 1576 से। जयघोष शुरू हो चुका था, दोनों सेनाए आपस में बस भिड़ने ही वाली थी। चूंकि मानसिंह की सेना ने मैदानी भाग में अपना डेरा डाला था तो पहाड़ी के पीछे का कोई अंदाजा नहीं था। उसने अपनी एक टुकड़ी को भेजा, जिसे महाराणा की सेना ने पूरी तरह कुचल दिया। अब महाराणा प्रताप और मानसिंह की नेतृत्व में सेनाएं एक दूसरे के सामने थी।
मध्यकालीन भारत में होने वाली लड़ाइयां उस तरह से नहीं लड़ी जाती थी, जिस तरह से आज हम टेलीविज़न और फिल्मों में देखते हैं। दरअसल अकबर और महाराणा प्रताप के जमाने में एक लाइन बनाकर 1 टू 1 के हिसाब से नहीं बल्कि समूचे समूह की लड़ाई होती थी सभी को लड़ाई लड़नी होती थी और साथ में एक लाइन भी बना के रखना पड़ता था, ताकि दुश्मन की तरफ से कोई विषय प्रवेश न कर पाए।
लड़ाई जोर पर चल रही थी, महाराणा प्रताप की सेना ने पहली लाइन को तोड़ दिया था, लेकिन मुगलों के पास और भी से सेनाएं थी। महाराणा प्रताप युद्ध क्षेत्र में हाथियों की सेना को घुसाना चाहते थे, लेकिन मुगलों की लाइन को तोड़ नहीं पाए। इसके बाद राणा प्रताप ने अपनी पैदल सेना को आगे कर दिया। लड़ाई आपने चरम पर थी।
महाराणा ने काम न बनते देख अपने घुड़सवार और हाथियों के सैनिकों का एक मिश्रित समूह भेजा। इसका मुकाबला मानसिंह के हाथियों द्वारा किया गया। फ़ज़्ल के मुताबिक राजपूतों के एक हाथी “लोना’ ने मुगलों की लाइन को तितर-बितर कर दिया था। उसके मुकाबले के लिए मुगलों ने अपनी एक हाथी उतारा, जिसका नाम था- गजमुक्त। महाराणा का लोना जीत की तरफ आगे बढ़ रहा था। मुगलों की सांसे थम रही थी, कि अचानक लोना के महावत पर किसी ने हमला कर दिया।
महावत के मारे जाने के बाद लोना कुछ नहीं कर पाया। इसके बाद महाराणा ने रामप्रसाद नाम के हाथी को आगे किया। इसके सामने लड़ने के लिए मुगलों ने गजराज नाम के हाथी को उतारा। रामप्रसाद राजपूतों के हाथियों में सबसे बलवान और पराक्रमी में से एक था। लेकिन उसके भी महावत कि जल्द ही मौत हो गई।
इसी बीच महाराणा प्रताप राजा मानसिंह मिले और आपस में भिड़ गए। अब तक मुगल सेना राजपूतों को धकेलते हुए मेवाढ़ की तरफ बढ़ना शुरू हो चुकी थी। लेकिन यहां जो एक बात ध्यान देने लायक है। वो ये कि महाराणा प्रताप के पास कोई रिजर्व सेना नही थी। जबकि मान सिंह के पास सेना की एक बड़ी संख्या रिजर्व थी। उस रिज़र्व सेना ने भी महाराणा की सेना को हराने में एक मुख्य भूमिका निभायी थी।
अब तक महाराणा प्रताप और उनका घोड़ा चेतक दोनों ही बुरी तरह घायल हो चुके थे उनके करीबियों ने सलाह दी कि वो युद्ध क्षेत्र से बाहर चले जायें, क्योंकि वह जिंदा रहेंगे तभी इन मुगलों को हराया जा सकेगा। इसके बाद महाराणा अरावली की पहाड़ियों में चले गए और छुप कर रहने लगे। वहां उन्होंने एक शपथ ली। शपथ ली- कि जब तक वो मेवाड़ को वापस नहीं पा लेंगे तब तक जमीन पर ही खाएंगे, जमीन पर सोएंगे, न दाढ़ी बनाएंगे और ना ही किसी भी प्रकार की कोई दूसरा सुख भोगेंगे। महाराणा जंगलों में लगातार संघर्ष करते रहे उन्होंने जंगल में घास की रोटियां तक खाई।
अकबर अब भी कह रहा था, कि अगर महाराणा प्रताप उसके अधीन होकर राज्य चलाना चाहे, तो चला सकते हैं। लेकिन महाराणा कभी सामने नहीं आये। उन्होंने जंगलों में रहकर ही अपनी बर्बाद हो चुकी सेना को फिर से खड़ा किया।
फिर 1579 का वो दौर आया जब मुगलों ने चित्तौड़ पर ध्यान देना बंद कर दिया। क्योंकि उन दिनों बिहार और बंगाल में मुगलों के खिलाफ जंग छिड़ी हुई थी। और मिर्ज़ा हाकिम, उन दिनों पंजाब पर हमला किये हुए था। इनसब के बीच महाराणा प्रताप को अपनी गतिविधियां तेज करने का मौका मिल गया।
1585 में अकबर लाहौर की तरफ बढ़ गया क्योंकि उसे अपने उत्तर-पश्चिम वाले क्षेत्र पर भी नजर रखना था। अगले 12 सालों तक वो वहीं रहा। इसका फायदा उठाते हुए महाराणा प्रताप ने पश्चिमी मेवाड़ पर अपना कब्जा कर लिया जिसमें कुंभलगढ़, उदयपुर और गोकुण्डा आदि शामिल थे और उन्होंने चवण को अपनी नई राजधानी बनाई।
उनकी मौत का कोई पुख्ता सुबूत तो नही मिलता है, लेकिन कहा गया है कि चवण में 56 की उम्र में शिकार करते समय एक दुर्घटना होने से महाराणा प्रताप की मौत हो गयी।