विनय दामोदर सावरकर (VD Sawarkar) भारत के स्वतंत्रता-संग्राम से निकले वह व्यक्ति हैं जिन्हें भारत मे हीरो और विलेन दोनों ही तरह की ख्याति प्राप्त है। कुछ लोग उन्हें “वीर” सावरकर की उपाधि देते हैं तो कुछ लोग “माफीवीर”… लेकिन सावरकर एक ऐसा चरित्र हैं जिन्हें “वीर” और “माफी-वीर” के बीच झूलते रहकर भी संसद भवन के सेंट्रल हॉल में गांधी की प्रतिमा के ठीक सामने जगह हासिल है।
अभी हाल ही में भारत जोड़ो यात्रा के दौरान महाराष्ट्र में बिरसा मुंडा के जन्मदिवस पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के द्वारा सावरकर द्वारा लिखे माफ़ीनामे की प्रतियां मीडिया में दिखाकर भारतीय राजनीति में “सावरकर” नाम की छौंक फिर लगा दी जिसे लेकर महाराष्ट्र के साथ-साथ देश भर में सावरकर की भूमिका को लेकर चर्चा होने लगी है।
सावरकर और उनका हिन्दुत्व (Sawarkar and his Hindutwa)
अगर यह कहा जाए कि विनय दामोदर सावरकर (VD Sawarkar) भारत के हालिया इतिहास के सबसे विवादित या बेहतर कहें तो सबसे विरोधाभासी चरित्र (Paradoxical Personality) वाले व्यक्ति रहे हैं, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सच है कि सावरकर ने हिंदुत्व में सुधारवादी की भूमिका निभाई है लेकिन सावरकर को हिंदुत्व का प्रणेता बताने वाले भी आज उनके हिंदुत्व से चुनिंदा मुद्दों पर ही सहमत दिखते हैं।
दक्षिणपंथी और हिंदुत्ववादी विचारधारा के लोगों के लिए सावरकर पसंदीदा हैं क्योंकि वह इस्लाम-विरोधी हिंदुत्व की बात करते हैं लेकिन ठीक उसी वक़्त यही हिंदुत्ववादी सावरकर से दूरी भी बना लेते हैं जब वह हिन्दू धर्म की कई बातों का खंडन करते हैं।
सावरकर गाय को एक उपयोगी पशु तो मानते हैं लेकिन वह गाय को गौ-माता मानने से इनकार करते हैं। वे मांसाहार सेवन के भी ख़िलाफ़ नहीं हैं साथ ही हिंदुओं के अंदर जाति-व्यवस्था का भी वह खुलकर विरोध करते हैं।
सावरकर भारत-भूमि को मातृ-भूमि के बजाए पितृ-भूमि और पुण्य-भूमि मानते हैं अर्थात वह पितृसत्तात्मक समाज का समर्थन करते हैं। जबकि भारत मे “जननि जन्म भूमिश्च स्वर्गाधिअपि गरियसी” की विचारधारा रही है। भारत को हमेशा “भारत-माता” माना गया है। सावरकर के साथ यहाँ खड़े होने का मतलब है महिला-सशक्तिकरण का विरोधी होना।
इसलिए शोर-शराबा और वोट बैंक के लिए तो हिंदुत्व की राजनीति करने वाले चाहे बीजेपी हो या शिवसेना या कोई भी अन्य दल- सावरकर को जरूर अपना हीरो बताते हैं लेकिन अगर कहा जाए कि क्या आप सावरकर के साथ पूर्णतया सहमत हैं, तो फिर विषयांतर करने की कोशिश करने लगते हैं।
दूसरा, सावरकर प्रगतिशीलवादी व्यक्ति हैं। वह वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिकता को स्वीकार करते हैं। एक घटना इस बात की तस्दीक करती है कि जब 1934 में बिहार में भूकंप के कारण हुई मौतों के लिए गाँधी ने इसे “भारतीयों पर भगवान का श्राप” बताया तो सावरकर ने उसका विरोध किया कि भगवान अपने ही बच्चों पर जुल्म नहीं करता।
लेकिन सावरकर का मुस्लिम विरोधी होना या दक्षिण पंथी विचारधारा के कारण प्रगतिशीलवादी लोग भी उनसे दरकिनार कर लेते हैं।
स्पष्ट है कि, जब देश को हिन्दू मुस्लिम एकता की आवश्यकता थी, सावरकर हिंदुत्ववादी विचारधारा के छाया में मुस्लिमों विरोधी बात कर के वही काम कर रहे हैं जो तत्कालीन मुस्लिम लीग जैसे दल कर रहे थे।
“वीर” या “माफीवीर”….?
राहुल गांधी ने हालिया बयान में सावरकर द्वारा अंग्रेजों को लिखी गई उनके माफ़ीनामे की प्रतियां दिखाकर यही सवाल पूछा कि ऐसे व्यक्ति को “वीर” कैसे कहा जा सकता है।
Veer Savarkar, in a letter written to the British, said “Sir, I beg to remain your most obedient servant” & signed on it. Savarkar helped the British. He betrayed leaders like Mahatma Gandhi, Jawaharlal Nehru & Sardar Patel by signing the letter out of fear: Cong MP Rahul Gandhi pic.twitter.com/PcmtW6AD24
— ANI (@ANI) November 17, 2022
महाराष्ट्र में कांग्रेस और शिवसेना (उद्धव ठाकरे समूह) का गठबंधन है। आदित्य ठाकरे ने राहुल गांधी के साथ भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ कदमताल करते हुए भी नजर आए थे। पर शिवसेना ने खुद को राहुल के इस व्यक्तव्य से अलग कर लिया है और विरोध जताया है। शिवसेना हिंदुत्व के वोट-बैंक को ध्यान में लेकर चल रही है और इसीलिए सावरकर को हिंदुत्व के प्रणेता बताते हुए राहुल के बयान का समर्थन नहीं किया है।
भारतीय जनता पार्टी ने भी राहुल के इस बयान पर आपत्ति जताई है लेकिन तमाम TV डिबेट्स में उनके प्रवक्ता हिंदुत्व के अलावे अन्य बिंदुओं पर सावरकर से दूरी बनाते हुए भी दिखे हैं।
बहरहाल, राजनीति से इतर मूल सवाल तो यही है कि सावरकर “वीर” हैं या “माफीवीर”। इसके जवाब के लिए हमें उनके जीवन को 2 हिस्सों में बांटकर देखना होगा।
सावरकर 1.0
एक वह सावरकर जो 1909 के पहले उग्र क्रांतिकारी युवा नेता था जो अंग्रेजों से सीधे-मुंह दो-दो हाँथ करना चाहता था। यह सावरकर का ऐसा रूप है जो 1857 के सिपाही विद्रोह के ऊपर The Indian War of Independence 1857 नाम की किताब लिखता है।
यह संभवतः पहली बार किसी भारतीय ने सिपाही विद्रोह को महज एक विद्रोह से ऊपर उठकर आज़ादी की लड़ाई की संज्ञा दी है। यह सावरकर का वह दौर है जब वे अंग्रेजों के ख़िलाफ़ शिवाजी के समय के गुरिल्ला युद्ध का स्वप्न अपने आंखों में संजो रखे हैं।
यह सावरकर धर्म-निरपेक्षता की वकालत करता है और 1909 के मार्लो-मिंटो रिफार्म के बाद जब मुस्लिमों को विशेष आरक्षण प्रदान किया गया है, तो उसका खुलकर विरोध करते हैं। इसके वजह से उन्हें 1910 में गिरफ्तार कर के भारत से दूर अंडमान के सेलुलर जेल भेज दिया जाता है।
जानकार बताते हैं कि अंडमान की जेल में उनको आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के बदले क्या कीमत चुकानी पड़ेगी, इसका एहसास होता है। यहीं एक रोमांटिक क्रांतिकारी युवा सावरकर जिसे “वीर” कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा, अपने दूसरे रूप में सामने आता है।
सावरकर 2.0
यह दूसरा सावरकर जिसे 4 जुलाई 1911 को काला-पानी की सजा होती है और उसके बाद महज़ डेढ़ महीने के भीतर 29 अगस्त 1911 को ही जेल से बाहर आने के लिए अंग्रेजी हुकुमत को पहला पत्र लिखकर माफी मांगते हुए खुद को ब्रिटिश शासन का ताउम्र वफादार होने की बात करता है।
सावरकर पर शोध करने वाले ‘निरंजन तकले’ अपनी किताब में लिखते हैं कि, “वे सेलुलर जेल में 9 साल तक बंद रहे और इस दौरान उन्होंने कुल 6 बार माफीनामा लिखा है। उन्होंने अपने पत्रों में यह लिखा था कि अंग्रेजों द्वारा उठाये गए कदमो से उनकी सवैधानिक व्यवस्था में आस्था पैदा हुई है और अब हिंसा का रास्ता छोड़ दिया है।”
उन्होंने अपने ऊपर दया दिखाने के लिए उन्होंने खुद को भारत के किसी भी जेल में भेजने की प्रार्थना की थी। इसके बदले वे किसी भी हैसियत तक सरकार (अंग्रेजों) के लिए काम करने को तैयार थे।
तकले की इसी किताब के संदर्भ से सावरकर के साथ उसी जेल में बंद एक और कैदी बरिंद्र घोष बताते हैं कि “सावरकर बंधु हमलोगों को जेलर के खिलाफ आंदोलन के लिए गुपचुप तौर पर भड़काते थे। लेकिन जब हम उनसे कहते कि खुलकर हमारे साथ आइए, तो वह वे पीछे हो जाते थे। जेल में कैदियों से मुश्किल काम लिए जाते थे लेकिन सावरकर बंधुओं से कोई मुश्किल काम नही लिया जाता था।”
साल 1924 में सावरकर को पुणे की यरवदा जेल से दो शर्तों पर छोड़ा गया। एक तो कि वह किसी राजनैतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेंगे दूसरा वे रत्नागिरी जिले के कलेक्टर की अनुमति लिए बिना जिले से बाहर नहीं जा सकेंगे।
बाद में सावरकर ने खुद और उनके समर्थकों ने अंग्रेजों से माफ़ी मांगने को इस आधार पर सही ठहराया कि ये उनके रणनीति का हिस्सा था जिसके आधार पर उन्हें रियायतें मिल सकती थी। इस मत के समर्थकों का कहना है कि सावरकर एक चतुर व्यक्ति थे। उनकी कोशिश थी कि वे भूमिगत रहकर जो चाहे वह कर सकते थे लेकिन इसके लिए उन्हें जेल से बाहर आना जरूरी था।
अगर इस मत को एक बार मान भी लिया जाए तो दो सवाल सामने आते हैं। पहला यह कि क्या आज़ादी के अन्य मतवालों केके माफ़ीनामों की भी भाषा वैसी ही थी, जैसी सावरकर की थी? तो जवाब है – नहीं।
भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान आदि जैसे कुछ क्रांतिकारियों ने तो माफ़ीनामे की जरूरत ही नहीं समझी और कुछ ने लिखीं भी तो किसी की भाषा ऐसी नहीं थी, जैसी सावरकर की थी।
दूसरा सवाल और सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह कि, मान लिया जाए कि सावरकर के द्वारा माफ़ीनामे की ऐसी भाषा और लगातार गुहार एक रणनीति का हिस्सा था, तो क्या उसके बाद उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में वैसी ही भूमिका निभाई जैसे अन्य क्रांतिकारियों या आंदोलन के नेताओ का था? मुझे यह कहते हुए कोई संकोच नहीं है कि इसका भी जवाब है – नहीं।
सावरकर के जेल से बाहर आने का दौर भारत की आज़ादी के संघर्ष के सबसे बड़े नेताओं का दौर है। गाँधी, नेहरू, पटेल, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह आदि इसी दौर के नेता है। निरंजन तकले बताते हैं कि सावरकर ने वायसराय लिनलिथगो के साथ लिखित समझौते में कहा था कि उन दोनों का समान उद्देश्य है- गाँधी, कांग्रेस और मुसलमानों का विरोध करना।”
एक तरफ़ जहाँ सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए अपनी एक आर्मी (INA) बना रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ सावरकर हिन्दू महासभा के जरिये हिंदुओं को उस ब्रिटिश-आर्मी में भर्ती करवा रहे थे, जो सुभाषचंद्र बोस की बनाई सेना को काटने के लिए तैयार की जा रही थी।
16 जनवरी 1941 को नेताजी बोस देश की आज़ादी के लिए जर्मनी, जापान व अन्य देशों से मिलिट्री सपोर्ट सुदृढ़ करने व उत्तर-पूर्व से अंग्रेजी हुक़ूमत पर मिलिट्री हमले को सुनिश्चित करने के लिये भारत से बाहर जा रहे थे, यह सावरकर ही थे जिन्होंने तब नेताजी के खिलाफ अंग्रेजों का हर तरह से साथ दिया था। यह बात सावरकर के बतौर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष पद पर बिहार के भागलपुर में दिए गए बयान से स्पष्ट होता है।
फिर 1942 मे भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब कांग्रेस को अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया, तब सिर्फ हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ही क्रियाशील थे। सावरकर ने तब बयान दिया कि अंग्रेजों के साथ सम्पूर्ण सहयोग वाली व्यवहारिक राजनीति में हिन्दू महासभा शामिल होगी।
सावरकर की हिन्दू महासभा भी मुस्लिम लीग के तरह दो राष्ट्र की अवधारणा का समर्थन करती थी- एक हिन्दू राष्ट्र दूसरा मुस्लिम राष्ट्र। 1940 के दशक में हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर कई प्रांतीय सरकारें भी चलाई।
सावरकर गांधी के मुखर विरोधी थे। 1948 में गांधी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार लोगों में एक नाम उनका भी था। हालांकि बाद में सावरकर को बाइज्जत बर्री कर दिया गया। परंतु सच यह भी है कि गांधी की हत्या की जांच करने वाली कपूर कमिटी ने यह माना था कि बिना सावरकर की जानकारी के गांधी की हत्या नहीं हुई थी।
कुल मिलाकर अगर आज़ादी की लड़ाई के संदर्भ में देखें तो सावरकार 2.0 कतई भी “वीर” की उपाधि के योग्य नहीं हैं। साथ ही यह भी उतना ही सच है कि 1910 के पहले वाले सावरकर निश्चित ही एक “वीर” क्रांतिकारी की भूमिका में दिखते हैं।
चूंकि इस वीर क्रांतिकारी वाली भूमिका में सावरकर की जिंदगी का एक बहुत ही छोटा हिस्सा है और वह अंग्रेजों के सजा के डर से माफीनामा लिखकर जेल से बाहर आ जाता है। वहीं उसी दौर में भगतसिंह, सुखदेव, आदि जैसे क्रांतिकारियों ने “वीरता” के अद्भुत उदाहरण देते हुए मर-मिटना पसंद करते हैं, लेकिन माफीनामा और अंग्रेजों की मुखबिरी व चरणवंदना नही करते हैं।
ऐसे में मराठी अस्मिता और ब्राह्मणों के वोट को ठेस ना पहुंचाने के नियत से सावरकर को “हीरो” बताया जा सकता है, लेकिन सच्चाई यही है कि जीवन के एक बड़े हिस्से में वह अंग्रेजों के प्रति समर्पित रहे हैं। साथ ही वह गांधी, नेहरू, पटेल की उदारवादी राष्ट्रवाद तो सुभाषचंद्र बोस के उग्रवादी राष्ट्रवाद दोनों के ख़िलाफ़ हैं।
इसलिए उन्हें “माफीवीर” कहना उचित होगा या अनुचित, पता नहीं; लेकिन “वीर” कहना निश्चित ही आज़ादी की लड़ाई में शहीद हुए हज़ारों “वीर” महापुरुषों के संदर्भ में कतई न्याय नहीं होगा।