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    Democracy in India and its values: संसद का शीतकालीन सत्र (Winter session of Parliament, 2023) जो 22 दिसंबर को सम्पन्न हुआ, कई महत्वपूर्ण बातों के लिए याद किया जाएगा।

    यूँ तो 19 दिन तक चले इस सत्र में 3 आपराधिक कानून, चुनाव आयुक्त के चयन से संबंधित विधेयक, टेलीकॉम विधेयक सहित कई अन्य महत्वपूर्ण विधेयकों को पास किया गया; परंतु इस सत्र को भारतीय संसदीय इतिहास में जिस बात के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाएगा वह है – “विपक्ष के सांसदों का थोक के भाव निलंबन (Mass suspension of Opposition MPs)”.

    संसद का यह सत्र (Winter session of Parliament) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (BJP) की सरकार के दूसरे कार्यकाल (Modi 2.0) का आखिरी पूर्णकालिक सत्र था। इसके बाद अगले साल फरवरी में एक छोटा सत्र होगा जिसके बाद लोकसभा चुनावों की घोषणा हो जाएगी। इसलिए इस सत्र को अपने-आप मे पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा था।

    हालंकि पक्ष यानी कि बीजेपी सरकार और विपक्ष के इस गहमागहमी के बीच इस सत्र में लोकसभा (LS) और राज्यसभा (RS) मिलाकर कुल 146 विपक्षी सांसदों (146 MPs) को निलंबित किया गया। आज़ाद भारत के इतिहास में यह पहली मर्तबा है जब इतनी बड़ी संख्या में सांसदों का निलंबन हुआ है।

    इस से पहले 1989 में कांग्रेस की राजीव गांधी के अगुवाई वाली सरकार में कुल 63 सांसदों को निलंबित किया गया था। हालांकि तब उनके निलंबन के फैसले को मात्र 3 दिन के भीतर ही ख़ारिज कर दिया गया था। इस सत्र में सांसदों के निलंबन का यह रिकॉर्ड भी बीजेपी सरकार के नाम हो गया।

    अव्वल तो यह कि 146 सांसदों के इस निलंबन को अब भी महज ‘सरकार बनाम विपक्ष ‘के राजनैतिक लड़ाई तक ही सीमित कर के देखा जा रहा है जबकि सच्चाई तो यह है कि भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों की कसौटियों पर यह बेहद अफ़सोस जनक वाकया है। यह संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था (Parliamentary Democratic System) के लिए कतई भी सही संकेत नही है।

    सबसे बड़ी समस्या तो यह कि देश की मीडिया और बहुतायत आम नागरिक इस मामले को महज एक सांसद या कुछ सांसदों (MPs) के निलंबन को एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के निलंबन के तर्ज पर देख रहे हैं। परंतु क्या यह निलंबन उन तमाम करोड़ो देशवासियों के प्रतिनिधित्व का नहीं है जिन्होंने इन विपक्ष के सांसदों (MPs) को चुनकर सदन (Parliament) में इसलिए भेजा है कि ये सांसद उनके नागरिक अधिकारों और हितों की आवाज़ देश के सामने उठा सकें?

    संसदीय व्यवस्था (Parliamentary System) का रूप और उसकी कार्य प्रणाली, कानूनी निवारण (Legal Remedies), संवैधानिक नैतिकता (Constitutional Morality), संसदीय प्रक्रियाओं के नियमावली, संवैधानिक संस्थाएँ (Constitutional Institutions), यहाँ तक कि तमाम संसद की शब्दावली- जो हमें बताया जाता था कि लोकतंत्र को बचाने का काम करते हैं; दरअसल इन्हीं तमाम पहलुओ का इस्तेमाल कर के एक प्रचंड बहुमत के आड़ में अक्सर ही सत्ता का असंवैधानिक केंद्रीकरण (Unconstitutional Centralization) होता रहा है।

    भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) अक्सर ही किसी न किसी कार्यक्रम में संवैधानिक नैतिकता की बात करते हैं परंतु कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट स्वयं ही इन संवैधानिक नैतिकता से दूर खड़ा होना पसंद करता है।

    सत्ता में काबिज़ सरकार के लोग हर वक़्त संवैधानिक दायरा और संसद की मर्यादा पर ज्ञान वांचते दिख जाएंगे जबकि सच्चाई यह है कि विगत कुछ सालों में संसदीय व्यवस्था नीरस और निष्प्राण हो गयी है। सदन के अध्यक्ष और चेयरमैन राजनीतिक मुखौटे लगाकर कार्यवाही को नियंत्रित करते दिख रहे हैं।

    देश की मीडिया -ख़ासकर हिंदी पट्टी में स्थित राष्ट्रीय मीडिया- खुद ही सरकार के प्रवक्ता बनकर विपक्ष को ही हर सवाल का जवाब ढूंढने पर विवश करते हैं जबकि यह स्पष्ट है कि सरकार ने केंद्रीय जांच एजेंसियों के इस्तेमाल से विपक्ष को पंगु और मज़बूर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। पर मजाल है कि खानापूर्ति के लिए एक आधा सवाल पूछने के अलावे कोई मीडिया प्रधानमंत्री या सरकार के नुमाइंदों से सवाल जवाब कर दे?

    आम जनता की राय यानी ‘पब्लिक-ओपीनिन (Public Opinion)’ के निर्माण में कैसे कोई ‘माइंड-ओपियम( Mind Opium)’ फिट करना है, आज की मीडिया इसमें महारत हासिल कर चुकी है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को सरकारें कैसे नियंत्रित करतीं हैं, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है।

    एक लोकतांत्रिक विचार के तौर पर शक्तियों का  पृथक्करण (Separation of Power) जाने कब का समापन की तरफ बढ़ चला है, हमें इसका आभाष तक नही है। न्यायपालिका के फैसले अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के प्रभाव से प्रभावित मालूम पड़ते हैं। कार्यपालिका और विधायिका विचारधारा और समाज कल्याण की परिपाटी से ऊपर उठकर सत्ता-उन्मुख प्रतीत होती हैं।

    इन तमाम क्षद्म संसदीय और लोकतांत्रिक परिपाटियों (Pseudo Parliamentary & Democratic Standards) से तंग आकर कई बड़े प्रबुद्ध लोग अक्सर ही यह वकालत करते है कि भारत को संसद व्यवस्था (Parliamentary Democracy) को छोड़कर अमेरिका जैसे प्रेसिडेंशियल व्यवस्था (Presidential System) को अपना लेना चाहिए। भारत के लोकतंत्र की जो वर्तमान हालात हैं, वह न तो संसदीय रह गया है….ना ही प्रेसिडेंशियल।

    भारत की वर्तमान राजनीति कुछ ऐसी है कि देश के तमाम जनता के बहुतायत राजनीतिक इच्छा का मानवीकरण हो गया और यह एक ही व्यक्ति –प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी– के रूप में संस्थागत तौर पर समाहित हो गया है। इस देश की तमाम शक्तियों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं का नियंत्रित हैं और उनकी ये शक्तियाँ संवैधानिक दायरों से मुक्त है।

    मीडिया न तो उनकी नीतियों की आलोचना कर सकती है; न्यायपालिका न ही कोई सवाल कर सकता है और करने की कभी जुर्रत की भी तो संसद में बिल लाकर संख्या बल के आधार पर उसे पलट दिया जाएगा; समाज के अन्य समूह जो दबाव बनाने की कोशिश करे, उसे देशविरोधी बता दिया जाएगा; और विपक्ष को पहले ही हासिये पर धकेल दिया गया है।

    यह तमाम चीजें वह हैं जो एक चुने हुए तानाशाह के शासन में देखने को मिलता है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोई तानाशाह हैं, ऐसा कतई  नहीं है….पर आजकल संसद और लोकतान्त्रिक व्यवस्था कमोबेश उसी राह पर है जो एक निर्वाचित तानाशाही (Elected Dictatorship) व्यवस्था में देखी जा सकती है।

    हालांकि यह तर्क दिया जाता रहा है कि  यह सरकार लगातार दो बार बेहतरीन संख्या से चुनी गई है; अर्थात देश की जनता इस सरकार के कार्यप्रणाली को पसंद कर रही है। ऐसे में फिर संसद में विपक्ष की संख्या का कम होना या विपक्ष का कमजोर होना, न्यायपालिका के हाँथ बंधे होना आदि जैसी बातें कहाँ तक जायज है?

    परन्तु यही तो विडंबना है कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था का अतिसरलीकरण है। लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था सिर्फ चुनाव, वोट और संख्या बल तक सिमित नहीं है। शक्तियों का पृथक्करण, स्वतंत्र न्यायपालिका, निष्पक्ष मीडिया, सरकार का संसद के प्रति जवाबदेही आदि भी लोकतंत्र की बुनियाद हैं।

    जहाँ सरकार को संसद में हालिया घुसपैठ के मुद्दे पर संसद पटल पर जवाब देना चाहिए था, लेकिन हुआ यह कि विपक्ष के 146 सांसदों को इसी मुद्दे पर सवाल करने के लिए निष्कासन झेलना पड़ा और मीडिया ने इसपर एक खामोशी धारण कर लिया। लेकिन जैसे ही सदन के बाहर विपक्ष ने उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ की नकल उतारी, इसी मीडिया ने ऐसा हाय-तौबा मचा दिया कि असली मुद्दा और सरकार की नाकामी दोनों छुप गए।

    नरेंद्र मोदी ने 2014 में बतौर प्रधानमंत्री जब पहली बार संसद में दाखिला लिया था तक उन्होंने इसके सीढ़ियों को चूमकर इसे लोकतंत्र की मंदिर बताया था। पर आज लगभग 10 साल के बाद ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री ने तब संसद की गरिमा को नहीं बल्कि सत्ता के चरमसुख को चूमा था। आज विपक्ष विहीन सदन उनके कद को छोटा कर रहा है, पर क्या उन्हें इसका एहसास है?

    By Saurav Sangam

    | For me, Writing is a Passion more than the Profession! | | Crazy Traveler; It Gives me a chance to interact New People, New Ideas, New Culture, New Experience and New Memories! ||सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ; | ||ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ !||

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