Sat. Nov 2nd, 2024
    Violence against Women

    महिलाओं के प्रति हिंसा (25 नवंबर, International Day for the Elimination of Violence Against Women): अभी हाल में देश की  राजधानी दिल्ली में 27 वर्षीय एक युवती को उसके लिव-इन पार्टनर आफ़ताब नामक 28 वर्षीय युवक द्वारा बेरहमी से मार दिया गया। उसे लेकर रोज नए-नए खुलासे हो रहे हैं। TV और सोशल मीडिया पर हालात यह हैं कि मानो आरोपी आफ़ताब इस मामले की जाँच करने वाले अधिकारियों से ज्यादा खुलासे इन मीडिया चैनलों के सूत्रों के आगे कर रहा है।

    दिल्ली से थोड़ी ही दूरी पर कोई नितेश यादव नाम का व्यक्ति अपनी ही 22 वर्षीय इकलौती बेटी को इसलिए गोलियों से भून देता है क्योंकि वह माता पिता की रजामंदी के खिलाफ दूसरी जाति में शादी कर रही थी या कर चुकी थी।

    उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में प्रिंस यादव ने अपने पुरानी प्रेयसी की हत्या मंदिर ले जाने के बहाने से धोखे में गन्ने के खेत में ले जाकर इसलिए कर देता है क्योंकि अधूरी प्रेम कहानी के बीच प्रिंस विदेश चला जाता है और इधर वह लड़की परिवार के दवाब में किसी और से शादी कर लेती है।

    श्रद्धा मर्डर केस से पहले उत्तराखंड के अंकिता भंडारी, झारखंड की अंकिता सिंह, और ऐसे सैकड़ो केस रोज देश के किसी ना किसी कोने में घटित होते हैं। कुछ मामलों की गूंज देश भर में सुनाई देती है, कुछ स्थानीय मुद्दा बनकर गौण हो जाते हैं। कुछ मामले आपसी सुलह से निपटा दिए जाते हैं तो कुछ घर की इज्जत और समाज मे रसूख के नाम पर घर के दहलीज़ के बाहर भी नहीं आ पाती।

    घर की ड्योढ़ी से लेकर गली, मुहल्ले, स्कूल, कॉलेज, हाट, बाजार, पारिवारिक समारोह आदि- समाज के हर हिस्से में महिलाओं ले प्रति हिंसा घटित होती हैं। अव्वल तो यह कि बेडरूम में भी उन्हें आये दिन अपने पति के जोर-जबरदस्ती का सामना करना पड़ता है और उनकी सिसकियां बिस्तर के ही किसी कोने पर पड़े तकिए में दफन होकर रह जाती है।

    इस तरह की घटनाएं आखिर क्या संदेश दे रही हैं? तमाम सरकारी दावों, सामाजिक कोशिशों और उपायों के बावजूद महिलाओ के साथ घटित होने वाले अपराध कम होने के बजाए बढ़ते ही जा रहे हैं। सोचने वाली बात तो यह कि अपराध बढ़ने के साथ साथ इन अपराधों की प्रवृति और स्वरूप भी पहले से विकृत होते जा रहे हैं। आखिर इतनी नफरत और दरिंदगी की वजह क्या है?

    पिछले दिनों मेरी ही एक दोस्त जो इंजीनियरिंग के दिनों में मेरी जूनियर रह चुकी है, ऐसे ही किसी सवेंदनशील मुद्दे पर बात-चीत के दौरान  कहती है कि “सर, इस देश मे आपलोग (मतलब पुरुषों की) की आज़ादी 1947 में हो गयी थी। हमलोग (महिलाओं) की आज़ादी जाने कब हासिल होगी?”

    हालाँकि राजनीति और इतिहास रूचि होने के कारण  मेरे लिए ऐसी बातें कोई नई नहीं थीं। आप अमेरिका का इतिहास पढ़ेंगे, वहाँ भी ऐसी घटना का जिक्र है जहाँ महिलाओं को अपनी आजादी की लड़ाई दुबारे लड़नी पड़ी थी। लेकिन इससे पहले मैंने इस पर इतना ठहर कर नहीं सोचा था।आज जब कोई मेरे अपने ही लोगों के बीच से यह सवाल कर रहा था तो लगा कि सच तो है।

    आज़ादी की लड़ाई में तो रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हज़रत महल, रानी चिनम्मा, कमला नेहरू, सरोजनी नायडू, झलकारी बाई, कल्पना दत्त, शांति घोष, कॉमिल्ला, सुनीति चौधरी आदि ने भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। लेकिन क्या हुआ उनके सपनों का? क्या हम देश की आधी आबादी को सच मे यह आज़ादी दे पाए हैं जो पुरुषों को हासिल है?

    शायद यही पर महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले जुर्म का एक बड़ा हिस्सा अपना मूल तलाशता है। भारतीय समाज का पितृसत्तात्मक होना, महिलाओं को आज भी एक जीता-जागता व्यक्ति के बजाए अपनी जागीर समझना, और फिर समाज के दकियानूसी और झूठे शान-शौकत का जंजाल- मेरे विचार में यही  सबसे बड़ी वजहें हैं महिलाओं के खिलाफ होने वाले जुल्म के लिए।

    अगर हम श्रद्धा मर्डर केस की ही बात करें तो समाज के एक हिस्से में यह भी कहा जा रहा है कि श्रद्धा आखिर रह क्यों रही थी उस व्यक्ति के साथ जब उसे पहले ही इस तरह के वारदात का अन्दाज़ा था?

    सोचिए, उस लड़की के पास एक समाज के तौर पर हमने क्या यह विकल्प छोड़े थे? माँ-बाप ने यह कहकर मुँह मोड़ लिया था कि उसने एक विधर्मी व्यक्ति से शादी करने की जिद्द की थी। फिर, जिसके ऊपर भरोसा कर के उसने पूरी दुनिया से लोहा लिया था, वही धोखा दे रहा था।

    मान लीजिए, कि वह वापस अपने घर चली भी जाती तो क्या हमारा समाज इस बात को आसानी से पचा लेता? क्या उसे पड़ोस के महिलाओं के ताने नही सुनने पड़ते? क्या उसे समाज मे एक अलग नजरिये से नहीं देखा जाता?

    हम जाति, धर्म, झूठी शान और समाज के भोंपू के दवाब में इस कदर जकड़े हुए हैं कि अपनी ही बहन-बेटियों को समाज के हर दहलीज पर ठोकरें खाते देख-सह लेते हैं लेकिन उसके लिए वापसी का रास्ता नहीं छोड़ते।

    यह एक श्रद्धा की कहानी मात्र नहीं है, बल्कि हर रोज होने वाले कई महिलाओ के श्राद्ध-कर्म (महिलाओं के प्रति हिंसा के बाद का मौत) के पीछे की कहानी है। एक समाज के तौर पर हम अपनी आँखें मूंद कर यह नहीं कह सकते कि समस्या ही नही है। लिव-इन रिलेशन, लव मैरिज, विजातीय या विधर्मी विवाह आदि हमारे समाज के ही हक़ीक़त हैं और इसे हमें सकारात्मकता के साथ स्वीकार करना होगा।

    दूसरा पितृसत्तात्मक समाज का होना अपने आप मे एक सवाल है। अजीब है ना कि एक महिला के पेट से ही पैदा हुआ पुरुष उसी महिला पर जुल्म करता है। घर की महिलाओं को अपनी जागीर समझ बैठता है।

    घर की एक लड़की क्या पहनेगी, क्या पढ़ेगी, कहाँ जाएगी, किस से मिलेगी, किस के साथ शादी करेगी, इत्यादि-  यह सब तय करते हैं घर के पुरुष। यहाँ तक कि वह शादी के बाद कब और कितने बच्चे पैदा करेगी- यानि उसके अपने ही शरीर पर के अधिकार एक पुरुष (पति) या उसका परिवार तय करता है।

    इन सब मे वह लड़की एक प्राइवेट कंपनी के उस निचले दर्जे के कर्मचारी के तरह काम करते रहती है जिसे हर हाल में बॉस के आदेश का पालन करना है। यह सच है कि थोड़े बहुत हालात बदले हैं और बदल रहे हैं, पर पूर्णतया या आंशिक तौर पर ही; भारतीय परिवारों में महिलाओं के हालात कमोबेश ऐसे ही हैं।

    हॉनर-किलिंग, विजातीय शादी के बाद पारिवारिक या सामाजिक बहिष्कार, अपने मन मुताबिक शादी करने के बाद पारिवारिक कलह आदि न सिर्फ 80-90 के दशक के फिल्मों में बल्कि आज भी भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में व्याप्त है। समाज के किसी नरेश यादव द्वारा अपनी ही इकलौती बेटी को गोली मारकर हत्या करने की घटना इसी बात का तो उदाहरण है।

    झारखंड में हाल में घटित हुई अंकिता सिंह मर्डर केस एक और आयाम देता है कि कैसे पुरुष किसी महिला के “ना” को अपने नफरती स्वाभिमान के ख़िलाफ़ मानकर हिंसा का रास्ता अख्तियार कर लेता है। कथित तौर पर महिला ने उस सिरफिरे आशिक के प्रस्ताव को सामाजिक दवाब ने ठुकरा दिया था जिसे वह पचा नहीं पाया।

    यह एक मात्र ऐसी घटना हो, ऐसा नहीं है। इस से कुछ दिन पहले चेन्नई में एक छात्रा सत्यप्रिया को उसके शोहदे ने ट्रेन के आगे पीछे से धक्का दे दिया था और कटकर लड़की की मौत हो गयी थी। बताया गया कि वह पुरुष उंस लड़की के साथ “खराब रिश्ते के दौर” से गुजर रहा था।

    बदलते समाज मे पिछले कुछ दशकों में एक क्रांति आयी है। लोगों के विचारों में थोड़ा खुलापन जरूर आया है। कई तरह के समाजिक जागरूकता भी आई हैं लेकिन इन सब के बीच कुछ विसंगतियां भी आई है।

    सेक्स को लेकर समाज आज भी बहुत खुला नहीं है। परिवार या स्कूली पाठ्यक्रम में सेक्स-एडुकेशन आज भी शामिल न के बराबर है। यह एक बड़ी वजह है कि “Act of Love” न जाने कब “Act of Lust” में बदल जाता है, इसका पता आजकल के युवाओं को नहीं चलता। नतीजतन महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ बढ़ रहे यौन-उत्पीड़न जैसे मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं।

    NCRB के आंकड़ों के मुताबिक 2021 में महिलाओं के ख़िलाफ़ कुल 4,28, 278 मामले दर्ज हुए हैं जो पिछले साल के मुकाबले 15.3% ज्यादा हैं। इसमे सबसे ज्यादा “महिला के पति और परिवार द्वारा क्रूरता” के 31.8% मामले हैं।

    दूसरे नंबर पर महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन शोषण व इस से संबंधित दुर्व्यवहार (20.8%) है।तीसरे स्थान पर अपहरण, जबरदस्ती शादी आदि के मामले (17.6%) है। इसके अलावे सिर्फ बलात्कर के मामले चौथे स्थान पर (7.4%) हैं।
    इसी रिपोर्ट के मुताबिक 2021 में 45,026 महिलाओं ने आत्महत्या की है जिनमें से आधे से ज्यादा महिलाएं “घरेलू महिला (House Wives)”थीं।

    NCRB रिपोर्ट में वह मामले हैं जो किसी थाना या पुलिसिया रजिस्टर में दर्ज कराए गए हों। एक सच्चाई इस से इतर यह भी है कि भारत मे महिलाओं के प्रति हिंसा का एक बड़ा हिस्सा दर्ज ही नहीं होता। मुहावरों की भाषा मे कहें तो यह दूर से दिखने वाले हिमखंड की नोक भर है।

    कहने का आशय यह कि इन आंकड़ों में जितना दिख रहा है, समाज मे उस से कई गुना ज्यादा छुपाया गया है। पर जो भी मामले दर्ज हुए हैं, जितने भी दर्ज होते हैं, देश के सामाजिक चेतना और सामूहिक विचार भावना को झकझोर देने के लिए इतना ही काफ़ी है।

    फिर सब कुछ सरकार या सिस्टम के भरोसे छोड़ने के बजाए कुछ सवाल हमें खुद से भी एक समाज के तौर पर पूछना होगा।
    बिलकिस बानो के बलात्कारी और उसके परिवार के हत्यारे” जेल में अच्छे व्यवहार” के दलील पर छोड़े जा रहे हैं; उनको माला फूल पहनाकर और मिठाई बांटकर स्वागत किया जाता है; विधानसभा चुनाव में उसके रिश्तेदारों को चुनाव मैदान में उतारा जाता है। यह सब एक समाज के तौर पर हम बर्दाश्त कर रहे हैं; कैसे?

    कोई बलात्कारी बाबा राम-रहीम हरियाणा चुनाव के पहले जेल से बाहर आकर फिर से प्रवचन करने लगता है, उसकी सभाओं में 300 से अधिक स्कूली बच्चियों को भेजा जाता है, वह खुलेआम घूम रहा है; कैसे?

    किरण नेगी मामले में यह कैसी पुलिसिया जाँच थीं जिसमें आरोपियों को निचली अदालतें और हाईकोर्ट में सजा मुकर्रर किया जाता है और दोषियों को फाँसी की सजा होती है फिर सुप्रीम कोर्ट में उन्हें सबूत के अभाव में दोषमुक्त बताकर बरी कर दिया जाता है मानो – “No One Raped & Killed Kiran Negi.” क्या अब महिलाओं को न्याय व्यवस्था से भी नाउम्मीदी देखना पड़ेगा?

    उत्तराखंड के अंकिता भंडारी नाम की एक बेटी को उसके परिवार वालों ने बचाया भी और पढ़ाया भी; लेकिन पढ़ लिखकर जब नौकरी के लिए घर की दहलीज के बाहर कदम रखती है तो, उसे किसी रसूखदार VVIP को “सर्विस (देह-व्यापार)” देने का दवाब दिया जाता है। लेकिन इस से इनकार करने की सजा उसे मौत के रूप में दी जाती है। घटना के इतने दिन बाद भी “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” के नारे बुलंद करने वाली सरकार एक सवाल पर चुप्पी साधे है कि “कौन था वह VVIP” ?

    ऐसे कितने ही सवाल हैं महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े जिसे लेकर समाज और सरकार चुप हैं। जब आज से कोई 10 साल पहले निर्भया कांड के बाद सरकार ने महिला-सुरक्षा से जुड़े कानूनों में आमूलचूल परिवर्तन किया तो एक बार उम्मीद जगी थी कि शायद अब माहौल बदलेगा। लगा कि ऐसे अपराध करने वालों के मन मे खौफ़ आएगा।

    पर हालात ज्यो के त्यों बने हुए हैं या कहें तो स्थिति पहले से और भी भयावह है। आज ऐसे अपराध की प्रवृत्ति और आयाम और ज्यादा विकृत हो गए हैं। आखिर निर्भया फण्ड जो महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवंटित किए गए थे, उसका मात्र 10% इस्तेमाल होना तो यही बताता है कि स्थिति बस कागजों पर बदली; धरातल पर हालात वहीं है।

    फिर यह तो उन समस्याओं की बात होती है जिनमें महिलाओं के प्रति हुए अपराध की आवाज सड़क से लेकर संसद और मीडिया के बीच गूंजती है। वरना ऐसी अनेकों अन्य समस्याओं कहीं ना कहीं ” ससुराल में तो कष्ट होता ही है” , “लड़की हो तुम, परिवार की इज्जत हो” आदि जैसी दकियानूसी के बीच दबकर रह जाती हैं।

    झारखंड, बंगाल, बिहार आदि प्रदेशों में तो डायन प्रथा जैसी बातों ने न जाने कितनी महिलाओं का सामाजिक बहिष्कार करवाया है। यहाँ तक कि कई बार उन्हें इस कदर मारा पीटा गया है कि उन्हें अपनी जान तक गंवानी पड़ी है।

    घर के किचन, बैडरूम आदि में हुई प्रताड़नाओं का कोई हिसाब ही नहीं है। OTT प्लेटफॉर्म हॉटस्टार पर बॉलीवुड के एक मशहूर अभिनेता पंकज त्रिपाठी अभिनित एक वेब सीरीज है- “क्रिमिनल जस्टिस”। इसका पहला भाग इसी बेडरूम हिंसा पर आधारित है, इसे खोजकर देखिये।

    कुल मिलाकर, देश की आधी आबादी को आज भी अपने अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़नी है। उनके सामाजिक, कानूनी या व्यक्तिगत अधिकारों को लेकर समाज धीरे धीरे सजग तो हो रहा है लेकिन पुरुषवादी सोच महिलाओं को उपभोग की वस्तु और समाज का द्वितीय पहिया (Second Fiddle) ही बनाये रखना चाहता है।

    एक तरफ़ तो पूरी दुनिया 25 नवंबर को International Day for the Elimination of Violence Against Women के रूप में मनाती है, वहीं दूसरी तरफ़ सच्चाई यह भी है कि दुनिया मे आज भी महिलाओं की हत्या में 50% मामले ऐसे हैं जो उनके अपने ही साथी (विवाहित या अविवाहित दोनों) के द्वारा होते हैं।

    स्पष्ट है कि भारत जैसे देश मे महिलाओं को सच में अपनी आजादी की एक लड़ाई लड़ने की नौबत आ गयी है और इस बार यह लड़ाई किसी विदेशी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि अपने ही घरों, समाज और देश के हुक्मरानों के ख़िलाफ़ खड़ा होना पड़ेगा।

    समाज और सरकार को भी एक दीर्घकालिक हल ढूंढ़ना होगा कि देश के भीतर पितृसत्तात्मक मानसिकता और सामाजिक कुंठाओं से आज़ाद एक पीढ़ी तैयार हो सके जहाँ समाज मे महिला और पुरुषों के लिए दोहरे मापदंड ना हो।

    साथ ही, महिलाओं के खिलाफ हिंसा के सम्बंध में कानूनी कार्रवाई में कोई भी कोताही ना करे, इसके लिए न्यायालय और सख्त हो। वरना किरण नेगी जैसी दुर्भाग्यशाली लड़कियों के अपराधी शरेआम घूमते रहेंगे। इन मामलों में जीरो टॉलरेन्स (Zero Tolerance) ही एकमात्र रास्ता है।

    By Saurav Sangam

    | For me, Writing is a Passion more than the Profession! | | Crazy Traveler; It Gives me a chance to interact New People, New Ideas, New Culture, New Experience and New Memories! ||सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ; | ||ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ !||

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *