विपक्ष मुक्त भारत: जब दिल्ली की आँखें खुलती, उस से पहले ही आबकारी नीति मामले में सीबीआई (CBI) द्वारा दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के आवास पर छापेमारी की ख़बर चारो तरफ़ फैल गयी। TV मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक इस ख़बर से जैसे जैसे भर रहा था, उसी रफ्तार से राजनीति भी अपने पांव पसारने लगी।
राजनीति यह कि कोई दावा कर रहा था कि सिसोदिया के शिक्षा नीति की तारीफ़ अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार द न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी है, इसलिये CBI छापे मारने आ गई; तो केंद्र सरकार के नुमाइंदों का कहना था कि छापा तो शिक्षा मंत्री के घर पड़ ही रहा है, यह तो आबकारी मंत्री के घर पर आबकारी नीतियों को लेकर छापा पड़ रहा है।
बहरहाल, यह महज संयोग है कि दिल्ली सरकार में आबकारी मंत्रालय भी सिसोदिया के पास ही है जिनके शिक्षा सुधारों की तारीफ़ न्यूयॉर्क टाइम्स ने छापे थे।
खैर, राजनीति से हट के एक सवाल और जिसका जवाब सबसे महत्वपूर्ण है कि CBI, ED, NIA आदि सभी केंद्रीय ऐजेंसी के निशाने पर सिर्फ विपक्ष ही क्यों है? क्या केंद्र सरकार विपक्ष मुक्त भारत बनाना चाहती है? क्या विपक्ष के बिना लोकतंत्र में कल्पना की जा सकती है?
कुछ दिन पहले कांग्रेस के राहुल से लेकर सोनिया गाँधी और मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे बड़े नेताओं को ED के सामने पेश होना पड़ा। आपको बता दें, जब यह जाँच चल रही थी उस दौरान काँग्रेस महँगाई और बेरोजगारी पर रोज ही बीजेपी को घेर रही थी।
महाराष्ट्र में संजय राउत पर हो रही कार्रवाई इसी क्रम में एक और प्रमाणिकता देता है। क्योंकि महाराष्ट्र में हुए सत्ता परिवर्तन को लेकर बीजेपी पर सबसे ज्यादा हमलावर कोई था तो वह संजय राउत थे; वहीं शिवसेना के कई अन्य नेता जिन पर पहले ED, CBI आदि द्वारा जाँच चल रही थी. अब बीजेपी के साथ शिवसेना से बगावत कर के सरकार के अंग बन गए हैं और उन पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है।
हालांकि भ्रष्टाचार के भी कई मामले इन्हीं कार्रवाई में सामने आए हैं। उदाहरण के लिए, बंगाल के तृणमूल कांग्रेस के नेता और ममता बनर्जी की सरकार में रहे मंत्री पार्थ चटर्जी जैसे लोग भी इसी दौरान पकड़े गए हैं। लेकिन ED जैसी संस्था का ट्रैक रिकॉर्ड देखें तो स्पष्ट है कि उनकी ज्यादातर कार्रवाई राजनीति से प्रेरित होती है, किसी भ्रष्टाचार नीति से नहीं।
इसी संदर्भ में कुछ सवाल ऐसे भी हैं जिसे विपक्ष लगातार उठा रहा है और जिनका जवाब सरकार को देना चाहिए। उदाहरण के लिए, गुजरात के मुंद्रा पोर्ट या अडानी पोर्ट से आये दिन भारी मात्रा में ड्रग्स पकड़े जाते हैं लेकिन कभी NCB या CBI जैसी एजेंसियों को वहाँ क्यों नही भेजा जाता है? गुजरात मे अभी हुए जहरीली शराब से मौतों पर कोई जांच एजेंसी क्यों नहीं भेजा गया?
फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि भ्रष्टाचारी सिर्फ विपक्ष में बैठे हैं? फिर यही विपक्षी जिनके ख़िलाफ़ तमाम CBI, ED आदि की जाँच चल रही होती है, अगर बीजेपी में शामिल हों जाये या बीजेपी को समर्थन दे दे तो उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई रुक जाती है?
स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार को आधार बनाकर की जाने वाली यह कार्रवाई ज्यादातर मौकों पर राजनीतिक लाभ और विपक्ष की आवाज को दबाने के मकसद से की जाती है। यह निश्चित ही लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।
भारत का लोकतंत्र अपने आज़ादी के बाद से ही विपक्ष को मुखर आवाज देने के लिए दुनिया भर में जाना जाता रहा है। अगर इमरजेंसी के 2 सालों को छोड़ दिया जाए तो भारत का विपक्ष इतना दिशाहीन और बिखरा हुआ कभी नहीं था।
इमरजेंसी के दौरान भी विपक्ष की आवाज को दबा दिया गया था लेकिन विपक्ष डरा हुआ या बिखरा हुआ नहीं था। इसी का परिणाम था कि इमरजेंसी के ठीक बाद पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार केंद्र में बनी थी।
आज CBI, ED, NIA आदि का खौफ ऐसा है कि विपक्ष एकजुट होकर जनता के सरोकार से जुड़े मुद्दों पर भी आवाज नहीं उठा पा रही है। अभी हाल ही में संसद में एक सवाल के जवाब में बताया गया था कि ED ने 2004-2014 के बीच 113 छापे डाले हैं, जबकि 2014-अभी तक यह आंकड़ा 27 गुना ज्यादा बढ़ गया।
ED के सफलता दर भी यह बताने के लिए काफी है कि पिछले कई सालों में ED द्वारा की गई कार्रवाई बस “खोदा पहाड़, निकली चुहिया” साबित हुई है। इस एजेंसी का या तो दुरूपयोग हुआ है या फिर इसके कार्यकुशलता की समीक्षा होनी चाहिए।
CBI का विपक्ष के खिलाफ इस्तेमाल होना कोई नई बात नहीं है। आज का विपक्ष जब सत्ता में थी, तब भी CBI का दुरुपयोग होता आया है। सुप्रीम कोर्ट ने CBI को पिजरे में बंद तोता (Caged parrot ) कहा था। अंतर बस इतना है कि आज CBI की जगह ED ने ले ली है।
ED कुछ मामलों में CBI से ज्यादा शक्तिशाली लगती है, खासकर उन मामलों में जहां FEMA और PMLA जैसे शक्तिशाली कानून का इस्तेमाल होता है। अभी हाल ही में सरकार ने और भी विशेष शक्तियाँ दे दी हैं जिसे सुप्रीम कोर्ट ने सही भी ठहराया है।
मीडिया और देश की जनता को अब तो आदत सी बन जानी चाहिए थी इसकी कि हर दूसरे तीसरे दिन किसी न किसी विपक्षी नेता के घर पर CBI, ED, NIA, NCB आदि की उपस्थिति होती ही है।
जिस तरह से यह सब होता है वह अपने आप मे एक कहानी बयां करती है। किसी विपक्षी नेता के घर CBI, ED केंद्रीय एजेंसियों का जाना, उसके बाद गिरफ्तारी फिर दिन भर मीडिया में चर्चा… कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि जनता के दिमाग मे आरोपी को ही अपराधी बनाकर बिठाने की कोशिश होती है, अदालतें बस खानापूर्ति के लिए हैं।
संसद में अब चर्चाएं होती नहीं, विपक्षी नेता ED और CBI के डर से सवाल करने के बजाए पाला बदल लें रहे हैं। सरकारें हॉर्स ट्रेडिंग और रिसोर्ट पॉलिटिक्स के बूते बनाई और गिराई जा रही हैं। राजनीति के इस हालात में विपक्षी दलों के ऊपर CBI, ED से राजनैतिक हमला न सिर्फ विपक्ष को कमजोर कर रहा है बल्कि लोकतंत्र की व्यवस्था के लिये भी सही नहीं है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक स्वस्थ लोकतंत्र में मज़बूत विपक्ष भी अहम स्थान रखता है। विपक्ष को नेस्तनाबूद कर के या विपक्ष से मुक्त कर के किसी एक पार्टी या किसी सरकार का भला हो सकता है, लेकिन लोकतंत्र में नहीं।
यहाँ स्पष्ट कर दें कि विपक्ष को बचाये रखने के क्रम में किसी भ्रष्टाचारी को न बचाया जाये लेकिन यह सुनिश्चित किया जाये कि CBI, ED , NIA आदि केंद्रीय जाँच एजेंसियो का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ के लिए न हो; यह अनुचित है।