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    राजस्थान सियासी हलचल Rajasthan Political crisis

    राजस्थान सियासी हलचल (Rajasthan Political Crisis): पिछले कुछ सालों से ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस पार्टी ने एक आदत बना ली है कि बिना कोई संकट के बादल के ही सियासी उलझनों की बारिश कैसे किया जाए। एक विलक्षण सी आदत बनती जा रही है कांग्रेस और उसे नेताओं में कई अपने ही पाले में गोल कैसे किया जाए।

    राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को मीडिया (Main stream & Social Media दोनों) से लेकर जमीन पर भी आम जनता का भरपूर समर्थन मिल रहा था। बीते एक दशक में BJP और उसके प्रवक्ता शायद पहली दफा इस तरह से बैकफुट पर खेल रहे थे। लेकिन तभी अध्यक्ष पद के चुनाव की घोषणा और फिर संभावित भावी अध्यक्ष का सत्ता-मोह इस पूरे किए धरे पर एक सवालिया निशान फैला दिया है।

    ऐसा नहीं है कि पहली बार कोई ऐसी “सेल्फ गोल” वाली स्थिति में पार्टी किसी एक नेता के महत्वाकांक्षाओं के कारण आ खड़ी हुई है। और ऐसा आखिरी बार हुआ है, इसकी की संभावना कम ही लगती है। क्योंकि समस्या पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में है जो किसी बड़े नेता के व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और पार्टी के सामूहिक लक्ष्य के बीच संतुलन बना पाने में असक्षम मालूम पड़ती है।

    इस से पहले ताजातरीन पंजाब, उसके पहले मध्यप्रदेश, गोआ, मेघालय, अरुणाचल आदि ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ पार्टी ऐसी ही राजनीतिक भँवर में उलझी और बिखरकर रह गयी। इन सब जगह एक ही ढर्रे की राजनीति समझ मे आती है कि शीर्ष नेतृत्व किसी व्यक्ति विशेष को विश्वास में लिए बगैर कोई बड़े कदम जैसे मुख्यमंत्री को बदलना या पार्टी संगठन में फेर बदल की कोशिश करती है।

    राजस्थान से पहले भी कई अन्य उदाहरण हैं जहाँ पार्टी नेतृत्व या उनके वफादारों ने पार्टी को संकट में डाला है। गोआ के 2017 विधानसभा चुनाव-नतीजों के बाद सबसे बड़ी पार्टी (17 सीट) के तौर पर उभरी कांग्रेस सरकार नही बना पाई और दूसरे नंबर की पार्टी BJP ने सरकार बना ली।

    बाद में पूर्व मुख्यमंत्री ल्युजिन्हों फलेइरो (Luzinho Faleiro) ने दावा किया कि कांग्रेस के पर्यवेक्षक अनुभवी दिग्विजय सिंह ने उन्हें सरकार बनाने के दाव को राज्यपाल के समक्ष पेश करने से रोक दिया था। परिणामस्वरूप कांग्रेस मे टूट और बिखराव सामने आया जो आजतक गोआ में जारी है।

    अरूणाचल प्रदेश में भी 2015-16 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नबम तुकी और उनके भतीजे नबम राबिया के बीच के गतिरोध के दौरान भी कांग्रेस आलाकमान या हाई-कमान पार्टी के प्रदेश इकाई के भीतर के मूड को भांपने में नाकाम रही थी। पार्टी ने तुकी के जगह कलिखो पुल को मुख्यमंत्री बना दिया लेकिन हलचल नहीं रुक पाया और अंततः पार्टी में यहाँ भी टूट हुई।

    मेघालय में भी पिछले साल 17 में से 12 विधायकों ने मुकुल संगमा के नेतृत्व में पाला बदल लिया और कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए।

    मध्यप्रदेश में भी एक तरफ़  ज्योतिरादित्य सिंधिया और दूसरी तरफ कमलनाथ-दिग्विजय सिंह की जोड़ी के बीच के तनाव को खत्म करने में पार्टी आलाकमान नाकाम रही जबकि ज्योतिरादित्य सिंधिया को राहुल गांधी के करीबी बताया जाता था।

    किसी निर्णायक संतुलन न बन पाने के कारण सिन्धिया ने अपने समर्थक विधायकों के साथ BJP में शामिल हो गए और कांगेस BJP पर पार्टी तोड़ने का आरोप लगाते रह गई लेकिन मध्य प्रदेश की सत्ता अपने हाँथ से गंवा दी।

    राजस्थान से पहले लगभग यही खेल पंजाब में भी हुआ था जहाँ एक पुराने क्षत्रप तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री तथा नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। फर्क सिर्फ इतना है कि वहाँ अमरिंदर सिंह को अपने विधायकों का वह समर्थन नहीं प्राप्त था जो आज राजस्थान में अशोक गहलोत को हासिल है।

    पंजाब की राजनीति को उस समय देखकर ज्यादातर राजनीतिक पंडित अंदाजा लगा रहे थे कि कांग्रेस की वापसी होगी। क्योंकि BJP और अकाली दल का गठबंधन टूट गया था, आम आदमी पार्टी अपने पांव जमाने की कोशिश कर रही थी।

    लेकिन अमरिंदर सिंह के विरोध के बावजूद सिद्धू को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष और फिर चन्नी को CM बनाने की कोशिश इस कदर नाकामयाब हुई कि सुफड़ा साफ होने जैसी पराजय हाँथ लगा। चन्नी आज कहाँ है, किसी को कुछ मालूम नहीं; सिद्दू भी सक्रिय राजनीति में नही दिखाई दे रहे हैं; अमरिंदर सिंह ने हाल में BJP की सदस्यता ले ली और कांग्रेस अब अपनी जमीन वहाँ खो चुकी है।

    राजस्थान में भी लगभग वैसी ही कोशिश हो रही है। सचिन पायलट (Sachin Pilot) निःसंदेह बहुत सक्रिय, युवा और पसंदीदा चेहरा होंगे लेकिन क्या शीर्ष नेतृत्व ने अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) को कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए राजी करते वक़्त यह सब बताया था? क्या उन्हें विश्वास में लिया गया था कि उनके उत्तराधिकारी सचिन पायलट होंगे जिन्हें नेतृत्व CM बनाना चाहती है? क्या विधायकों से किसी ने इसमुद्दे पर राय मशविरा की थी?

    अगर इन सवालों के जवाब हाँ है, तो फिर अशोक गहलोत जैसे लोग को पार्टी में रहने लायक नहीं है। और अगर इनके जवाब ना है, तो फिर कांग्रेस पार्टी को अभी फिलहाल बैठकर आत्ममंथन की आवश्यकता है, पदयात्रा और जन समर्थन की नहीं।

    पार्टी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा समय रहते बीच-बचाव न करने का यह सिलसिला एक राज्य के बाद दूसरे और फिर तीसरे राज्य में लागतार जारी है। राजनीति के गलियारों में यह शाश्वत सच है कि कांग्रेस जैसी पुरानी और बड़ी पार्टी में लोगों के व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा होंगे ही लेकिन यहीं पर पार्टी के आलाकमान और शीर्ष नेतृत्व की भूमिका बनती है कि पार्टी के सामूहिक और पार्टी कार्यकर्ताओं के व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के बीच कैसे संतुलन तलाशा जाए।

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    By Saurav Sangam

    | For me, Writing is a Passion more than the Profession! | | Crazy Traveler; It Gives me a chance to interact New People, New Ideas, New Culture, New Experience and New Memories! ||सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ; | ||ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ !||

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