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    बसपा सुप्रीमो मायावती

    हालिया संपन्न उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव के परिणाम हतप्रभ करने वाले थे। ऐसा इसलिए था क्योंकि बीते मार्च महीने में हुए विधानसभा चुनावों में सूबे में हाशिए पर रहने वाली बसपा ने 2 नगर निगम सीटों पर जीत दर्ज कर ली थी। इतना ही नहीं अन्य कई सीटों पर भी बसपा ने सत्ताधारी दल भाजपा को कड़ी टक्कर दी और निकाय चुनावों प्रमुख विपक्षी दल बनकर उभरी। बसपा की यह जीत इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि निकाय चुनावों में पार्टी ने पहली बार अपने उम्मीदवार उतारे थे। निकाय चुनावों में बसपा का प्रदर्शन सपा और कांग्रेस से बेहतर रहा। विधानसभा चुनावों में मिली करारी शिकस्त के बाद आलोचक और विरोधी पार्टियां बसपा को चुका हुआ मान रही थी पर निकाय चुनावों में अपने प्रदर्शन से बसपा ने सबको करारा जवाब दे दिया है।

    उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में 16 नगर निगमों में से 14 जगहों पर भाजपा के महापौर चुने गए वहीं 2 जगहों पर बाजी बसपा के हाथ लगी। पूर्ववर्ती सत्ताधारी पार्टी सपा और विधानसभा चुनावों में उसकी जोड़ीदार रही कांग्रेस का सूफड़ा साफ हो गया। चुनाव परिणामों के आने के साथ ही मायावती ने अपने आलोचकों का मुँह बंद कर दिया है। बसपा का यह प्रदर्शन काबिलेतारीफ माना जा रहा है क्योंकि बसपा सुप्रीमो मायावती ने स्वयं कोई भी रैली नहीं की थी जबकि कांग्रेस, सपा और भाजपा के कई बड़े चेहरे चुनाव प्रचार में नजर आए थे। चुनाव नतीजों ने जता दिया है कि बसपा का जनाधार अभी घटा नहीं है। बसपा की इस धमाकेदार वापसी से कई सियासी समीकरण बनते-बिगड़ते नजर आ रहे हैं। बसपा का जनाधार बढ़ने से जहाँ भाजपा का दलित कार्ड बेअसर हो सकता है वहीं 2019 में महागठबंधन की उम्मीदें भी धूमिल पड़ सकती हैं।

    भाजपा के गढ़ में भाजपा को मात

    निकाय चुनावों में बसपा ने सबको आश्चर्यचकित करते हुए अलीगढ़ में मेयर का चुनाव जीत लिया है। अलीगढ़ से बसपा प्रत्याशी मोहम्मद फुरकान ने भाजपा प्रत्याशी राजीव अग्रवाल को 11,990 मतों के अंतर से पराजित किया। अलीगढ़ में बसपा का ‘दलित + मुस्लिम कार्ड’ चल गया है। अलीगढ़ की जीत बसपा के लिए इसलिए मायने रखती है क्योंकि अलीगढ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपो का गढ़ कहा जाता है। अलीगढ़ में पिछले 22 सालों से भाजपा मेयर का चुनाव जीतते आ रही थी। अलीगढ़ की लोकसभा सीट भी भाजपा के कब्जे में है। अलीगढ़ जिले की सातों विधानसभा सीटों पर भी भाजपा का कब्जा है। ऐसे में अलीगढ़ फतह करना भाजपा के प्रभुत्व को चुनौती देने जैसा है। इस जीत से बसपा ने भाजपा को आने वाले सियासी भूचाल के लिए आगाह कर दिया है।

    अपने गढ़ में मजबूत हुई बसपा

    उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव में बसपा ने जिन 2 सीटों जीत हासिल की है वो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आती है। बसपा सुप्रीमो मायावती का ननिहाल भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले में स्थित है। इस वजह से इस क्षेत्र को बसपा का गढ़ भी कहा जाता है। बसपा जब-जब उत्तर प्रदेश की सत्ता में आई है उसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश का अहम योगदान रहा है। हालिया चुनाव नतीजों से स्पष्ट दिखता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा की पकड़ अभी कमजोर नहीं हुई है और उसे चूका हुआ मानने वाले बड़ी भूल कर रहे हैं। बसपा के इस धमाकेदार प्रदर्शन का असर आने वाले समय में देखने को मिल सकता है और वह उभरकर एक बार फिर देश के सियासी पटल पर छा सकती है। अब सबकी निगाहें बसपा सुप्रीमो मायावती के अगले कदम पर टिकी हैं।

    घटा नहीं है बसपा का जनाधार

    निकाय चुनावों के नतीजों से एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि बसपा के कोर वोटबैंक कहे जाने वाले दलित समाज पर आज भी बसपा की पकड़ कमजोर नहीं हुई है। बसपा का ‘दलित + मुस्लिम’ समीकरण निकाय चुनावों में भी कारगर रहा। 2014 लोकसभा चुनावों में कोई सीट ना मिलने के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बसपा के लचर प्रदर्शन पर सवाल उठने लगे थे। सियासी पण्डित और विरोधी दल बसपा को चूका हुआ मान चुके थे। जुलाई महीने में संसद के शीतकालीन सत्र में बसपा सुप्रीमो मायावती के राज्यसभा इस्तीफे के बाद तो सियासत में बसपा की भूमिका ना के बराबर रह गई थी। इससे पहले भी कई बार ऐसा हुआ है जब बसपा अपने खराब प्रदर्शन से उबरते हुए उत्तर प्रदेश की सत्ता तक पहुँची है। अब यह देखना है कि क्या बसपा पुराने इतिहास को दोहरा पाती है।

    संगठन को मजबूत करने में जुटी हैं मायावती

    संसद के मानसून सत्र के दौरान मायावती ने दलित अत्याचार के मुद्दे को आधार बनाकर राज्यसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। उनके इस कदम को विपक्षी दलों का पूरा समर्थन मिला था और आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने तो उन्हें अपनी पार्टी के टिकट पर राज्यसभा भेजने की पेशकश भी की थी पर मायावती ने इसे स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं वह लालू प्रसाद यादव के बुलावे पर उनकी रैली में शामिल होने के पटना भी नहीं गई। हालाँकि उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि जब तक सीटों का बँटवारा नहीं हो जाता वह मंच साझा नहीं करेंगी। मायावती इसके बाद से उत्तर प्रदेश में पार्टी की जड़ें मजबूत करने में जुटी हुई थी। बसपा सुप्रीमो मायावती पार्टी का खोया जनाधार साध रही थी जिसमें वो काफी हद तक सफल होती भी दिख रही हैं।

    हाशिए पर चल रही थी बसपा

    राजनीतिक दृष्टिकोण से पिछले कुछ वर्ष बसपा के लिए बिल्कुल भी अच्छे नहीं गुजरे थे। समाजवाद की लहर में 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में पार्टी के हाथ से सत्ता छिन गई थे और वह विधानसभा में प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका में रह गई। 2014 के लोकसभा चुनावों में बसपा ने अकेले दम पर चुनाव लड़ा और निराशाजनक रूप से उसे कहीं भी सफलता हाथ नहीं लगी। हालाँकि मतों के प्रतिशत के लिहाज से वह देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी रही पर उसे कोई भी सीट नहीं मिली। उम्मीद की जा रही थी कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से बसपा वापसी करेगी और उभरकर सियासी पटल पर आएगी। मगर भाजपा की आँधी बसपा को अपने लक्ष्य से कहीं दूर उड़ा ले गई। उत्तर प्रदेश विधानसभा में बसपा विधायकों की संख्या 80 से घटकर 19 पर जा पहुँची।

    कभी मायावती के विश्वासपात्र रहे बसपा के कई बड़े नेता भाजपा में शामिल हो गए है। केंद्र की सत्ताधारी भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए ने दलित कार्ड खेलते हुए उत्तर प्रदेश के कानपुर से ताल्लुक रखने वाले रामनाथ कोविंद को देश का राष्ट्रपति बनाकर बसपा के सबसे बड़े सियासी जनाधार में सेंधमारी कर ली और सूबे में पहले से ही मृतप्राय पड़े बसपा को और हाशिए की तरफ धकेल दिया। सहारनपुर में दलितों पर हो रहे अत्याचारों का मुद्दा बनाकर बसपा सुप्रीमो मायावती ने राज्यसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इस वजह से वह कुछ दिनों तक चर्चा में रही और उन्हें सभी विपक्षी दलों का समर्थन भी मिला। हालाँकि उनके इस्तीफे के बाद देश की सक्रिय राजनीति में बसपा की भूमिका ना के बराबर रह गई थी पर हालिया निकाय चुनावों के परिणाम बसपा में नई जान फूँक सकते हैं।

    लोकसभा उपचुनावों में उतर सकती है मायावती

    बसपा सुप्रीमो मायावती आजकल सूबे में बसपा का खोया जनाधार तलाशने में जुटी हुई हैं। बीते 18 सितम्बर को मायावती ने बसपा के गढ़ कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ में शक्ति प्रदर्शन के लिए विशाल रैली आयोजित की थी। इस रैली में भारी-भरकम भीड़ जुटाकर मायावती ने विरोधियों को यह दिखा दिया था कि बसपा का जनाधार अभी खिसका नहीं है। मायावती का यह दांव सफल भी रहा और निकाय चुनावों में इसकी बानगी भी देखने को मिली। बसपा सुप्रीमो मायावती के अगले कदम पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। मायावती के राज्यसभा इस्तीफे को शुरुआत से ही लोकसभा उपचुनावों से जोड़कर देखा जा रहा था। ऐसे में मुमकिन है कि उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे से खाली हुई फूलपुर लोकसभा सीट से वह अपनी दावेदारी पेश करें।

    फूलपुर लोकसभा सीट पर दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़े तबके का बड़ा जनाधार है और वर्तमान हालातों में बसपा सुप्रीमो मायावती एक मजबूत दावेदार बन सकती हैं। यह सीट बसपा के लिए काफी मायने रखती है और यहाँ से बसपा संस्थापक कांशीराम ने 1996 में चुनाव भी लड़ा था। हालाँकि उन्हें सपा के जंग बहादुर पटेल हाथों 16,000 से अधिक मतों से शिकस्त खानी पड़ी थी। राज्यसभा सदस्यता से इस्तीफा देने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती सूबे में संगठन मजबूत करने में जुटी हुई थी। निकाय चुनावों में मिली जीत फूलपुर उपचुनाव में बसपा के लिए संजीवनी का काम कर सकती है। वर्तमान परिदृश्य और जातीय वोटों के गणित के हिसाब से मायावती फूलपुर लोकसभा सीट से भाजपा के खिलाफ सबसे मजबूत उम्मीदवार हैं और उनकी उम्मीदवारी की दशा में विपक्ष के लिए जीत के हालात बन सकते हैं।

    महागठबंधन पर छाए संकट के बादल

    उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में बसपा की जीत का फायदा अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को मिला है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा की धमाकेदार जीत ने सभी सियासी दलों की नींद हराम कर दी थी। भाजपा की आँधी से कोई नहीं बच पाया और प्रचण्ड बहुमत के साथ भाजपा ने सूबे में सरकार बनाई। भाजपा को मिले इसे जनादेश से अन्य सियासी दल खौफजदा हो गए थे। विधानसभा चुनावों के बाद यह आसार बन रहे थे कि भाजपा का विजय रथ रोकने के लिए सपा, बसपा और कांग्रेस साथ आ सकते हैं। लेकिन निकाय चुनावों में बसपा के प्रदर्शन में आए सुधार को देखते हुए यह मुश्किल लग रहा है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि बिना सीटों के बँटवारे के वह किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेंगी। 2019 लोकसभा चुनावों के मद्देनजर होने वाले महागठबंधन पर अब संकट के बादल छा गए हैं।

    By हिमांशु पांडेय

    हिमांशु पाण्डेय दा इंडियन वायर के हिंदी संस्करण पर राजनीति संपादक की भूमिका में कार्यरत है। भारत की राजनीति के केंद्र बिंदु माने जाने वाले उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले हिमांशु भारत की राजनीतिक उठापटक से पूर्णतया वाकिफ है।मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक करने के बाद, राजनीति और लेखन में उनके रुझान ने उन्हें पत्रकारिता की तरफ आकर्षित किया। हिमांशु दा इंडियन वायर के माध्यम से ताजातरीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर अपने विचारों को आम जन तक पहुंचाते हैं।