पिछले दशक तक जिस ‘ग्लोबलाइजेशन (Globalization)’ शब्द दुनिया भर के देशों को करीब लाने का काम किया था, इस नए दशक में इसी ग्लोबलाइजेशन ने अभी तक विश्व को एक के बाद एक जख्म दिया है।
पहले कोरोना महामारी की विभीषिका जिसका वायरस एक देश मे पनपने के चंद दिनों के भीतर देखते ही देखते पूरी दुनिया को अपने चपेट में ले लिया। फिर अफगानिस्तान में हुए तख्ता-पलट ने दुनिया के आगे मानवीय मूल्यों की धज्जियाँ उड़ा कर रख दी।
अब दुनिया के सामने दूसरा संकट आ पड़ा है- “यूक्रेन संकट (Ukrain-Russia Crisis)” ! जानकारों की मानें तो अगर समय पर इस संकट का हल नहीं निकला तो निसंदेह तीसरा विश्व युद्ध दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।
क्यों इसे तृतीय विश्व-युद्ध की आहट मान रहे हैं विशेषज्ञ?
वैसे तो दुनिया ने कई दफ़ा दो देशों के बीच युद्ध की स्थिति को बनते-बिगड़ते हुए देखा है, लेकिन इस बार हालात थोड़े अलग हैं।
यूक्रेन को नाटो का समर्थन प्राप्त है और उसके साथ अमेरिका सहित दुनिया भर के कई अन्य शक्तियाँ खड़ी हैं। वहीं रूस अपने आप मे एक महाशक्ति है जिसे बीते कुछ सालों में विभिन्न मुद्दों पर चीन का समर्थन मिलता रहा है।
कुल मिलाकर दोनों ही तरफ़ दुनिया के महाशक्तियां जमी हुई हैं और ऐसे में किसी भी पक्ष के तरफ़ से एक गलती, तबाही का मंजर पैदा कर सकता है।
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भारत का “धर्मसंकट”
ग्लोबलाइजेशन के दौर में दुनिया भर के देशों की सरहदें बस मानचित्र तक सीमित रह गयी हैं। दुनिया भर के देश एक दूसरे पर तमाम बातों के लिए निर्भर हैं और ऐसे में एक देश की समस्या दुनिया भर के अन्य देशों को भी वैसे ही प्रभावित करती है जैसे हमारे शरीर के एक अंग का दर्द दूसरे अंग को प्रभावित करती हैं।
यूक्रेन समस्या भारत की कूटनीति और विदेश-नीति के लिए एक वृहद चुनौती लाकर सामने रख दिया है। भारत का रूस के साथ एक ऐतिहासिक अच्छे रिश्ते रहे हैं; वहीं दूसरी तरफ़ भारत अमेरिका और यूरोप के साथ बीते कई साल में क़रीब आया है और इन देशों के साथ भारत के अपने हित है।
आम तौर पर भारत दूसरे देशों के मुद्दे पर तटस्थ (Neutral) रहने की कोशिश करता है। यूक्रेन संकट पर संयुक्त राष्ट्र में खुली बहस से खुद को बाहर रखकर अपने तटस्थता को फिर से जाहिर किया है ।
कोविड19 महामारी ने भारत के अर्थव्यवस्था को काफ़ी पीछे धकेल दिया है। जैसे-तैसे कर के यह पटरी पर आती हुई दिख रही है। आर्थिक नीतियों को ध्यान में रखकर देखा जाए तो भारत के लिए अमेरिका और अन्य यूरोपीय देश अति-महत्वपूर्ण हैं।
यूक्रेन के साथ ही भारत का आर्थिक और रक्षा से जुड़े व्यापारिक भागीदारी (Economic & defense trade ties) है। भारत और अमेरिका के संबंध बीते दो दशकों में काफ़ी सुदृढ हुए हैं और दोनों देश बड़े पैमाने पर एक दूसरे के साथ व्यापार, रक्षा, कूटनीतिक और सांस्कृतिक भागीदारी निभाते हैं। ।
दूसरी ओर रूस के साथ भारत के संबंध ऐतिहासिक और एक अलग दर्जे के रहे हैं। भारत अपने पड़ोसियों से आये दिन सीमाओं पर परेशान रहता है और इस कारण भारत के रक्षा- उपकरणों की जरूरत हमेशा से रही है। भारत अपने रक्षा-उपकरणों की खरीद के लिए सबसे ज्यादा रूस पर निर्भर है। साथ ही दोनों देश एक तरह के भावनात्मक सम्बंधो से जुड़े हुए हैं।
ऐसे में यह एक यक्ष-प्रश्न सभी जानकारों और भारत के विदेश नीति के “थिंक टैंक” के समक्ष है।
चीन ने खुलकर किया रूस का समर्थन
भारत की तटस्थता भारत के लिए एक नई चुनौती लेकर आता है। दरअसल, चीन भारत के किंकर्तव्यविमूढ़ वाली स्थिति का फायदा उठाते हुए खुलकर रूस के समर्थन में आया। शी-जिनपिंग ने पुतिन को अपना समर्थन देते हुए कहा कि यूक्रेन विवाद में चीन उनके साथ खड़ा है।
पिछले कई सालों में रूस और चीन के बीच नजदीकियां बढ़ी है, इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है। यूक्रेन मामले में चीन रूस के समर्थन में आकर खड़ा होना भारत-रूस सम्बंध को भविष्य में प्रभावित कर सकता है।
भारत रूस को लेकर अपने रूख के लिए ऐसी ही स्थिति में 2014 में भी फंस गया था जब रूस ने क्रीमिया को रूस में मिला लिया था। भारत आज भी एक असमंजस की स्थिति में है कि इस पूरे मामले पर क्या रूख अख्तियार करना बाजिब होगा।
भारत के लिए “तटस्थता (Neutral)” ही बेहतर विकल्प
तमाम समीकरणों की समीक्षा के बाद भारत के लिए तटस्थता ही बेहतर विकल्प है। उसके पीछे की वजह यह है कि रूस और यूक्रेन के विवाद पर भारत का तटस्थ होना अपने पुराने मित्र रूस को भी नहीं अखरेगा।
एक बार मान लिया जाए कि भारत अमेरिका के साथ अपने हितों की रक्षा के लिए रूस के ख़िलाफ़ हो जाये तो ऐसे में चीन कोभारत के ख़िलाफ़ रूस को भड़काने के लिए एक मौका मिल जाएगा। चीन के साथ सीमा विवाद को लेकर भारत और रूस अक्सर ही टकराव की स्थिति में रहते हैं। इसलिए भारत ऐसा कभी नही चाहेगा कि उसका पुराना दोस्त रूस चीन के पाले में जा बैठे।
दूसरी तरफ़ भारत के तटस्थ रहने से अमरीका के साथ भी सबंधों पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ेगा। अमेरिका और चीन के कटु संबंध के कारण अमेरिका को चीन के ख़िलाफ़ एशिया में भारत का साथ जरूरी है।
भारत अगर तटस्थ रहकर इस मामले से खुद को दूर रखता है तो रूस भी इसे एक मौन समर्थन के नजर से देखेगा। रूस इस समय आर्थिक संकट की स्थिति से गुजर रहा है और ऐसे में भारत जैसे बाजार को वह खोना नही चाहेगा रक्षा उपकरणों के लिए भारत रूस के लिए सबसे बड़ा खरीददार है। रूस अभी के हालात में भारत के साथ अपने संबंध हरगिज नहीं ख़राब करेगा।
ग्लोबलाइजेशन के दौर में वैश्विक-राजनीति एक शतरंज का खेल की तरह है। ऐसे मे भारत के लिए “वेट एंड वॉच” ही बेहतर विकल्प है। परन्तु, भारत को अपने हितों को ध्यान में रखकर से इस विवाद का शांतिपूर्ण समाधान निकालने की कोशिश करनी चाहिए। अब यह कोशिश कोई जरूरी नहीं है कि खुलकर सामने आकर ही की जाए; यह कोशिश “बैक-चैनल डिप्लोमेसी (Back Channel Diplomacy)” के साथ भी की जा सकती है।