“लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ”– 7 मार्च को खत्म हुए उत्तर प्रदेश चुनाव (UP Elections 2022) के दौरान काँग्रेस का यह नारा खूब गूंजा। अब इन नारों के प्रदेश की राजनीति में कितना असर हुआ है, यह तो तभी तय हो पायेगा जब अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) के ठीक दो दिन बाद 10 मार्च को चुनाव परिणाम सामने आयेंगे।
उत्तर प्रदेश चुनाव (UP Elections 2022) में प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 40 फ़ीसदी सीटों पर महिला उम्मीदवारों को टिकट देने का फैसला किया था। बकौल प्रियंका, 40% टिकट महिलाओं को देने का मक़सद राजनीति में महिलाओं की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी और प्रतिनिधित्व देना है।
अब यह फैसला चुनावों के परिणाम में कैसा रंग जमाएगा, यह तो 10 तारीख़ को ही पता चलेगा लेकिन कॉंग्रेस की इस मुहिम ने बाकि दलों को महिलाओं की भागीदारी के बारे में सोचने पर मजबूर तो जरूर किया है जो कि एक बेहद ही काबिल-ए-तारीफ़-तारीफ़ मुहिम है।
यह सच है कि यह एक चुनावी नारा था- “लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ”…. पर कहानी का दूसरा पक्ष यह भी है कि 75 साल के परिपक्व भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी आज भी अपेक्षा के अनुरूप नहीं है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि कहीं राजनीति की दौड़ में हमारे देश की महिलाएं पीछे तो नहीं छूट गईं? क्या हमारे घर की औरतें आज भी चौखट के पाबंदियां नही तोड़ पा रही हैं?
भारतीय राजनीति और महिला-भागीदारी
आज़ादी के 75 साल बाद भी भारतीय राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी बेहद असंतोषजनक है। आज़ादी के बाद से अब तक लोकसभा में महिलाओं की संख्या इस बात का सबूत है कि भारतीय राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व रेंगती हुई आगे बढ़ी है।
1957 में हुए दूसरे आम-चुनाव मे निर्वाचित कुल लोकसभा सांसदों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज़ 4.5% के आसपास थी। उसके बाद से यह संख्या हर आमचुनाव के बाद बढ़ते-घटते रही है।
2004 चुनाव के बाद से महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगातार बढ़ रहा है जो कि अच्छा संकेत है। 2004 मे लोकसभा में निर्वाचित कुल सांसदों की संख्या का 8.7% महिला साँसद चुनकर आयी। 2009 और 2014 में यह प्रतिशत क्रमशः 10.7% और 11.6% रही है। 2019 में हुए 17वें लोकसभा चुनाव में कुल 545 सीटों में से 78 सीट पर महिलाओं ने कब्ज़ा जमाया है जो कि कुल सांसदों की संख्या का 14.6% है।
अभी लंबा है सफ़र…
1947 से तुलना की जाए तो इस बाद में कोई संदेह नहीं है कि महिलाओं का भारतीय राजनीति में दखल व प्रतिनिधित्व बढ़ा है लेकिन यह बढ़ोतरी कच्छप गति से हो रहा है।
यद्यपि की कुल संख्या का 14.6% सीटों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व होना निश्चित ही आज़ादी के बाद से लेकर अभी तक का श्रेष्ठ आंकड़ा है; तथापि आज़ादी के 75 साल बाद भी महिला वर्ग की भागीदारी पुरुषों की तुलना में कहीं ना कहीं बहुत पीछे है।
हिसाब बहुत सीधा है। महिलाएं इस देश की आधी आबादी है लेकिन इस आधी आबादी का प्रतिनिधित्व महज 14.6% हो, तो निश्चित ही लोकतंत्र में समेकित भागीदारी वाली बात एक छलावा लगती है।
इतिहास साथ रहा है, फिर कहाँ भटके हम ….
इतिहासकार विपिन चंद्रा अपने किताब “History of Modern India” में लिखते हैं कि भारत मे प्रथम आम चुनाव करवाना चुनाव आयोग के लिए बहुत टेढ़ी खीर थी।
जब चुनाव आयोग की टीम इलेक्टोरल रोल्स बना रही थी तो उन्हें वोट देने की योग्यता रखने वाली महिलाओं का नाम पूछना पड़ता था और महिलाओं का जवाब सुनकर स्तब्ध रह जाते थे। बहुत कम महिलाओं ने अपना असली नाम बताया वरना नाम पूछने पर जवाब आता था- “अमूक व्यक्त की माँ” तो “फलाने की पत्नी” इत्यादि।
यहाँ से शुरू हुआ लोकतंत्र का सफर जिसमें महिलाओं में इतनी लोक-लज्जा की अपने हक़ यानि वोट देने के अधिकार के लिए भी अपना नाम नहीं बता रही थी, 1966 आते आते उस मुक़ाम पर आ खड़ा हुआ जब इस देश ने प्रथम महिला प्रधानमंत्री को देखा।
इन्दिरा गाँधी ने जब इस देश का बागडोर थामा उस वक़्त अपने आप को विकसित कहने वाले पश्चिम के देशों में भी महिलाएं राजनीति से दूर थीं। श्रीलंका की श्रीमती भंडारनायके को छोड़ दे तो विश्व भर में कहीं भी कोई राष्ट्र मुखिया महिला नहीं थी।
भारत ने यहाँ से जरूर सोचा होगा कि शायद महिलाएं घर की दहलीज से बाहर निकलकर देश की राजनीति में बढ़चढ़कर हिस्सा लेंगी। लेकिन अफ़सोस की बात है कि वो चिंगारी कहीं थम सी गयी है और जिस रफ्तार से उनका दखल होना चाहिए था, प्रानीतिधित्व करने वाली महिलाएं राजनीति में आज भी बहुत दूर हैं।
महिला वोटरों के पास है कई प्रदेशों मे सत्ता की चाभी
यह और बात है कि ज्यादातर जगह महिलाएं वोट-बैंक ही हैं पर हाल के कई ऐसे प्रदेश- चुनाव रहे हैं जहाँ महिलाओं ने जाति, धर्म आदि से ऊपर उठकर लामबंद होकर सत्ता की चाभी अपने नेताओं के पक्ष में कर दी हैं।
बिहार में नीतीश कुमार ने लड़कियों के साईकिल योजना से लेकर पंचायत चुनाव में आरक्षण आदि जैसी ढेरों योजनाएं महिलाओं के लिए चलाई जिसका फायदा उन्हें हर चुनाव में मिला है।
मैं खुद बिहार से आता हूँ और यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि हमारे राज्य की महिलाओं ने लामबंद होकर नीतीश कुमार के लिए वोट किया जो बाद मे नीतीश कुमार को सत्ता में आसीन रखने के लिए पर्याप्त साबित हुआ है।
कुछ ऐसा ही समीकरण उड़ीसा में नवीन पटनायक की जीत में भी रहा है। उन्हें भी महिला वोटर्स का जबरदस्त समर्थन प्राप्त है और परिणाम सामने है कि अभी उड़ीसा की राजनीति में निर्विवाद पहले नंबर के नेता हैं।
बंगाल में ममता बनर्जी, या पूर्व में तमिलनाडु की जयललिता की राजनीति भी महिला वोटरों के इर्द गिर्द रही है और उन्हें महिला वोटर्स का समर्थन प्राप्त था।
लेकिन अभी भी कई राज्य ऐसे हैं जहाँ कई क्षेत्र-विशेष में महिलाओं को राजनीति के लिहाज़ से वैचारिक स्वतंत्रता या तो हासिल नहीं है या वो राजनैतिक रूप से जागरूक नहीं है। घर के पुरुष जिस पार्टी या प्रत्याशी का समर्थन कर रहे होते हैं, उन घरों की महिलाएं भी बिना कोई तर्क वितर्क के उसी पार्टी और प्रत्याशी का समर्थन करते हैं जिनका समर्थन उनके घर के पुरुष कर रहे हैं।
अभी उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुए हैं और उपरोक्त बात का सबसे बड़ा उदाहरण पश्चिम उत्तर प्रदेश या पूर्वांचल के ग्रामीण इलाकों में देखने को मिला है।
महिलाओं को जरूरत है एक राजनीतिक मंच की…
महिलाओं को जब कभी राजनीतिक मंच दिया गया, उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई हैं।
मैं यहाँ फिर से जिक्र करना चाहूंगा बिहार का ही जहाँ पंचायत चुनावों में महिलाओं को सबसे पहले 50% आरक्षण दिया गया। इस चुनाव में महिलाओं ने जमकर भाग लिया। महिलाओं ने धीरे-धीरे घर की दहलीज के बाहर कदम रखना शुरू किया और फिर उनके भीतर आत्मविश्वास आना शुरू हुआ। अब कई महिलाएं महज “रबर-स्टाम्प” वाली प्रतिनिधि नहीं रह गयी हैं बल्कि वो अपने घर, वार्ड, गाँव, जिला पंचायत आदि के कार्यवाहियों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेती हैं।
“डिसीजन-फॉलोवर्स” से “डिसिशन-मेकर्स” बनी महिलाएं ना सिर्फ अपनी जिंदगी में पुरुषों के बराबर हिस्सा ले रही है बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी इस बात के लिए तैयार कर रही हैं। यह जरूर है कि इन चुनावों ने “मुखिया-पति” नाम का एक नया सामाजिक ओहदा जरूर गढ़कर सामने आया लेकिन एक सकारात्मक बदलाव भी समाज मे देखने को मिलता है।
बिहार राज्य का 50% वाला फार्मूला पूरे देश के लिए एक रोल मॉडल बन सकता है। महिलाओं को अगर आगे लाना है तो हमें जमीनी स्तर पर खासकर ग्रामीण अंचलों में सुधार करने की आवश्यकता है और इस के लिए पंचायत-स्तर के चुनाव उनके राजनीतिक सफ़र का प्रथम पाठशाला साबित हो सकता है।
महिलाओं के कार्य-निपुणता का एक उदाहरण: खूब याद आई सुषमा स्वराज..
महिलाओं के कार्य-निपुणता का एक उदाहरण अभी सामने आया जब रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान यूक्रेन में फंसे भारतीयों को सुरक्षित निकालने की बात आई। ऐसे में पूरे देश को सुषमा स्वराज की याद जमकर आयी।
दरअसल विदेश मंत्री के कार्यकाल के दौरान सुषमा स्वराज का निजी ट्विटर एकाउंट विदेश में फंसे लोगों के लिए एक हेल्पलाइन नंबर के तरह था कि आप अपनी समस्या बस रखिये और आप तक मदद करने को तुरंत ही सुषमा स्वराज जी आगे रहती थी।
इसलिए अभी इस यूक्रेन संकट के दौरान शुरुआती 2 दिनों तक भारत सरकार अपने नागरिकों को निकालने में थोड़ी सुस्त दिखी तो पूरे देश ने एक सुर में सुषमा स्वराज को याद किया।
कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि महिलाएं अपने राजनीतिक हित-अहित की बेहतरीन परख रखती हैं, जरूरत है एक अच्छा मंच मिलने की। वह सरकार बनाने और गिराने की कुव्वत तो रखती हैं, साथ ही सरकार चलाने की भी जिम्मेदारी रखती है।
आज़ादी के 75 साल और 17 लोकसभा चुनावों के बाद भी इस देश ने महज एक महिला प्रधानमंत्री और 1 महिला राष्ट्रपति का देखा है। आज 545 में महज 78 महिला MP हैं जो कुल संख्या का 14.6% है, जबकि देश की आबादी में महिलायें लगभग 50% हैं। भारत के विभिन्न राज्यों और केंद्र-शाषित प्रदेशों को मिलाकर कुल 30 पदस्थ मुख्यमंत्रियों में बंगाल में ममता बनर्जी एकमात्र महिला मुख्यमंत्री हैं।
ये आँकड़े इस बात के गवाह हैं कि भारतीय राजनीति में महिलाओं को प्रतिनिधित्व हासिल करने में अभी लंबा सफ़र तय करना है।
ऐसे में “लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ…” वाली मुहिम एक अच्छा प्रयास माना जाना चाहिए। अब इसकी सफलता धरातल पर जो भी हो, वह वक़्त बताएगा लेकिन एक बात तो साफ़ है कि वक़्त आ गया है जब कांग्रेस के अलावे अन्य राजनीतिक दलों को भी इस विषय पर सोचना होगा। दूसरी बात, ऐसी मुहिम सिर्फ एक प्रदेश तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए बल्कि पूरे देश मे कुछ ना कुछ ऐसे विकल्प तलाशना चाहिए।
LIVE: हक की दावेदारी है, बढ़ते रहने की तैयारी है। #लड़की_हूँ_लड़_सकती_हूँ_मार्च
— Priyanka Gandhi Vadra (@priyankagandhi) March 8, 2022
(अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष)