बिहार विधानसभा चुनावों से ठीक पहले नीतीश कुमार की जेडीयू, लालू यादव की आरजेडी और कांग्रेस ने साथ आकर देशभर में चल रही ‘मोदी लहर’ के खिलाफ महागठबंधन की नींव रखी थी। उनका ये दांव बिहार के विधानसभा चुनावों में काफी कारगर साबित हुआ और महागठबंधन सत्ता में आई। इस जीत ने विपक्षी दलों को उम्मीदों के नए रास्ते दिखाए और केंद्रीय महागठबंधन के रूप में 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी के खिलाफ एकजुट होने का सन्देश दिया।
इस महागठबंधन की सोच में दरार तब पड़ी जब सीबीआई ने रेलवे घोटालों और बेनामी सम्पति में लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार के सदस्यों की संलिप्तता के आधार पर ताबड़तोड़ छापेमारी की। इस छापेमारी से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर पूरे यादव परिवार को आरोपी बनाया गया। यह भाजपा के लिए संजीवनी का काम कर गया। भाजपा ने इस मुद्दे को लेकर नीतीश कुमार पर दबाव बनाना शुरू किया और लालू यादव और उनके पुत्र तेजस्वी यादव के खिलाफ लगातार प्रदर्शनों का दौर जारी रखा। नीतीश कुमार को भी अपने सुशासन बाबू की छवि से लगाव था और वे किसी भी सूरत में इसपर आंच नहीं आने देना चाहते थे। इस बगावत की आग में घी डालने का काम किया राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी ने। नीतीश कुमार ने 17 विपक्षी दलों की सम्मिलित उम्मीदवार और ‘बिहार की बेटी’ मीरा कुमार के खिलाफ जाकर एनडीए उम्मीदवार कोविंद का समर्थन किया। तभी से महागठबंधन में दरार और बढ़ती गई।
तेजस्वी के इस्तीफे को लेकर मचा घमासान
महागठबंधन में अलगाव की मुख्य वजह तेजस्वी यादव का इस्तीफ़ा रहा। नीतीश कुमार को तेजस्वी के इस्तीफे से कम कुछ भी मंजूर नहीं था और लालू यादव बार-बार इसे नकार रहे थे। इस मुद्दे पर पिछले महीने भर से असमंजस की स्थिति बनी हुई थी। दोनों पार्टियों की ओर से बयानबाजी का दौर चालू था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने इस मुद्दे पर दोनों से बात कर उन्हें मनाने की कोशिश की थी पर नतीजे बेअसर रहे। इधर भाजपा की तरफ से नीतीश कुमार पर दबाव बढ़ता जा रहा था। भाजपा ने तो खुलेआम तेजस्वी की बर्खास्तगी पर नीतीश कुमार को समर्थन देने की बात भी कह दी थी। अंततः नीतीश कुमार ने इसपर अपना फैसला लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया। नीतीश के इस्तीफे के चंद घंटों के अंदर ही भाजपा ने उनके समर्थन का एलान कर दिया। आज नीतीश कुमार ने भाजपा के सहयोग से सरकार बना ली है और पुनः मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल कर ली है।
धूमिल पड़ी ‘केंद्रीय महागठबंधन’ की आस
केंद्र पहले ही कमजोर विपक्ष की समस्या से जूझ रहा है। ऐसे में बिहार में महागठबंधन का टूटना विपक्ष को और कमजोर करेगा। नीतीश कुमार को विपक्ष मोदी के खिलाफ एक मजबूत विकल्प के तौर पर देख रहा था और अगर राष्ट्रीय लोकप्रियता की भी बात करें तो यह सही नजर आता है। नीतीश कुमार के समान साफ़-सुथरी छवि वाला कोई और नेता फिलहाल देश में नहीं है। उनकी छवि से 2019 के चुनावों में महागठबंधन को निश्चित रूप से फायदा होता। पर हालिया कुछ घण्टों और नीतीश कुमार के एक कदम ने विपक्ष के ‘मिशन-2019’ की उम्मीदों को धराशायी कर दिया है।
अब अगर ‘केंद्रीय महागठबंधन’ की बात करें तो उसमे एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस नजर आती है। समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में कमजोर विपक्ष की भूमिका में है और बसपा अपनी जमीन तलाश रही है। लालू प्रसाद यादव अभी कांग्रेस के साथ हैं पर अपने फायदे के लिए किसी का भी हाथ थाम सकते हैं। फिलहाल लालू के सामने बड़ी मुसीबत है आरजेडी के 80 विधायकों को एकजुट रखना। केजरीवाल और ममता बनर्जी मोदी के खिलाफ कांग्रेस के साथ आ सकते हैं पर यह मुश्किल ही है कि दोनों की घटती लोकप्रियता विपक्ष के लिए संजीवनी का काम करे। ऐसे में विपक्ष के लिए ‘मिशन-2019’ तो क्या ‘मिशन-2023’ भी मुश्किल नजर आ रहा है।