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    भारतीय महिला

    कुछ ही दिन बीते हैं जब हमने “महिला दिवस” मनाया था। यह जश्न एक ऐसी सरकार के अंतराल में हो रहा था जो महिलाओं को पुरुषों के समान रखने के बजाय नारीत्व को विभिन्न माताओं (भारत माता) की तरह संबोधित करती है। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ नारी को शक्तिशाली दिखाने की जगह उसे त्याग की मूर्ती बताया जाता है।

    यह एक ऐसा समय है जहाँ देश के सबसे अधिक आबादी वाले प्रदेश के मुख्यमंत्री को लगता है कि महिलाओं के लिए उन्हें कुछ आदमियों को तैनात करने की आवश्यकता है जो “एंटी रोमियो दल” कहे जाते हैं

    आइये आज हम आपको बताते हैं कि आखिर आजादी के 70 सालों बाद भी भारत में महिलाओं की स्थिति क्या है?

    शिक्षा

    राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण(एनएफएचएस 4), 2015-2016 के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं द्वारा पूरी की जाने वाली औसतन शिक्षा 3.1 वर्ष हैं वही ग्रामीण पुरुषों में यही संख्या 5.8 वर्ष है। यही आंकड़े शहरी क्षेत्रों में महिलाओं के 7 वर्ष के मुकाबले पुरुषों में 8.5 वर्ष हैं। 

    इस सर्वेक्षण के दौरान यह बात सामने आयी थी कि 15-49 वर्ष की उम्र की 27.6% महिलाएं कभी विद्यालय नहीं गयीं वहीं यह आंकड़ा पुरुषों में केवल 12% थाबिहार और राजस्थान जैसे प्रदेशों महिलाओं का ये अनुपात 47.8% और 40.6% तक पहुँच जाता है।

    2016 के एमएचआरडी के सर्वेक्षण के मुताबिक, प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चतर शिक्षा तक की ओर बढ़ने पर शिक्षा के विभिन्न चरणों में नामांकित महिलाओं की संख्या में पुरुषों के अपेक्षाकृत कम गिरावट दर्ज होती है। शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर 93 महिलाएं प्रति सौ पुरुष नामांकित हैं जो उच्च शिक्षा में 85 महिला प्रति 100 पुरुष हो जाती हैं।

    रोजगार और वेतन में असमानता

    भारत में 15-49 के आयुवर्ग में आने वाली केवल 31% विवाहित महिलाऐं कार्यरत हैं। इसकी तुलना में पुरुषों में यह प्रतिशत 98% है। कार्यरत महिलाओं में 80% महिलाओं को धनराशी के रूप में उनका वेतन मिलता है, 7% को धनराशी और अन्य रूपों में उनका वेतन दिया जाता है और लगभग 16% महिलाओं को उनके काम के लिए कोई भी वेतन नहीं दिया जाता है। इसकी तुलना अगर पुरुषों में की जाये तो 91% कार्यरत पुरुषों को उनका वेतन धनराशी के रूप में दिया जाता है और केवल 7% पुरुषों को ही उनके काम के लिए कोई भी वेतन नहीं दिया जाता है। यदि महिलाओं में रोजगार की दर की तुलना की जाये तो यह 2005-06 में 43% की तुलना में 2015-16 में 31% पर पहुँच गयी थी।

    भारत के संविधान ने अनुच्छेद 39 (डी) और 41 के माध्यम से पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए ‘समान कार्य के समान वेतन’ और ‘काम करने का अधिकार’ के सिद्धांत को मान्यता दी। ये लेख राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के रूप में डाले गए हैं। धारा 4 के माध्यम से समान कार्य के लिए समान वेतन पर जोर दिया गया है। इन संवैधानिक और विधान प्रावधानों के बावजूद, भारत में महिला कार्यकर्ता अपने पुरुष समकक्ष से काफी कम मजदूरी कमाते हैं।

    महिला का धन और संपत्ति के स्वामित्व का उपयोग

    एनएफएचएस 4 के मुताबिक, भारत में केवल 42% महिलाएं ऐसी हैं जिनके पास कुछ ऐसा धन है जिसका उपयोग वे अपने अनुसार करती हैं। यह प्रतिशत 2005-06 में 45%  के मुकाबले 2015-16 में गिरकर 42% हो गया था। कुछ प्रदेशों में तो यह प्रतिशत अत्यधिक कम है। असम में महिलाओं का यह प्रतिशत 25.2% के निचले स्तर पर है, वहीं मध्य प्रदेश में यह 31% है, बिहार में 33.4% और ओड़िसा में 31.1%।

    2015-16 में हुए सर्वेक्षण के अनुसार भारत में केवल 37% महिलाएं ऐसी हैं जिनके पास खुद का घर है। यह प्रतिशत पुरुषों में 65% है। इसके अतिरिक्त किसी ज़मीन पर केवल 28% महिलाओं का अकेले स्वामित्व है और यह प्रतिशत पुरुषों में 49% है। हिमाचल प्रदेश में किसी घर पर स्वामित्व रखने वाली महिलाओं का प्रतिशत 9.8% और मिजोरम में 17.8% है। इसके अलावा किसी ज़मीन पर स्वामित्व रखने वाली महिलाओं का प्रतिशत हिमाचल प्रदेश में 8.9% और गोवा में 14% है।

    महिलाओं की स्वतंत्रता

    एनएफएचएस 4 के अनुसार जब महिलाओं को अकेले बाज़ार जाने की अनुमति हो, अकेले स्वास्थ्य सम्बंधित स्थानों पर जाने की अनुमति हो और अकेले ही शहर या गाँव से बाहर जाने की भी अनुमति हो। इस स्थिति में ऐसा कहा जाता है कि महिलाओं को  उनका फ्रीडम ऑफ़ मूवमेंट मिल रहा है।

    यदि सम्पूर्ण भारत वर्ष की बात की जाये तो केवल 54% महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें अकेले बाज़ार जाने की अनुमति होती है, केवल 50% को स्वास्थ्य केन्द्रों पर अकेले जाने की अनुमति होती है और मात्र 48% महिलाएं शहर या गाँव से अकेले बाहर जाती हैं। यदि सम्पूर्णता में देखा जाये तो केवल 41% महिलाएं ऐसी हैं भारत में जिन्हें अकेले इन तीनों स्थानों पर जाने की अनुमति होती है और 6% महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें इन तीनों ही जगहों पर जाने की अनुमति नहीं होती है।

    इससे भी अधिक दुःख की बात यह है कि 2005-06 से 2015-16 के लम्बे अन्तराल में इस प्रतिशत में केवल 8% की ही बढ़ोत्तरी आयी है। पहले यह प्रतिशत 33% था जो अब 41% हो गया है।

    घरेलू निर्णयों में महिलाओं की भागेदारी

    राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेस्क्षण-4 के अनुसार ऐसा माना जाता है कि महिलाएं 3 स्थितियों में घरेलू निर्णयों की भागेदार मानी जाती हैं। यदि वे अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निर्णयों में शामिल रहती हैं, घर की मुख्य वस्तुओं की खरीददारी में शामिल होती हैं और अपने रिश्तोंदारों से मेल जोल रखती हैं और उनके घर जाती हैं। इस सर्वेक्षण के दौरान इस बात का खुलासा हुआ था कि 63% महिलाएं ऐसी हैं जिन्होंने घरेलू निर्णय या तो अकेले लिए या फिर अपने पति के साथ और 16% महिलाएं ऐसी थीं जिन्होंने किसी भी निर्णय में कोई साझेदारी नहीं दिखाई थी।

    यदि सम्पूर्ण भारत को देखा जाये तो 15-49 की उम्र के अंतराल में लगभग 75% महिलाएं ऐसी हैं जो स्वयं या फिर अपने पति के साथ मिलकर अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निर्णय लेती हैं। हालांकि, ये प्रतिशत कुछ प्रदेशों में काफी कम है जैसे कि बिहार में 66%, आंध्र प्रदेश में 67% और दिल्ली, कर्नाटक और तेलंगाना में 68%।

    पति द्वारा वैवाहिक नियंत्रण

    यदि कोई भी पति अपनी पत्नी के ऊपर सम्पूर्ण नज़र एवं नियंत्रण रखता है तो यह उनके रिश्ते में हिंसा को दर्शाता है। ऐसा निम्न स्थितियों में किसी एक के सच होने पर माना जा सकता है: यदि वह अपनी पत्नी के अन्य पुरुषों से बात करने पर नाराज़ हो जाता है, उसे अक्सर विश्वासघाती कहता है, उसे उसकी महिला मित्रों से मिलने से रोकता है, उसके परिवार वालों से उसका मेलजोल कम कर देता है और प्रत्येक समय उसके बारे में जानकारी रखना चाहता है।

    एनएफएचएस-4 के सर्वेक्षण के अनुसार 15-49 की उम्र की 25% महिलाओं ने यह कहा कि उनके पति उनके द्वारा किसी अन्य पुरुष से बात किये जाने पर नाराज़ हो जाते हैं, 24% महिलाओं ने कहा कि उनके पति उनपर धन सम्बन्धी मामलों में भरोसा नहीं करते हैं और 20% महिलाओं ने कहा कि उनके पति उन पर सदैव नज़र रखते हैं और महिला मित्रों से उनको मिलने नहीं देते हैं।

    घरेलू हिंसा का शिकार हैं महिलाएं

    एनएफएचएस-4 के सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि 15-49 की उम्र में आने वाली एक तिहाई महिलाएं कभी न कभी शारीरिक, भावनात्मक या यौन हिंसा का शिकार हुई हैं।

    सम्पूर्ण भारत में किये गये सर्वेक्षण में पता चला है कि 6.4% महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हुई हैं। प्रति 100 में से 5 महिलाओं से ऐसा दावा किया है कि उनके पति ने उन्हें ज़बरदस्ती यौन सम्बन्ध बनाने के लिए मजबूर किया है। यही आंकड़े यदि प्रदेश के स्तर पर जांचे जाएँ तो बिहार में 11.4% महिलाएं, मणिपुर की 10.6%, त्रिपुरा की 9%, पश्चिम बंगाल की 7.4%, 7.3% हरियाणा की और 7.1% अरुणांचल प्रदेश की महिलाएं यौन उत्पीडन से पीड़ित हैं।

    लगभग 78.5% महिलाएं ऐसी हैं जिन्होंने शारीरिक हिंसा का शिकार उसके खिलाफ न ही आवाज़ उठाई और न ही किसी को बताया था। इसी प्रकार ऐसी 80% महिलाएं हैं जिन्होंने यौन उत्पीडन का शिकार होने पर किसी को नहीं बताया।

    एनएफएचएस-4 के सर्वेक्षण के अनुसार ऐसी केवल 14% महिलाएं हैं जिन्होंने शारीरिक या यौन उत्पीडन का शिकार होने पर उसके खिलाफ आवाज़ उठाई थी। 2005-06 के मुकाबले 2015-16 में घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली महिलाओं का प्रतिशत 24% से गिरकर 14% हो गया है।

    भारतीय राजनीती में महिलाएं

    अंतर संसदीय संघ द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार राजनीती में महिला प्रतिनिधियों के मामले में भारत 193 देशों की सूची में 149वे स्थान पर है। महिला प्रतिनिधियों का विश्व औसत 22% है लेकिन भारत में यह आंकड़ा केवल 11.8% ही है। रवांडा, बुरुंडी, जिम्बाब्वे, इराक, सोमालिया, सऊदी अरब, फिजी और घाना जैसे देश भारत की तुलना में उच्च स्थान पर हैं। दक्षिण एशियाई देशों में, नेपाल (48), अफगानिस्तान (54), पाकिस्तान (90) और बांग्लादेश (92) की भारत की तुलना में बहुत अधिक रैंक है। यहां तक ​​कि राज्य सभा में भी  महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 11.1% पर है।

    द वायर की रिपोर्ट के अनुसार अगस्त 2017 में भारत के 4128 विधायी निर्वाचन क्षेत्रों में केवल 364 महिला विधायक हैं जो केवल 8.8% है। 16वे लोक सभा चुनाव के दौरान सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ने केवल 9% टिकट महिला प्रत्याशियों को दिए थे, आईएनसी ने 13% टिकट दिए थे, सीपीआई ने 9% और बीएसपी ने महज़ 5% टिकट ही महिला प्रत्याशियों को दिए थे।

    संविधान 108 वें संशोधन बिल 2008, जिसे सामान्यतः महिला आरक्षण विधेयक के रूप में जाना जाता है में लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करता है। राज्य सभा ने 9 मार्च 2010 को बिल पारित किया था। हालांकि, लोकसभा ने बिल पर कभी मतदान नहीं किया। 2014 में 15 वीं लोकसभा के विघटन के बाद बिल समाप्त हो गया।

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