भारत-चीन सीमा विवाद (Indo-China Border Dispute): बीते हफ्ते चीनी सेना द्वारा भारत की सीमा में हुए ताजा घुसपैठ भारत-चीन सीमा विवाद को एक बार फिर ज्वलंत बना दिया है। इस बार यह घुसपैठ अरुणाचल प्रदेश के तवांग (Tawang, Arunachal Pradesh) सेक्टर के तरफ़ हुई। हालांकि यह टकराव लंबा नहीं खींचा और जल्दी ही चीनी सेना को वापस उनकी सीमा में भेज दिया।
ज्ञातव्य है कि अप्रैल 2020 में लद्दाख की गलवान घाटी (Galwan Valley) में चीनी सेना (PLA) द्वारा हुए घुसपैठ के बाद दोनों देशों की सेनाओं की टकराव में भारत ने तकरीबन 20 जवानों की शहादत दर्ज हुई जबकि चीन के तरफ इस से भी अधिक संख्या में जवानों की मृत्यु हुई थी। (चीन के तरफ से वास्तविक संख्या सार्वजनिक नहीं हुई लेकिन तमाम मीडिया खबरों में ऐसा दावा किया गया है)
गलवान घाटी से जुड़े विवादों को लेकर सैन्य अधिकारियों के स्तर पर लगातार वार्ताओं का दौर अभी जारी ही है; इधर भारत-चीन सीमा के अब पूर्वी हिस्से में तवांग सेक्टर में फिर से घुसपैठ और सैन्य टकराव की खबरें सामने आई हैं।
Due to timely intervention of Indian commanders, PLA soldiers went back to their locations. As a follow up of the incident, local Commander in the area held a Flag Meeting with his counterpart on 11 Dec 2022 to discuss the issue in accordance with established mechanisms: RM
— रक्षा मंत्री कार्यालय/ RMO India (@DefenceMinIndia) December 13, 2022
इस मुद्दे पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद के दोनों सदनों में यह स्पष्ट किया है कि इस बार कोई सैन्य हताहत की खबर नही है लेकिन लाठी-डंडे व शारीरिक धर-पकड़ के कारण कई भारतीय सैनिकों को चोट जरूर आयी है।
The scuffle led to injuries to a few personnel on both sides. I wish to share with this House that there are no fatalities or serious casualties on our side: Raksha Mantri
— रक्षा मंत्री कार्यालय/ RMO India (@DefenceMinIndia) December 13, 2022
यह बात किसी से छुपी नहीं है कि चीन के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी सरकार लगातार चुप्पी साधते हुए रही है और “इनकार की अवस्था (Denial Mode)” मे रही है। विपक्ष इन घटनाओं को वर्तमान मोदी सरकार की रणनीतिक कमजोरी बताते रही है जबकि सरकार इसे “राष्ट्रीय सुरक्षा” का मुद्दा बताकर सदन में चर्चा से भागती रही है।
यह सत्य है कि भारत चीन सीमा विवाद कोई नया मुद्दा नहीं है। ब्रिटिश शासन के दौरान जब अरुणाचल व कई अन्य जगहों पर भारत और चीन के बीच सीमा-निर्धारण किया जा रहा था, तो चीन ने उस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किया था। चीनी सैनिक गाहे-बगाहे मैकमोहन रेखा को पार कर भारत की सीमा में दाखिल होने की कोशिश करते रहे हैं।
भारत और चीन के बीच 1962 में एक सीधी जंग पहले ही हो चुकी हैं। लेकिन आज के दौर में चीन द्वारा भारतीय सीमा पर पर एक के बाद एक लगातार टकराव की स्थिति का उत्पन्न किया जाना पहले के मुकाबले थोड़ा अलग है।
आज भारत का- विश्व-राजनीतिक मंचों पर प्रमुखता से मुखर होना, अमेरिका सहित अन्य यूरोपीय देशों के साथ मजबूत सम्बंध स्थापित करना तथा अपनी तटस्थता की नीति के साथ चीन के प्रतिद्वंद्वी मुल्कों के साथ मित्रवत संबंध होना- आदि कई ऐसे मुद्दे हैं जो चीन को परेशान करती हैं।
स्पष्ट है कि आज के दौर में लद्दाख या तवांग या अन्य किसी स्थान पर चीन का आक्रामक रवैया भारत के लिए एक अलग चुनौती है। इसे 1962 के युद्ध का हवाला देकर, या पूर्ववर्ती सरकारों के माथे ठीकरा फोड़कर नहीं सुलझाया जा सकता है। यह भारत की विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के लिए एक बड़ी चुनौती है जिसे राजनीतिक चश्में के इतर देखने की आवश्यकता है।
एक तो यह कि दोनों देशों के बीच के राजनायिक-संबंध अपने न्यूनतम स्तर पर है। G-20 जैसे वैश्विक मंचों पर शिष्टाचार भेंट के अलावे जिनपिंग और मोदी के बीच कोई भी द्विपक्षीय मुलाक़ात पिछले 3 सालों से नहीं हुई है। लद्दाख में हुए मुठभेड़ के बाद सैन्य-दर्जे पर 13 दौर की वार्ता होने के बावजूद मुद्दे अभी भी अनसुलझे ही है।
जाहिर है दो देशों के बीच का सीमा-विवाद सैन्य-समझौते से नहीं हो सकता; खासकर जब बात भारत जैसे लोकतांत्रिक देश की हो। सेना के स्तर की वार्ता युद्ध की स्थिति को विराम पर ला सकता है, सीमा पर के तनाव को कम कर सकता है लेकिन उसका सम्पूर्ण हल तभी संभव है जब यह बात-चीत राजनायिक स्तर पर हो, उच्चत्तम स्तर पर हो।
दूसरी बात दोनों देशों का एक दूसरे के प्रति संबंधों को देखने का नज़रिया में अंतर से जुड़ा है जिसे भारत के पूर्व राजनयिक विजय खोखले ने अभी अपने एक लेख “A Historical Evaluation of China’s India Policy: Lessons for India China Relations” में कहते हैं:
चीन भारत के साथ अपने संबंध को हमेशा वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखता रहा है जबकि भारत इसे एक द्विपक्षीय संबंध के लेंस से ही देखता है। दूसरे शब्दों में कहें तो चीन का भारत के प्रति रवैया इस बात पर निर्भर करता है कि भारत दुनिया के दूसरे बड़ी शक्तियों जैसे अमेरिका आदि के साथ कैसा सबंध स्थापित करता है।
यह बात बीते कुछ सालों में भारत के प्रति चीन के अड़ियल रवैये में स्पष्ट नजर आती भी है। अभी तवांग में हुए सैन्य झड़प को भी कईं विशेषज्ञ अभी हाल में उत्तराखंड में हुए भारत और अमेरिका के संयुक्त मिलिट्री अभ्यास से जोड़कर देख रहे हैं। ज्ञातव्य हो कि चीन ने इस युद्धाभ्यास पर आपत्ति भी दर्ज करवाई थी।
2020 में लद्दाख के गलवान घाटी में भी जब दोनों सेनाएं आमने सामने हुई थीं तब भी यह बात उठी थी कि भारत का इंडो-पैसिफिक नीति (Indo-Pacific Policies) तथा क्वाड (QUAD) देशों के साथ बढ़ते सबंध से बौखलाए चीन ने भारतीय सीमाओं पर विस्तारवाद की निति का आहट दिया था।
तीसरा सबसे महत्वपूर्ण बात है कि वर्तमान सरकारें दोनों ही देश मे राष्ट्रवाद के मुद्दे से समझौता नहीं करना चाहतीं हैं। भारत मे वर्तमान मोदी सरकार राष्ट्रवाद के मुद्दे पर खुद को मजबूत दिखाने के लिए संसद में भी इस मुद्दे पर चर्चा नहीं चाहती। शायद एक डर है कि कहीं चीन के साथ कमजोर राजनीतिक पोजीशन सरकार की क्षवि ना खराब कर दे।
गलवान हमले के बाद भारत ने चीन के कई मोबाइल एप्प पर बैन कर एक संदेश देने की कोशिश की थी भारत चीन को आर्थिक रूप से सबक सिखाएगा। टीवी और व्हाट्सएप की दुनिया ने उसे भारत के वर्तमान नेता की क्षवि को मजबूत साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन सच्चाई इस से इतर है।
अव्वल तो यह कि गलवान हमले के बाद भारत और चीन के बीच कुल कारोबार 34% बढ़ गया है। संसद में पेश वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक भारत और चीन के बीच कुल कारोबार 115.83 बिलियन डॉलर का हो गया है। मार्च 2022 में ख़त्म हुए वित्त वर्ष में भारत का व्यापार घाटा 73.31 अरब डॉलर का रहा था।
स्पष्ट है कि भारत की मीडिया और सरकार के मंत्री जिस चीन को गलवान हमले के बाद आर्थिक सबक सिखाने का दावा कर रहे थे; स्थिति बिल्कुल उलट है।
चीन में भी राष्ट्रवाद को लेकर कमोबेश हालात ऐसी ही है। अभी वहां की सरकार के खिलाफ जीरो-कोविड नीति को लेकर जनता विरोध कर रही है। चीन की आर्थिक विकास दर भी थमती हुई नजर आ रही है। ऐसे में भारत से टकराव वहाँ की सरकार को जनता से राष्ट्रवाद के नाम पर समर्थन हासिल करने में मददगार साबित हो सकती है।
कुल मिलाकर देश के भीतर की आंतरिक राजनीति को साधने के लिए दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व सीमा-विवाद को यथास्थिति बनाये रखना चाहती है, सही नहीं है। भारत के संदर्भ में चीन और पाकिस्तान अगर यह सोचते है कि भारत शांतिपूर्ण तरीके से मामला सुलझाने के नाम पर सीमा विवाद को यथास्थिति बनाये रखना चाहता है ताकि आंतरिक राजनीति पर कोई प्रभाव ना पड़े; तो दोनों देश गलत नहीं है।
भारत के नागरिकों को अपने देश की सीमाओ को लेकर भी कितनी सही जानकारी है, यह भी स्पष्ट नहीं है। अभी हालिया तवांग सैन्य झड़प के बाद “द टेलीग्राफ” ने अपने एक रिपोर्ट में दावा किया है कि सेना के अधिकारियों को यह सख्त हिदायत है कि चीन के साथ होने वाली झड़पों को मीडिया में या किसी ऐसी जगह पर प्रकाश में ना लाएं।
इसी रिपोर्ट में सेना के अधिकारियों के हवाले से यह भी कहा गया है कि ऐसी झड़पें आये दिन सीमा पर होती हैं लेकिन इसे छिपा दिया जाता है ताकि केंद्र की बीजेपी सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी की “मजबूत नेता” की क्षवि को नुकसान न पहुँचे।
भारत और चीन एक दूसरे से लगभग 2100 KM की लंबी सीमारेखा को साझा करते हैं। बार बार उभरने वाले इन सीमा विवाद को भारत द्विपक्षीय मुद्दा के बजाए बड़े मंचो पर सामने रखना शुरू करे और विश्व में एक सहमति बनाये कि इस से सिर्फ भारत पर प्रभाव पड़ेगा, ऐसा नहीं है।
दूसरा अपने आंतरिक राजनीतिक गतिरोध को दरकिनार कर केंद्र सरकार विपक्ष को भी विश्वास में लेकर एक नई लकीर खींचे कि दिल्ली अब “यथास्थिति (Status Quo)” सीमा विवाद को रखने के बजाए उसे सुलझाना चाहता है।
केंद्र में कोई भी सरकार रही हो, चीन के मुद्दे परभारत सरकार हिचकिचाहट में रही है और आंतरिक राजनीतिक नफा नुकसान के चलते “यथास्थिति सीमा विवाद” को बनाये रखी है।
चीन के साथ गतिरोध सिर्फ सैन्य स्तर पर या सिर्फ राजनीतिक स्तर पर नहीं सुलझ सकता। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय कूटनीति, आर्थिक नीति, सैन्य-समाधान, तथा राजनीतिक दृढ़ता- हर मोर्चे पर भारत को मजबूती से मुकाबला करना होगा।