आप अक्सर कई नेताओं से के मुंह से ‘अखंड भारत’ का नाम सुनते होंगे। क्या आपको बता है अखंड भारत सही मायने में क्या है?
अखण्ड भारत मतलब वो भारत, जो कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और कच्छ से लेकर अरुणाचल तक फैला, वो भारत जिसको एक दो नही पूरे 565 रियासतों को मिलाकर बनाया गया है।
आज हम जिस अखण्ड भारत की बात करते हैं वो शायद अखण्ड न होता अगर सरदार पटेल, तत्कालीन वायसराय लार्ड लुई माउंटबेटन और उनके सचिव वी पी कृष्ण मेनन जैसे लोग न होते। आजादी के बाद भारत का एकीकरण बहुत संघर्षों के बाद हुआ।
दरअसल 1947 में भारत जब आजाद हो रहा था तो एक सवाल जो सब को अंदर ही अंदर खाए जा रहा था। वो सवाल ये था कि अब जब अंग्रेज वापस जा रहे हैं तो कितने देश आजाद हो रहे हैं, एक, दो या 565?
सवाल काफी वाजिब था और चिंता का विषय भी। क्योंकि जब अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा करना शुरू किया था तो ब्रिटिश संसद के अधीनीकरण प्रस्ताव के हिसाब से वो छोटे-बड़े रियासतों महाराजा अंग्रेजों के अधीन भले ही थे लेकिन वो अपने राज्य का राज-काज खुद ही देखने के लिए स्वतंत्र थे, जिसे पैरामाउंट सी कहा कहा जाता था। और बहुत सारी रियासतें तो ऐसी थीं जिनका अपना प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल, अपनी करेंसी और सेनाएं भी हुआ करती थीं।
अब जब अंग्रेज वापस जा रहे थे तो ब्रिटेन की संसद ने घोषणा की कि अंग्रेजों के वापस लौटने के साथ ही पैरामाउंट सी भी खत्म हो जाएगी और सभी राजा महाराजा अपनी पुरानी (गुलामी के पहले वाली) स्थिति में आ जाएंगे अर्थात सभी राजघरानों और नवाबों को अपनी खुद की हुकूमत चलाने का अधिकार होगा।
अभी भारत और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जैसे जवाहरलाल नेहरू सरदार वल्लभभाई पटेल आदि इतनी बड़ी घोषणा के लिए तैयार नहीं थे। क्योंकि अंग्रेजों ने पहले कहा था कि वह जून 1948 को भारत छोड़ेंगे लेकिन 4 जून 1947 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की प्रेस कॉन्फ्रेंस की महत्वता को ऐसे ही समझा जा सकता है कि उसके एक रात पहले यानी 3 जून को रातभर अगले दिन होने वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस की तैयारी करते रहे।
अगले दिन यानी 4 जून को हुई इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में 300 से भी ज्यादा पत्रकार आये। इसके साथ देश के तमाम छोटे बड़े महाराजा और नवाबों को भी बुलाया गया था। माउंटबेटन ने एक लंबा चौड़ा और काफी प्रभावशाली भाषण दिया। जिसमें उन्होंने कहा कि अब वक्त आ गया है कि सभी राजा-महाराजा अपने हितों का ध्यान खुद रखें, अब आने वाला समय उनका है और इसी के साथ उन्होंने ऐलान किया कि अब ब्रिटिश शासन अगले साल जून में नहीं बल्कि इसी साल अगस्त में हो जाएगा।
महाराजाओं नवाबों को 3 विकल्प दिए गए- या तो वो भारत से मिले या पाकिस्तान से मिले या फिर चाहें तो स्वतंत्र देश की तरह भी रह सकते हैं। कुछ दिनों बाद माउंटबेटन ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन यानी विलीनीकरण का मसौदा तैयार किया। जिसमें उन्होंने कहा कि अगर आप भारत के साथ मिलते हैं भारत आपकी सम्पूर्ण रक्षा करेगा।
शुरुआत में तो इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन पर कोई हस्ताक्षर नहीं करने वाला था। सभी यही चाहते थे कि वह अपना स्वतंत्र देश चलाएं। ऐसे में यह लगना लाजमी था कि अब भारत और पाकिस्तान नहीं बल्कि 565 रियासतें आजाद होने वाली है। इस बात से नेहरू और पटेल जैसे तमाम नेता काफी चिंतित थे।
इसी बीच 6 अगस्त को पाकिस्तान के भावी प्रधानमंत्री मोहम्मद अली जिन्ना ने जूनागढ़ के नवाब मोहम्मद मोहब्बत खान जोधपुर के महाराजा हनुमंत सिंह भोपाल के नवाब और जैसलमेर कुंवर के साथ एक मीटिंग की जिसमें जिन्होंने एक सादे कागज पर अपने हस्ताक्षर करके जूनागढ़ और जैसलमेर के राजाओं को दे दिया और कहा कि आप को पाकिस्तान में शामिल होने की एवज में जो चाहिए आप इसमें लिख सकते हैं।
अब जोधपुर का 36 हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र भारत के हाँथ से निकलने वाला था। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने माउंटबेटन से कुछ हल निकालने के लिए कहा तो माउंटबेटन ने जोधपुर के महाराजा हनुमंत सिंह को पहले खुद से मिलने बुलाया फिर उनको सरदार पटेल से मिलने की सलाह दी।
इसी के साथ ही त्रावणकोर के राजा ने भी विलीनीकरण के मसौदे पर अपने हस्ताक्षर कर दिए क्योंकि जब पटेल के मनाने के बाद भी वो नही माने थे तो सब कुछ जनता के हाँथ में चला गया था। जनता ने भारत में मिलने का फैसला किया था और इसलिए जनता ने अपने राजा पर दबाव बनाने के लिए विद्रोह शुरू कर दिया था। अंततः आजादी से 3 दिन पहले त्रावणकोर को भी हस्ताक्षर करना पड़ा था।
15 अगस्त आया, भारत को आजादी मिल गई। लेकिन अभी भी भारत को अखंड भारत बनाने का सपना अधूरा ही था। क्योंकि अभी भी जूनागढ़, हैदराबाद, भोपाल, और जम्मू कश्मीर के राजा और नवाब अपने राज्य को भारत में शामिल करने के पक्ष में नही थे।
जम्मू कश्मीर के राजा हरी सिंह अब भी अपने राज्य को स्वतंत्र रखना चाहते थे जबकि वायसराय माउंटबेटन ने साफ साफ कह दिया था कि आपके पास पाकिस्तान या भारत में मिलने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नही है क्योंकि भौगोलिक दृष्टि से कश्मीर पूरी तरह से दोनों देशों से घिरा हुआ है। उस समय की प्रमुख राजनीतिक हस्ती शेख़ अब्दुल्ला ने भी भारत में विलय का समर्थन किया था। लेकिन ब्रिटिश और भारतीय अधिकारियों की काफ़ी कोशिशों के बावजूद 15 अगस्त 1947 को जब ब्रिटिश राज का अंत हुआ, तब तक भी हरी सिंह किसी फ़ैसले पर नहीं पंहुच सके थे।
कबाइलियों को उरी में घुसने रोकने के लिए हरी सिंह के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने रास्ते में पड़ने वाले एक पुल को उड़वा दिया जिससे हरी सिंह को सोंचने का एक दिन का और मौका मिल गया। 24 को वो उरी को पार करते हुए बारामुला तक आ गए। लेकिन बारामुला में उन कबाइलियों की नीयत बदल गयी वो कब्जा करने के साथ-साथ लूटपाट और बलात्कार पर उतर आए। उन लॉरियों जिनमे वो बैठकर आये थे उनमें यहां का लूटा हुआ सामान पाकिस्तान जाने लगा।
24 अक्टूबर को ही राजा ने भारत सरकार से जम्मू को बचाने की अपील की। 25 अक्टूबर को राजा हरी सिंह, जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद्र महाजन और वी पी मेनन की मीटिंग हुई और 26 अक्टूबर 1947 को राजा ने भी विलीनीकरण के मसौदे पर अपने हस्ताक्षर कर दिए।
17 अगस्त 1947 को सुबह अखबारों से दुनिया को पता चला था कि जूनागढ़ ने पाकिस्तान के साथ मिलने का फैसला कर लिया है। 3337 वर्ग मिल क्षेत्र के और 6,70,000 आबादी वाले जूनागढ़ के नवाब मोहम्मद मोहब्बत अली खान के पाकिस्तान का साथ मिलने के फैसले से पटेल और वी के कृष्णमेमन से लेकर माउंटबैटन और नेहरू तक को चौंका दिया था।
19 सितंबर 1945 मेनन भारत सरकार की तरफ से जूनागढ़ के नवाब से मिलने के लिए जूनागढ़ गए थे, लेकिन तबियत ठीक नहीं होने का बहाना बता कर उनको नवाब से मिलने नही दिया गया था। फिर भी उन्होंने दिल्ली वापस आने से पहले दो छोटी छोटी रियासतों काठियावाड़ और मंगरोल को भारत में शामिल कर लिया। लेकिन जूनागढ़ के नवाब ने उन दोनों रियासतों पर अपनी सेनाएं भेज दी। चूंकि वो दोनों रियासतें अब भारत में शामिल हो चुके थीं तो भरत ने उनको बचाने के लिए जूनागढ़ पर सेना भेजकर किलेबंदी कर दी। हालांकि सेना ने कोई लड़ाई नहीं लड़ी। लेकिन भारत की ताकत और जूनागढ़ के लोगों को आंतरिक विरोध देखकर नवाब मोहम्मद अली खान डर गया और चुपके से पाकिस्तान भाग गया।
कुछ दिनों बाद यानी 7 नवम्बर 1947 को जूनागढ़ के दीवान शाहनवाज भुट्टो ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन पर अपने हस्ताक्षर कर दिए। हालांकि 7 फरवरी 1948 को जनमत संग्रह भी कराया गया था जिसमें भारत को 1.5 लाख वोट तो पाकिस्तान को 93 वोट मिले थे।
पटेल-मेनन इसको भारत मे मिलाने की कोशिश कर ही रहे थे लेकिन निज़ाम मान नही रहा था। क्योंकि अंग्रेज़ों के दिनों में भी हैदराबाद की अपनी सेना, रेल सेवा और डाक तार विभाग हुआ करता था।
उस समय आबादी और कुल राष्ट्रीय उत्पाद की दृष्टि से हैदराबाद भारत का सबसे बड़ा राजघराना था। उसका क्षेत्रफल 82698 वर्ग मील था जो कि इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के कुल क्षेत्रफल से भी अधिक था।
ये सब कुछ चल ही रह था कि नवम्बर 1947 को निजाम का दीवान कासिम रिज़वी दिल्ली आता है और सरदार पटेल को धमकी देते हुए कहता है कि हैदराबाद को भारत मे मिलाने का दम किसी में नही है। स्थिति को काबू में करने के एक प्रयास के तौर पर भारत सरकार को स्टैण्ड स्टिल एग्रीमेंट साइन करना पड़ा अर्थात एक ऐसा एग्रीमेंट जिसके मुताबिक एक साल तक यथा स्थिति बनी रहेगी।
हैदराबाद की 80 प्रतिशत जनता हिन्दू थी लेकिन फिर भी मुसलमान उनपर काफी जुल्म करते थे। भारत सरकार हैदराबाद के दीवान कासिम रिज़वी के नेतृत्व में रज़ाकारों (ये कासिम रिज़वी की अपनी कट्टर फौज थी।) के जुल्मों को लेकर कई बार सवाल खड़े होते रहे लेकिन भारत सरकार कुछ नही कर रही थी क्योंकि वो बातचीत से अपना हाल निकालना चाहती थी।
इसी बीच हैदराबाद के द्वारा पाकिस्तान सरकार को 20 करोड़ का ऋण दिये जाने पर भी भारत सरकार ने चाह कर भी कुछ नही किया। बाद में उसको अपनी 20 हजार तक की सेना रखने के साथ ही कई सारी सहूलियतें दी गई लेकिन वो पूरी आजादी पर अड़ा रहा। और तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत ने हमला होने की स्थिति में मामले को यूएनओ में ले जाने की बात कही। लेकिन उसके जुल्मों से तंग आकर आखिर में नेहरू-पटेल ने हैदराबाद पर सेना भेजने का आदेश दे दिया।
13 सितंबर 1948 को शुरू हुआ ऑपरेशन कैटाकुलर 5 दिनों तक चला। जिसमें 1373 रज़ाकार मारे गए। हैदराबाद स्टेट के 807 जवान भी शहीद हुए वहीं भारतीय सेना ने अपने 66 जवान खोए जबकि 97 जवान घायल हुए। 17 सितंबर 1947 को निजाम ने विलीनीकरण के मसौदे पर अपने हस्ताक्षर कर दिए।
अब भारत को एक सूत्र में बांधने का सपना पूरा होता दिखने लगा था। सभी रियासतों को भारत में मिला लिया गया था सिवाय भोपाल के। मार्च 1948 में तो भोपाल ने स्वतंत्र राज्य बने रहने की घोषणा भी कर दी थी। दो महीने बाद मई 1948 में भोपाल के नवाब हमीदुल्लाह ने अपना एक मंत्रिमंडल घोषित किया जिसके प्रधानमंत्री चतुर नारायण बनाए गए। लेकिन आंतरिक विरोधों और पटेल-मेनन के दबाव के बाद चतुर नारायण भी विलीनीकरण के पक्षधर हो गए। इसके बाद नवाब ने मंत्रिमंडल ही खारिज कर दिया।
इन सबके बीच वीपी मेनन एक बार फिर से भोपाल आए। मेनन ने नवाब को स्पष्ट शब्दों में कहा कि भोपाल स्वतंत्र नहीं रह सकता, भौगोलिक, नैतिक और सांस्कृतिक नजर से देखें तो भोपाल मालवा के ज्यादा करीब है इसलिए भोपाल को मध्यभारत का हिस्सा बनना ही होगा।
नवाब ने तो बहुत कोशिश की लेकिन अंततः उनको भी 30 अप्रैल 1949 को विलीनीकरण के मसौदे पर हस्ताक्षर करना ही पड़ा। इस प्रकार भोपाल भी 1 मई 1949 से भारत का अभिन्न अंग बन गया। इसी के साथ ही अखण्ड भारत बनाने का सपना भी पूरा हो गया।
भारतीय इतिहास के इस अध्याय को गहराई से समझने के लिए आप यहाँ दी गयी विडियो देख सकते हैं। यह विडियो एबीपी न्यूज के प्रधानमंत्री कार्यक्रम का हिस्सा है।
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सटीक एवं उपयुक्त शब्दों के सांथ सही जानकारी के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद…
very nice explanation … thanks for the content.