आजकल उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी कही जाने वाली वाराणसी सुर्खियों में है। इसके सुर्खियों में छाने की वजह पूर्णतया असांस्कृतिक है। दरअसल यह वजह सदियों से विश्व के समक्ष भारत की दानशीलता का नमूना पेश करने वाले काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से जुड़ी है। देश के सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में शुमार बीएचयू को पूर्वांचल में शिक्षा का मंदिर माना जाता है। आज कुछ अराजक तत्वों ने शिक्षा के इस मंदिर को कलंकित कर दिया है। इस कलंक को मिटाने और अपना अधिकार पाने के लिए संस्थान की हजारों छात्राएं सड़कों पर उतर आई हैं।
21 सितम्बर को शाम तकरीबन 6:20 पर विश्वविद्यालय परिसर में प्रथम वर्ष की एक छात्र के साथ बाइक सवार 3 लड़कों ने छेड़खानी की थी। मदद के लिए पुकारने के बावजूद मौके पर मौजूद सुरक्षाकर्मियों ने उसकी गुहार को अनसुना कर दिया था। शिकायत के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन के पास पहुँची छात्रा को वहाँ भी निराशा ही हाथ लगी और उल्टा उसे ही सवालों के कटघरे में खड़ा कर दिया गया। 21वीं सदी में आज जब एक महिला के कन्धों पर देश की रक्षा की जिम्मेदारी है, ऐसे में देश के एक प्रतिष्ठित संस्थान में शाम 6 बजे के बाद छात्राओं को ना निकलने की हिदायत देना शर्मसार करता है।
विश्वविद्यालय परिसर में मनचलों के बढ़ते आतंक से तंग आकर विश्वविद्यालय के सभी छात्रावासों की छात्राएं सड़कों पर उतर आईं और विश्वविद्यालय प्रशासन से अपनी सुरक्षा की गारंटी मांगने लगी। उनका गुस्सा सिर्फ इस घटना से ही नहीं था वरन सदियों से चली आ रही उस व्यवस्था के खिलाफ भी था जिसमें महिलाओं को अशक्त समझ हाशिए पर रखा जाता रहा है। उनका प्रदर्शन उस व्यवस्था के खिलाफ था जिसकी वजह से आज भी इस देश में महिलाओं को बराबरी का हक नहीं मिलता है और अपने अधिकारों के लिए उन्हें विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में 43 सालों से अटके पड़े एक बिल के पास होने का इंतजार करना पड़ता है।
विश्वविद्यालय में छेड़खानी की यह कोई पहली घटना नहीं थी। विश्वविद्यालय प्रशासन के रवैये से नाराज छात्राओं का समूह सिंहद्वार पर एकत्र हुआ और अपनी सुरक्षा की मांग और आरोपियों पर कार्रवाई को लेकर प्रदर्शन करने लगा। सिंहद्वार पर स्थित बीएचयू के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय की प्रतिमा के पास छात्राओं का प्रदर्शन शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा था। प्रदर्शनरत छात्राओं को लगातार प्रदर्शन वापस लेने की धमकी मिल रही थी। शुरूआती दो दिनों तक यह प्रदर्शन शांतिपूर्ण रूप से चला पर तीसरे दिन मध्य रात्रि को पुलिस द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन की नाक के नीचे निहत्थी छात्राओं पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया गया।
निश्चित तौर पर विश्वविद्यालय की स्थापना के वक्त महामना मदन मोहन मालवीय ने इस दिन की कल्पना नहीं की होगी। विश्वविद्यालय के गौरवमयी इतिहास में यह घटना एक काले अध्याय की तरह जुड़ गई और अपने साथ कई अनसुलझे सवाल छोड़ गई। विश्वविद्यालय प्रशासन लगातार लाठीचार्ज की बात से इंकार कर रहा है और आरोप लगा रहा है कि इस घटना में कुछ राजनीतिक दलों का हाथ है। फिर क्या छात्राओं को आई चोटें, कैमरे में कैद घटना की तस्वीरें और वीडियो सब झूठ है? शिक्षा के मंदिर में क्या कोई सियासी चाणक्य सेंधमारी कर गया है जो छात्राओं की आड़ लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन को किसी चक्रव्यूह में फंसा रहा है?
दुनियाभर में भारत की पहचान उसके सुनहरे अतीत और उसकी सांस्कृतिक विरासत से है। इस देश की संस्कृति तो लड़कियों को देवी मानती है और नवरात्रि में उन्हें पूजने को कहती है। तो क्या कन्या पूजन का यही तरीका है? क्या अब इस देश में देवियों की पूजा हथियारों से होगी और उन्हें रात में खुले आकाश के नीचे सड़कों पर रहने को मजबूर किया जाएगा?
आज देश की कमान हिंदुत्ववादी राजनीति के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले नरेंद्र मोदी के हाथ में है। उत्तर प्रदेश की सत्ता पर सियासी छवि के लिहाज से उनके अनुज माने जाने वाले योगी आदित्यनाथ काबिज हैं। जिस बीएचयू में अर्धरात्रि में निहत्थी छात्राओं पर लाठीचार्ज हुआ है वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में स्थित है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने वाराणसी दौरे पर हमेशा बीएचयू के सिंहद्वार स्थित महामना मदन मोहन मालवीय की प्रतिमा पर माल्यार्पण करने आते हैं। योगी आदित्यनाथ भी पूर्वांचल क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और वाराणसी को पूर्वांचल का दिल कहा जाता है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सियासी बेड़ियों में जकड़ कर हिंदुत्व के यह दोनों रणबांकुरे कैद हो गए हैं और हिन्दू धर्म के संस्कारों को भूल गए हैं?
बीएचयू के वाइस चांसलर गिरीश चन्द्र त्रिपाठी लगतार एक के बाद एक अशोभनीय बयान दे रहे हैं। अपना मुँह खोलने से पहले कम से कम एक बार उन्हें पद की गरिमा का ख्याल कर लेना चाहिए। अपनी सफाई में उन्होंने कहा था कि वह प्रदर्शनरत छात्राओं से मिलने हॉस्टल जा रहे थे पर बाहरी अराजक तत्वों ने उन्हें बीच रास्ते में ही रोक दिया। इसका अर्थ तो यही निकलता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन का विश्वविद्यालय पर अब नियंत्रण नहीं रहा। हालात अगर इतने खराब हो गए थे तो वाइस चांसलर ने हॉस्टल जाने के लिए पुलिस की मदद क्यों नहीं ली?
इस पूरे घटनाक्रम पर सियासी हुक्मरान मौन हैं। इक्का-दुक्का जो बोल भी रहे हैं वो इस घटना का इस्तेमाल अपना सियासी फायदा साधने के लिए कर रहे हैं। विपक्षी दल लगातार भाजपा पर आरोप लगा रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की खिंचाई कर रहे हैं। वही सत्ताधारी दल भाजपा इस घटना को वामपंथियों की करतूत बता रहा है और बीएचयू में नक्सलवाद की जड़ें उपजने की बात कर रहा है। अपनी भूमिका सुधारने के लिहाज से जरुरी सभी कदम प्रशासन उठा रहा है। सूबे के मुखिया योगी आदित्यनाथ ने घटना की न्यायिक जाँच के आदेश दिए हैं और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने कहा है कि वह इस घटना का राजनीतिकरण नहीं होने देंगे। पूरे देश में घटना की “कड़ी शब्दों में निंदा” हो रही है। और क्या चाहिए होता है?
प्रारंभिक जाँच रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि घटना में “बाहरी लोगों का हाथ” है। आइये जान लेते हैं कि भला ये कौन बाहरी लोग हैं जिन्हें विश्वविद्यालय प्रशासन ने अंदर आकर घटना को जन्म देने दिया? प्रदर्शनरत छात्राओं ने आरोप लगाया है कि इससे पहले भी कई बार इन कथित “बाहरी लोगों” द्वारा उनका पीछा किया जा चुका है। उनका कहना है कि सुरक्षा ड्यूटी पर लगे गार्डस उन्हें पानी पिलाते हैं। बनारस वैसे भी बड़े दिलवालों का शहर है। मुमकिन है एक मगही पान की मिठास इन “बाहरी लोगों” के सुरक्षा गार्डस के साथ रिश्तों को सींच रही हो। पर अब जब घटना में इनकी संलिप्तता पाई गई है तो सबकी सवालिया नजरें यही पूछ रही हैं – “बहुत याराना लगता है!”
ऐसा नहीं है कि घटना के बाद प्रशासन ने छात्राओं के हित में कोई कदम नहीं उठाया है। विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार किसी महिला को चीफ प्रॉक्टर बनाया गया है। यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है रोयाना सिंह को पर इसे उनका दुर्भाग्य कहना ही बेहतर होगा। इसे दुर्भाग्य क्यों ना कहे जब उनकी नियुक्ति का मकसद ही इस घटना की लीपापोती करना है। हालाँकि उन्होंने आते ही छात्राओं के सलूहियत का ध्यान रखते हुए एक के बाद एक कई बदलाव किए। उन्होंने लड़कियों को पहनावे से लेकर शाम को घूमने तक की आजादी दी है पर इस आजादी के पीछे दशकों से दबा पड़ा आक्रोश छिपा है। अब यह देखना है कि क्या एक महिला दूसरी महिला को सम्मान और अधिकार दिला पाती है?
छात्राओं के प्रदर्शन को वामपंथी विचारधारा से प्रेरित बताया जा रहा है और कहा जा रहा है कि इससे विश्वविद्यालय में नक्सलवाद की जड़ें उपजेंगी। अगर अपने अधिकारों के लिए लड़ना नक्सलवाद है तो सरकार का अंदेशा सही है। ये छात्राएं दशकों से विश्वविद्यालय में असुरक्षा की भावना में जी रही थी। सभ्यता और मर्यादा की रूढ़िवादी बेड़ियों में जकड़े-जकड़े इनका दम घुट रहा था। अब ये खुली हवा में सांस लेना चाहती हैं और अपने घर-परिवार से दूर विश्वविद्यालय में अपनी दुनिया बनाना चाहती हैं। इसमें गलत ही क्या है? प्रशासन के मुताबिक छात्राओं ने कानून को अपने हाथ में ले लिया है। 1200 अज्ञात छात्रों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो चुकी है। ऐसे में मुमकिन है कानून अपने लम्बे हाथों का फायदा उठाकर मामले की जड़ तक पहुँच जाए और प्रदर्शनरत छात्राओं का नक्सलियों से कोई कनेक्शन ढूँढ लाए।
विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर गिरीश चन्द्र त्रिपाठी का कहना है कि बीएचयू परिसर में राष्ट्रवाद को कमजोर नहीं पड़ने देंगे। विश्वविद्यालय प्रशासन ने आरोप लगाया है कि सिंहद्वार पर स्थित महामना मदन मोहन मालवीय की प्रतिमा पर प्रदर्शनकारियों द्वारा कालिख पोतने की कोशिश की गई। यह निश्चित रूप से निंदनीय घटना है और इसे इस देश का दुर्भाग्य कहा जाएगा। प्रशासन का कहना है कि वह आरोपियों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाएगी। यह निश्चित रूप से एक उचित कदम होगा पर कुछ राजनीतिक दल इस घटना की आंच में भी अपनी सियासी रोटी सेंकने का काम करेंगे। किसी भी घटना पर सबका अपना अलग नजरिया हो सकता है पर राष्ट्रीयता ही एक ऐसा बिंदु है जो देश को एकता के सूत्र में बाँधता है। ऐसे अपराध अक्षम्य हैं और प्रशासन को इस पर त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए।
विश्वविद्यालय प्रशासन बार-बार कह रहा है कि बीएचयू को जेएनयू नहीं बनने देंगे। सियासी बिंदुओं से परे जाकर देखें तो बीएचयू और जेएनयू का असली फर्क नजर आता है। जेएनयू की स्थापना वर्ष 1969 में हुई थी वहीं बीएचयू की स्थापना वर्ष 1916 में हुई थी। दोनों ही विश्वविद्यालयों की स्थापना का उद्देश्य देश की उच्च शिक्षा को नए स्तर पर ले जाना था। शुरूआती दौर में काफी हद तक दोनों ही संस्थान सामान गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करते थे पर धीरे-धीरे बीएचयू इस दौड़ में पिछड़ता गया। बीएचयू पूर्वांचल में स्थित होने की वजह से सवर्ण-हिंदुत्व राजनीति से प्रेरित रहा वहीं जेएनयू शुरुआत से ही वामपंथियों का गढ़ रहा।
बीएचयू और जेएनयू दोनों ही साधन संपन्न केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं। इसके बावजूद कई दशकों से बीएचयू की शिक्षा गुणवत्ता में लगतार गिरावट आ रही है। इसका बड़ा कारण केवल मूलभूत सुविधाओं का भाव नहीं बल्कि विश्वविद्यालय में व्याप्त भेदभाव भी है। जब बीएचयू में छात्रसंघ चुनाव हुआ करते थे उस वक्त भी सवर्ण उम्मीदवार ही चुनावों में हावी रहते थे। विश्वविद्यालय के स्थापना के शुरूआती वर्षों में कवियित्री महादेवी वर्मा को दाखिला देने से मन कर दिया था क्योंकि वह सवर्ण नहीं थी और महिला थी। महिलाओं और निचली जातियों से भेदभाव इस विश्वविद्यालय की पुरानी परंपरा है पर आज प्रदर्शनरत छात्राएं जाति-धर्म के सभी बंधनों को मिटाकर साथ खड़ी हैं। मुमकिन है यह विश्वविद्यालय में नए दौर की शुरुआत हो और विश्वविद्यालय वह मुकाम पाए जिसके उद्देश्य से इसका निर्माण किया गया था।
बीएचयू के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय हिन्दू महासभा के नेता थे। विश्वविद्यालय के नाम पर भी इसका स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। स्थापना के बाद से बीएचयू के इतिहास पर गौर करें तो यह पाएंगे कि विश्वविद्यालय में वाइस चांसलर पद को सुशोभित करने वाले अधिकतर नाम सवर्ण वर्ग के लोगों के हैं। हालाँकि इस विश्वविद्यालय में जामिया मिलिया इस्लामिया या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की तरह नाम के अनुरूप किसी विशेष आरक्षण का प्रावधान नहीं है पर इसकी विचारधारा के हिंदुत्व से प्रेरित होने की बात को नकारा नहीं जा सकता है। देश के सत्ताधारी दल भाजपा की पहचान आज हिंदुत्व आधारित राजनीति करने वाले दल की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं वाराणसी लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे में मुमकिन है इन विरोध-प्रदर्शनों से भाजपा को अपना आधार हिलता हुआ दिखाई दे रहा हो।
बीएचयू के वाइस चांसलर गिरीश चन्द्र त्रिपाठी का कार्यकाल विवादित रहा है। उन्होंने फिजी में यौन उत्पीड़न के दोषी पाए गए डॉक्टर के हाथों में सर सुन्दर लाल अस्पताल की कमान सौंप दी थी। उनपर आरोप लगा था कि उन्होंने ब्राह्मणवाद के चलते ऐसा किया है। अब उत्तर प्रदेश की योगी सरकार इस मामले पर संज्ञान ले रही है और वह गिरीश चन्द्र त्रिपाठी पर त्वरित कार्रवाई कर अपना पक्ष मजबूत कर सकती है। बीते दिनों हुए गोरखपुर हादसे पर भी सरकार ने कुछ ऐसा ही कदम उठाया था। गिरीश चन्द्र त्रिपाठी के कार्यकाल के 2 महीने अभी शेष हैं और उन्होंने छुट्टी पर भेजे जाने पर इस्तीफे की धमकी दी है।
इस पूरे घटनाक्रम में सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन दोनों ही मुख्य मुद्दे से भटक गए हैं। छात्राओं की शिकायत की विश्वविद्यालय परिसर में कई जगहों पर शाम के बाद धुप्प अँधेरा पसरा रहता है। वहाँ प्रकाश की कोई व्यवस्था नहीं है। अँधेरे की वजह से आस-पास का कुछ भी स्पष्ट दिखाई नहीं देता है। ऐसे में अगर कोई छेड़छाड़ करता है तो उसकी पहचान करना असंभव सा हो जाता है। छात्राओं का कहना था कि ऐसी सभी जगहों पर विश्वविद्यालय प्रशासन समुचित प्रकाश की व्यवस्था करे ताकि आने वाले समय में ऐसी घटनाओं से बचा जा सके। पर अभी तक इस मामले में कोई सुनवाई नहीं हुई है और छेड़छाड़ वाली जगह अँधेरे में डूबी हुई है। इसके साथ-साथ उन छात्राओं की उम्मीदें भी अँधेरे में कहीं खो गई हैं जो विश्वविद्यालय में पढ़कर दुनिया में ज्ञान का प्रकाश फैलाना चाहती थी।
पीड़ित छात्राओं पर विश्वविद्यालय प्रशासन का रवैया पीड़ित को प्रताड़ित करने जैसा है। सुरक्षा गार्डों ने शिकायत करने पहुँची छात्राओं को यह कहकर टरका दिया था कि उन्हें 6 बजे के बाद बाहर निकलने की क्या जरुरत थी। प्रदर्शनरत छात्राओं पर लाठीचार्ज करा प्रशासन ने यह बता दिया कि उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। वाइस चांसलर ने छात्राओं से मीडिया के सामने मिलने से इंकार कर यह जता दिया कि वह खोखले वादों और झूठे आश्वासनों के सिवा कुछ नहीं कर सकते। ऐसे में अब छात्राओं के सामने यह धर्मसंकट उत्पन्न हो गया है कि वह जाए तो कहाँ जाए। उनकी इस मुहिम को देशभर से समर्थन मिल रहा है पर उन्हें राह दिखाने वाला, उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। छात्राओं की नारेबाजी का शोर किसी तेज बहती नदी के पानी का आभास करा रहा है और मानो ये कह रहा है-
“हम भी दरिया हैं हमे अपना हुनर मालूम हैं, जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा”
केंद्र की सत्ताधारी मोदी सरकार पर अब सबकी निगाहें टिकी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महिलाओं को मजबूत बनाने और आगे बढ़ाने की बातें कही थी और काफी हद तक उन्होंने इसे चरितार्थ भी किया। सुषमा स्वराज को विदेश मंत्री बनाना हो या निर्मला सीतारमण को रक्षा मंत्री बनाना, भाजपा ने हर मोर्चे पर “महिला सशक्तिकरण” के नारे को बुलंद किया है। ट्रिपल तलाक जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी नरेंद्र मोदी ने महिलाओं की वकालत की थी और इसकी जीत का सेहरा भी उनके ही सर बँधा था। पर एक सवाल जो सबको कचोट रहा है कि अपनी वाराणसी यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी बीएचयू की छात्राओं से मिलने क्यों नहीं गए? हर बार की तरह इस बार भी उन्होंने मालवीय जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण क्यों नहीं किया? केंद्र सरकार क्या सचमुच महिलाओं के हित की पक्षधर है या वह सिर्फ सियासी मायने साधने के लिए उनके साथ खड़ी नजर आती है?
समय के गर्भ में क्या छुपा है यह किसी को नहीं मालूम पर पूरे देश की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर लेकर चलने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुख इस मामले पर बहुत महत्वपूर्ण है। उनकी चुप्पी सभी को कचोट रही है और देश उनसे जवाब चाहता है। लोकसभा चुनावों के वक्त नरेंद्र मोदी ने कहा था कि गंगा मैया के बुलावे पर वह वाराणसी आए हैं। वाराणसी ने उन्हें पलकों पर बिठाया और संसद पहुँचाया। आज उसी गंगा मैया की बेटियां उन्हें पुकार रही हैं। नरेंद्र मोदी को यह पुकार सुननी ही होगी वर्ना पूरा देश कहेगा कि मोदी के आने से बनारस के सुर बदल गए। यह तथ्यपरक भी है क्योंकि बीएचयू के मौजूदा हालात कुछ ऐसी ही कहानी बयाँ कर रहे हैं। इस गंभीर मसले पर विश्वविद्यालय प्रशासन का रवैया आज पूरे देश से चीख-चीखकर यही कह रहा है –
“अशक्त महिला, सशक्त भारत”
और हमारा मत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इससे कदाचित सहमत नहीं होंगे।