Sun. Dec 22nd, 2024
    Bihar Diwas 2022

    बिहार (Bihar) 22 मार्च 2022 को अपना 110वें स्थापना दिवस (Bihar Diwas) मना रहा है। सन 1912 में आज ही के दिन ब्रिटिश शासन के अधीन बिहार को बंगाल से अलग कर एक स्वतंत्र पृथक राज्य का दर्जा दिया गया था।

    विश्व के प्रथम गणराज्य की स्थापना से लेकर स्वतंत्र भारत को पहला राष्ट्रपति देने वाला यह राज्य, आज एक ऐसे मुक़ाम पर खड़ा है जिसे अक्सर ही “बीमारू राज्य” की संज्ञा से नवाजा जाता है।

    नालंदा, विक्रमशिला उदंतपुरी जैसे विश्वविद्यालयों की यह धरती जो प्राचीन काल मे न सिर्फ भारत वर्ष, बल्कि सम्पूर्ण दुनिया के लिए ज्ञान का केंद्र रही यह भूमि आज बद्तर शिक्षा व्यवस्था, भीषण ग़रीबी व बेरोजगारी, राज्य के भीतर रोजगार के संभावनाओं के अभाव में एकतरफा पलायन, अनियंत्रित जनसंख्या, व घटिया स्वास्थ्य समस्याओं आदि जैसे गंभीर समस्याओं से जूझ रही है।

    बिहार (Bihar) है देश का सबसे ग़रीब और कुपोषित राज्य

    कभी मौर्य और गुप्त वंश के शासकों के ध्वज के नीचे लगभग सम्पूर्ण अखंड भारत पर राज्य करने वाली मगध की धरती आज देश का सबसे ग़रीब राज्य बन गया है।

    नीति आयोग (NITI Aayog)  द्वारा जारी बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक (Multi-Dimensional Poverty Index- MPI) रिपोर्ट 2021-22 के अनुसार बिहार राज्य की आधी से ज्यादा आबादी (51.91%) ग़रीब है। बिहार के साथ इसके दो पड़ोसी राज्य झारखंड और उत्तर प्रदेश (UP) क्रमशः दूसरे (42.16%) और तीसरे (37.79%) स्थान पर है।

    क्या है बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक (Multi-Dimensional Poverty Index-MPI)

    MPI नीति आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट है जो ग़रीबी को उसके विभिन्न आयामों में मापने के प्रयास करता है। यह प्रति व्यक्ति खपत-व्यय (Per Capita Consumption) के आधार पर मौजूदा गरीबी के आंकड़े प्रदान करता है।

    वैश्विक स्तर पर इसे UNDP (United Nations Development Program) और OPHI (Oxford Poverty & Human Development Initiative) द्वारा जारी किया जाता है वहीं भारत मे इसे राष्ट्रीय स्तर पर नीति आयोग जारी करता है।

    MPI मुख्यतः समान रूप से 3 भारित आयामों पर आधारित है- स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर । इन 3 आयामों को 12 संकेतकों द्वारा दर्शाया जाता है- पोषण, स्कूल में नामांकन, स्कूली शिक्षा, पेयजल, स्वच्छता, आवास, बैंक खाते इत्यादि।

    बद्तर शिक्षा व्यवस्था और “ब्रेन ड्रेन”

    बिहारियों के दिमाग का लोहा पूरी दुनिया ने माना है। आज भी देश के प्रतिष्ठित प्रतियोगी परीक्षाओं में बिहार का जलवा कायम है। पत्रकारिता से लेकर इंजीनियरिंग तक, शासन-प्रशासन से लेकर दफ्तर के बाबू तक, सेना से लेकर राजनीति तक हर जगह बिहारी प्रतिभा की तूती है। लेकिन यह एक कड़वी हक़ीक़त है कि इन सब को हासिल करने के लिए ज्यादातर बिहारी छात्रों को बिहार से बाहर जाना पड़ता है।

    लकवाग्रस्त है बिहार में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था

    कहते हैं, किसी बच्चे को पढ़ाई में रूचि लेने या पढ़ाई से भागने की शुरुआत प्रारंभिक शिक्षा से होती है। लेकिन बिहार के प्राथमिक सरकारी स्कूलों का हाल ऐसे हैं मानो यह सम्पूर्ण व्यवस्था बच्चों को स्कूल बुलाने के लिए बल्कि स्कूल से दूर रखने के लिए है।

    आप किसी भी जिले के 10 स्कूल का भ्रमण करिये। किसी स्कूल में बिल्डिंग नही है.. बिल्डिंग है तो शौचालय नहीं.. शौचालय है तो पेयजल की व्यवस्था नहीं.. कई स्कूलों में शिक्षकों की कमी है तो कहीं शिक्षक हैं भी तो स्कूल नहीं आते हैं।

    फिर एक बार मान लें कि यह सब व्यवस्था किसी स्कूल में हैं तो वहाँ के शिक्षकों के जिम्मे साल भर में अध्यापन के अलावे दुनिया तमाम का जिम्मा सौंप दिया जाता है। मसलन- गुरुजी को चुनाव ड्यूटी भी करनी है, उनको हाई स्कूल और इंटर जैसे परीक्षा में परीक्षक की भी ड्यूटी दी जाएगी। फिर जनसंख्या गणना में भी उनकी ड्यटी लगेगी, और उसके बाद पशु-पेड़ जंगल पहाड़ सबकी गणना गुरुजी को ही करनी है।

    सरकार ने देखा कि इन शिक्षकों के पास बहुत समय है तो खुले में शौच मुक्त सुनिश्चित करवाने का भी जिम्मा है। बिहार सरकार ने गुरुजी लोगों को महत्वाकांक्षी शराब बंदी योजनाओं में भी नशेड़ियों को पकड़ने और पकड़वाने की ड्यूटी में लगा दिया है।

    इन सब कामों से फुर्सत पाकर बेचारे शिक्षकगण कभी स्कूल गए भी तो वहाँ बच्चे ही गायब हैं। क्योंकि माता पिता की गरीबी ऐसी है कि वो काम पर जाएंगे तो घर के छोटे बच्चों को बड़े बच्चे संभाल रहे होते हैं।

    3 साल के कोर्स में लग जाते हैं 4 से 5 साल

    खैर, इस व्यवस्था से जैसे-तैसे पार पाकर के बिहारी छात्र जब कॉलेज पहुंचता है तो उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है – 3 साल के स्नातक के कोर्स को निर्धारित 3 साल में पूरा करने का। कॉलेज जाने वाले विद्यार्थियों के लिए स्नातक की डिग्री हासिल करना विश्व युद्ध जीतने से भी बड़ा है।

    बिहार के किसी भी यूनिवर्सिटी के छात्र से पूछिये क्या उनका स्नातक या परास्नातक जैसे डिग्री नियत समय सीमा में पूरा हो जाता है? जबाव आएगा:- …”हो ही जाता है। 3 नहीं तो चार-साढ़े चार साल में कर ही देते हैं पूरा।”

    जब तक उसका स्नातक की डिग्री घर आती है, बेचारे कई प्रतियोगिता परीक्षाओं उम्र सीमा वाली योग्यता से अपने कोटे के 2-3 साल गँवा बैठता है। बिहारी छात्रों का दर्द कभी किसी सरकार ने ना समझा है, ना समझने की कोशिश करते हैं।

    इसीलिए बिहार के छात्र, जिनकी आर्थिक स्थिति थोड़ी भी ठीकठाक है, बिहार छोड़कर दूसरे राज्यो में चले जाते हैं और वहाँ जाकर तमाम क्षेत्रों में अपने नाम बनाते हैं। इन सब के शोर के बीच उन छात्रों की चीख दबकर रह जाती है जो आर्थिक या किसी भी कारण से बिहार छोड़कर नहीं जा पाते।

    बिहार की पहचान: भीषण बेरोजगारी और पलायन

    बिहार की पहचान का पर्याय है- परिश्रम। कहते हैं- बिहारी जहाँ भी जाता है, वहाँ अपनी मेहनत का लोहा मनवा ही लेता है। माउंटेन मैन  दशरथ मांझी की धरती उनके जैसे ही कर्मठ और मेहनतकश लोगों की वजह से प्रसिद्ध है।  लेकिन मूल सवाल यहीं पर आकर अटक जाता है कि आखिर बिहार के लोग बाहर जाते ही क्यों हैं?

    पलायन बिहार के लोगों के हाँथ की लकीर हो मानो… वजह साफ है, बिहार के अपने ही राज्य में रोजगार का के अवसरों का अभाव। नतीजतन बिहार के भीतर पढ़े लिखे बेरोजगारों की संख्या बढ़ते जा रही है।

    एक औसत बिहारी पहले तमाम पढ़ाई करता है; फिर जब पढ़ाई पूरा करने के बाद रोजगार के अवसर की तलाश करता है तो वही “ढाक के तीन पात”। उसके आगे 2 ही विकल्प होते हैं- या तो किसी सरकारी नौकरी वाले प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करे या फिर पलायन।

    अब सरकारी संस्थानों में हर कोई तो जा नही सकता; नतीजतन घर परिवार को छोड़कर दिल्ली मुम्बई चेन्नई बंगलोर आदि शहरों की ट्रेन में बैठ जाता है। आप देश के किसी भी कोने में जाइये, वहां के मजदूर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा बिहारियों से भरा मिलेगा।

    ये लोग बाहर जाकर उन राज्यों के आर्थिक विकास में अपना योगदान भी बढ़ चढ़कर देते हैं पर समय समय पर “बाहरी” होने का दंश भी झेलना पड़ता है। अभी Covid 19 में देशव्यापी Lock-Down में बिहारियों का रिवर्स-माइग्रेसन की बानगी देखने को मिली थी कि कैसे जब पूरा देश घरों में बंद था, बिहार के लोग सड़कों पर थे।

    आधी आबादी है कुपोषण का शिकार

    कुपोषण बिहार में एक ऐसी समस्या है जो पीढ़ी दर पीढ़ी बिहार के विकास को प्रभावित करती आई है। आज बिहार की आधी आबादी कुपोषण से ग्रस्त है।

    बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक (Multi-Dimensional Poverty Index- MPI)के अनुसार बिहार में कुपोषित लोगों की संख्या भी सबसे अधिक है। इस मापदंड पर भी बिहार की आधी आबादी (51.88%) कुपोषण का शिकार है। मातृत्व कुपोषण के आंकड़े भी बिहार के संदर्भ में चिंतनीय है। 45.62% माताएं मातृत्व स्वास्थ (Maternal Health) की सुविधाओं से वंचित है।

    बिहार के आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों को आंगनवाड़ी या स्कूल आदि में इसलिए भेजते हैं ताकि मिड-डे-मील या Take-Home राशन जैसी योजनाओं से 2 वक़्त का खाना नसीब हो जाये।

    पिछले कुछ वर्षों में बिहार में हुए हैं कई सुधार, पर मंजिल अभी है बहुत दूर

    इस बात से इनकार नही किया जा सकता है बिहार में पिछले एक डेढ़ दशक में काफी कुछ बदला है। चाहे घर-घर बिजली पहुंचानी हो या गाँव-गाँव मे पक्की सड़क, नीतीश कुमार की सरकार को इसका क्रेडिट दिया जाना चाहिए।

    दरअसल बिहार आज जिन समस्याओं से जूझ रहा है उसके पीछे की असली वजह वहाँ 1970 के बाद से हुआ जातिवाद संघर्ष और उसके इर्द गिर्द घूमती राजनीति है।

    मैं खुद बिहार के नक्सल प्रभावित इलाके से आता हूँ और अपने बचपन के दिनों की तुलना में आज के बिहार के बीच का फर्क महसूस कर सकता हूँ। मेरी तरह 1980s और 1990s में पैदा हुई पीढ़ी का बचपन आतंक के साये और जनसंहार जैसी खौफ़नाक खबरों के बीच गुजरा है। तब ना बिजली होती थी, ना सड़क। ना पुलिस जनता की सुनती थी ना नेता। जाति और जाति- यही एकमात्र एजेंडा था।

    आज भी जाति वहाँ की राजनीति का अभिन्न हिस्सा है लेकिन आज सिर्फ यही एक मुद्दा है, ऐसा नहीं है। निःसंदेह बिहार बदल रहा है लेकिन इसे अभी बहुत कुछ और बदलना होगा।

    समय-समय पर उठती रही है विशेष राज्य के दर्जे की मांग

    बिहार के हालात बाकि राज्यो में अच्छे नहीं है, यह एक कोरी हक़ीक़त है। इसलिए समय समय पर बिहार के लिए “विशेष राज्य” के दर्जे की मांग उठती रही है। वर्तमान मुख्यमंत्री  श्री नीतीश कुमार के राजनीति का यह एक अहम एजेंडा रहा है।

    आज बिहार में श्री नीतीश कुमार और बीजेपी की सरकार है वहीं केंद्र में बीजेपी सरकार में जदयू (JD U) एक मुख्य सहयोगी दल है। ऐसे में इस से बेहतर मौका और नहीं हो सकता है कि बिहार को “विशेष राज्य” का दर्जा दिया जाए। लेकिन की मोदी सरकार का अभी तक का रवैया देखकर यह नहीं लगता कि उसकी बिहार के प्रति ऐसी कोई मंशा है।

    PM मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दी बिहार दिवस की बधाई

    केंद्र की मोदी सरकार बेशक बिहार को विशेष राज्य का दर्जा अभी देने के मूड में नही है लेकिन PM ने सभी बिहारवासियों को 22 मार्च को बिहार दिवस की बधाई जरूर दी।

    वहीं कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा और राहुल गांधी ने भी ट्वीट कर के बिहार दिवस की बधाई दी है।

    By Saurav Sangam

    | For me, Writing is a Passion more than the Profession! | | Crazy Traveler; It Gives me a chance to interact New People, New Ideas, New Culture, New Experience and New Memories! ||सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ; | ||ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ !||

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *