“परीक्षा पर चर्चा (PPC)” Vs “शिक्षा” और “सिस्टम” पर चर्चा: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) ने पिछले दिनों देश के विभिन्न हिस्सों के लाखों छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों से आगामी बोर्ड परीक्षाओं के मद्देनजर बात की और उनका हौसला अफजाई किया।
हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी 2018 के बाद से हर साल बोर्ड परीक्षाओं में सम्मिलित होने वाले छात्र-छात्राओं से “परीक्षा पर चर्चा (Pariksha Par Charcha)” करते रहे हैं। इस साल भी कक्षा 9 से 12वीं के लगभग 38 लाख छात्रों ने इस चर्चा में भाग लिया।
PM मोदी का यह कदम निश्चित ही एक सकारात्मक कदम है। प्रधानमंत्री का बच्चों के साथ खुद को उनके अभिभावक के तरह जोड़ना और उनका हौसला अफजाई करना निश्चित ही इन किशोरवय छात्र-छात्राओं के मन मे परीक्षा को लेकर पल रहे डर और तमाम दुविधाओं को कम करने में मददगार साबित हो सकती हैं।
Today, Hon’ble Education Minister Shri @dpradhanbjp interacted with the participants of #ParikshaPeCharcha2023 and listened to their experiences & thoughts.
Here are a few glimpses.#PPC2023 #ExamWarriors pic.twitter.com/wT1IZurtuM
— Ministry of Education (@EduMinOfIndia) January 27, 2023
इस कार्यक्रम का एक दूसरा उद्देश्य यह भी है कि असल मे यह बच्चे ही आगे चलकर देश का भविष्य बनेंगे। ऐसे में प्रधानमंत्री जैसे व्यक्तित्व का उनसे सहज होकर मिलना, उनसे सवाल-जवाब का मौका मिलना तथा खुलकर अपनी समस्याओं का रखना तथा उनका PM द्वारा जवाब देना या निराकरण करने की कोशिश करना- इन बच्चों के भीतर एक अच्छे छात्र के साथ साथ भविष्य में एक अच्छे नागरिक के गुणों को भी विकसित करेगा।
परंतु इस से इतर, इन बच्चों और छात्रों की एक दुनिया और भी है जो “परीक्षा में चर्चा” जैसे कार्यक्रमों की चकाचौंध में दब जाती है। वह दुनिया बड़ी भयावह है जिसे या तो प्रधानमंत्री देख नहीं पा रहे हैं या फिर देखना नहीं चाहते। अब इसके पीछे की वजह या तो उनकी।दूरदर्शिता की कमी है या फिर इसे अनदेखा करने की कुछ मजबूरियां।
छात्रों से जुड़ी इस दूसरी दुनिया की तस्वीर बयान करती है- हाल में आये ACER रिपोर्ट्स, “कोटा फैक्टरी” जैसी फिल्में, दिल्ली के करोलबाग, लक्ष्मी नगर या मुखर्जी नगर के किसी चाय के टपरी पर 20-30 साल के युवाओं का समूह, या फिर किसी खोमचे में समोसा तलता हुआ बाप और जूठी प्लेटें उठाता “छोटू” की जोड़ी।
छात्र, शिक्षा और परीक्षा से जुड़े यह वे मुद्दे हैं जिनपर हमदर्दी तो हर राजनीतिक दल को है लेकिन इसका निदान शायद ही किसी राजनेता के पास है। प्रधानमंत्री मोदी भी परीक्षा पर चर्चा भी सिर्फ बोर्ड परीक्षाओं में सम्मिलित हो रहे छात्रों से करते हैं।
PM मोदी कभी उन छात्रों से परीक्षा पर चर्चा क्यों नहीं करते जो 2019 में रेलवे के NTPC का फॉर्म भरते हैं, फिर सालों इंतेजार करते हैं, उसके बाद सड़को पर आकर प्रदर्शन करना पड़ता है कि सरकार मेरी “परीक्षा” ले। फिर परीक्षा के बाद आज भी उनकी बहाली प्रक्रिया बीच मे ही कहीं अटकी है, पूरी नहीं हुई है।
ऐसे ही SSC GD की परीक्षा को लेकर हज़ारों छात्र महाराष्ट्र से पैदल दिल्ली तक चलकर आते हैं। क्या PM मोदी ने इन छात्रों से इनकी “परीक्षा पर चर्चा” की है?
सेना में जाकर देश की सेवा और परिवार की उम्मीदों को एक सहारा देने की उम्मीद रखे लाखों छात्र जिनका शारीरिक दक्षता परीक्षा हो चुका था और लिखित परीक्षा बाकी था; लेकिन अग्निवीर स्कीम के कारण अब उनके सपने चूर-चूर हो गये। क्या प्रधानमंत्री इस “परीक्षा पर चर्चा” करना पसंद करेंगे? शायद नहीं।
फिर ऐसे में जो परीक्षा पर चर्चा प्रधानमंत्री मोदी कर रहे हैं और उन बच्चों से भविष्य में अच्छे नागरिक बनने की उम्मीद कर रहे हैं, शायद वही बच्चे भविष्य में सड़कों पर किसी रेलवे, SSC, IB, LIC, Banking आदि की परीक्षाओं को लेकर सड़को पर प्रदर्शन करेंगे। फ़िर इन्हीं बच्चों के लिए “उपद्रवी”, “देशद्रोही”, “गुंडे” आदि शब्दों का प्रयोग होगा। ऐसे में PM मोदी के परीक्षा पर चर्चा का दूरगामी प्रभाव तो कतई सही दिशा में नहीं जाता दिख रहा।
फिर बात परीक्षाओं तक ही महदूद नहीं है। सवाल शिक्षा के स्तर का भी है, जिसकी चर्चा करना बहुत जरूरी है। एक तरफ़ जहाँ निजी (प्राइवेट) विद्यालयों की फीस लगातार आसमान छू रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ सरकारी विद्यालयों के शिक्षा-स्तर रसातल में जा रहा है।
बेतहाशा महंगाई और कोविड के बाद कम हुए आय के स्तर ने साधारण आदमी के लिए दो बच्चों को भी प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना और फीस भरना शायद ऐसा है जैसे भूखे पेट हिमालय की चढ़ाई करनी हो। मजबूरन सरकारी स्कूलों का सहारा है, जो खुद ही राम-भरोसे चल रहे हैं।
हालांकि PM मोदी ने नई शिक्षा नीति को लागू कराने को भी कमर कस रखी है लेकिन इन नीतियों को धरातल पर उतारने के लिए जिन संसाधनों की आवश्यकता है, देश के ज्यादातर सरकारी स्कूलों में वह है ही नहीं। यह तो वही बात हुई कि अर्जुन के पास चिड़िया की आँख भेदने के लिए बाण तो हो पर धनुष ही नहीं है, फिर कोई कैसे लक्ष्य को हासिल करेगा।
देश के ज्यादातर सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। कंप्यूटर, पुस्तकालय (Library), आदि की बात छोड़िए; सरकारी स्कूल आज भी बुनियादी सुविधाएं जैसे शौचालय, बिजली, शुद्ध पेयजल, व शिक्षकों की उपलब्धता आदि की कमी से जूझ रहे हैं।
विश्व बैंक की विश्व विकास रिपोर्ट (World Development Report) 2018 के अनुसार भारत की शिक्षा-प्रणाली बदतर हालात में है।
हाल में प्रकाशित ACER रिपोर्ट 2022 (Annual Status of Education Report) के मुताबिक देश के लगभग 30% विद्यालयों में आज भी छात्राओं के लिए शौचालय नहीं है। वहीं 24-25% विद्यालयों में पेयजल की व्यवस्था नहीं है। हालांकि यहाँ यह बताना जरूरी है कि ये आँकड़ें ACER रिपोर्ट2018 की तुलना में सुधार भी दर्शाते हैं।
इस रिपोर्ट में एक अहम मुद्दे को भी उल्लेखित किया है। इसके मुताबिक, देशभर के बच्चों में मूल पठन क्षमता (Basic Reading Ability) में भारी गिरावट (2012 के पहले के स्तर से भी नीचे) दर्ज की गई है।
इस रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि बच्चों के बीजगणितीय क्षमता (साधारण गणना) में भी औसतन गिरावट दर्ज हुई है जो 2018 के पहले के स्तर पर पहुँच गया है। साथ ही कक्षा 5 तक के बच्चों में साधारण अंग्रेजी पढ़ने लिखने की क्षमता भी 2016 वाल्व स्तर से नीचे चला गया है।
कुल मिलाकर यह रिपोर्ट (ACER 2022) देश के नौनिहालों के शिक्षा के उस स्तर की तस्वीर बयां करती है जिसकी चर्चा सबसे ज्यादा होनी चाहिए, शायद “परीक्षा पर चर्चा” की चर्चा से भी ज्यादा।
अब इन तमाम शिक्षा की बुनियादी सुविधाओं को झेलकर किसी तरह बच्चे 10th बोर्ड पास कर लेते हैं तो शुरू हो जाता है IIT और PMT जैसे परीक्षाओं का दवाब, जिसे आजकल NEET कहते हैं।
महज़ 15-16 साल का बच्चा उस भंवर जाल में जाकर उलझ जाता है कि उसे ऐसा क्या करना चाहिए जिस से भविष्य सुरक्षित हो। और यही चिंता उसे “कोटा फैक्ट्री”” जैसी किसी जीवन की फ़िल्म का नायक बना देता है।
जाहिर है, “परीक्षा पर चर्चा” की आवश्यकता है; परंतु शिक्षा पर चर्चा की कहीं ज्यादा आवश्यकता है। क्योंकि समस्या की शुरूआत ही होती है- शिक्षा की नीतियों में खामियां के कारण। बेहतर कहें तो नीतियाँ भी नहीं, उनके निर्धारण के समय कुछ विशेष बिंदुओं को दरकिनार कर के नीतियों का निर्धारण समस्या की जड़ है।
दरअसल नीति निर्धारण के वक़्त अक्सर सभी स्कूलों और सभी छात्रों को समान खाँचें में रखकर नियम बना दिए जाते हैं जबकि इन नीतियों को बनाने वाले आला अधिकारियों को मालूम होता है कि देश के सभी छात्रों को एक जैसी शिक्षा नहीं मिलती, सबके आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक और शैक्षणिक स्थितियाँ एक दूसरे से जुदा होती हैं।
एक बात तो यह कि हमें अलग अलग वर्गों के लिए अलग अलग नीति की आवश्यकता है। और दूसरा सरकार की यह दायित्व है कि वह निजी संस्थानों और सरकारी संस्थाओं को एक स्तर पर लाने का प्रयास करे वरना प्राइवेट स्कूल शिक्षा के बजाए व्यवसाय का एक केंद्र बनकर रह गए हैं।
भाजपा के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा ने इसी “परीक्षा पर चर्चा” के ऊपर जनसत्ता में एक लेख लिखा है। इसमें दिए उन्हीं के दिये एक आँकड़ें के मुताबिक, भारत मे 1995-2020 के बीच पौने दो लाख बच्चों न आत्महत्या की है, जिनमें स्कूल, महाविद्यालय के छात्र और शोधार्थी (Research Scholar) शामिल हैं।
माननीय सांसद के द्वारा दिये गए यह आँकड़ें बता रहे हैं कि परीक्षा पर चर्चा हो लेकिन सिर्फ़ उनसे ही नहीं जो बोर्ड की परीक्षा दे रहे हों; बल्कि प्रधानमंत्री को चाहिए कि उन छात्रों से भी चर्चा करें जिनका ग्रेजुएशन 3 के बजाए 5 साल में हो रहा हो और इसके कारण कई प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ पाने की पात्रता खत्म हो जाती हो।
“परीक्षा पर चर्चा” ऐसे युवाओं से भी करने की आवश्यकता है जो UGC NET, JRF, SRF आदि जैसी परीक्षाओं को पास करने वाले उन छात्रों से भी चर्चा करें जिनके फेलोशिप (Fellowship) का पैसा सरकार आवंटित ना करे और दवाब में गलत कदम उठा ले; जिन्हें सरकार नौकरी देने का सपना दिखाकर फॉर्म्स भरवाती है फिर वर्षों तक परीक्षा या चयन प्रक्रिया के पूर्ण होने का इंतजार करना पड़े।
ऐसी चर्चा PM मोदी हर साल ना सही एक बार तो करें इन छात्रों से; शायद इस से उन संस्थाओं पर कोई दवाब बने जो 10वीं और 12वीं की परीक्षा के बाद वर्षों से और वर्षों तक “व्यवस्था” की मार झेल रहे इन छात्रों के भविष्य से खेल रहे हैं।