नेहरू की प्रासंगिकता (Relevance of Nehru): भारत की आज़ादी की लड़ाई में आखिरी के 10 वर्षों में भारत की राजनीति और आज़ादी के बाद के भारत की परिकल्पना के चार धुरी थे: महात्मा गांधी, सरदार पटेल, पंडित नेहरू और बाबा साहेब आंबेडकर।
गाँधी की सत्य और अहिंसा से प्रेरित अनवरत संघर्ष, नेहरू की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक पकड़ ने एक ओर भारत के आज़ादी की लड़ाई को दिशा प्रदान किया; वहीं दूसरी तरफ़ पटेल की प्रशासनिक पकड़ और भारत को छोटे-छोटे राजसी प्रान्तों को जोड़कर एक करने की दृढ़ इच्छाशक्ति तथा बाबा साहेब की कानूनी विद्वता ने एक ऐसे भारत की परिकल्पना की जिसका सपना भारत के लोगों ने देखा था।
पंडित जी “सॉफ्ट टारगेट “
असल में भारत आज का कोई भी राजनेता गाँधी से वैर नहीं लेना चाहता, कम से कम खुले मंच से तो बिल्कुल ही नहीं। गाँधी महज़ हाड़-मांस का कोई पुतला नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत की पहचान रहे हैं।
फिर पटेल की आलोचना नहीं कर सकते क्योंकि आजकल “एक देश, एक निशान… एक देश, एक विधान.. एक देश, एक राशनकार्ड.. One Nation, One Election” आदि जैसी चीजें आपको हर दिन सुनाई देती है। इसलिए जाहिर है आप एक तरफ़ “एक देश, एक XYZ” बात करेंगे तो दूसरी तरफ देश के एकीकरण करने वाले सरदार पटेल की आलोचना कैसे की जा सकती है।
आंबेडकर को कटघरे में खड़े करने का मतलब दलितों के वोट-बैंक से सीधी टक्कर है। इसलिए दलित-विरोधी होने के टैग लेकर भारत की वर्तमान राजनीति में जो कोई भी नेता खतरा मोल लेना नहीं चाहेगा।
जाहिर है कि आज भारत की हर समस्या के लिए सॉफ्ट टारगेट बचते हैं- नेहरू। इसे ठीक ऐसे ही देखना चाहिए कि हम आप भी अगर अपने जीवन मे खुद कुछ नहीं कर पाते तो अपने माता पिता या पूर्वजो से कई दफा सवाल करने लगते हैं।
नेहरू की नीतियों पर सवाल करना, उस से सहमत या असहमत होना या नेहरू की आलोचना होना – यह सब कोई समस्या नहीं है। नेहरू यो खुद आलोचनाओं को हंसकर लेते थे। जानकार बताते हैं कि हिंदी साहित्य के बड़े कवि नागार्जुन और राष्ट्रकवि दिनकर नेहरू के सामने नेहरू का नाम लेकर खुलकर आलोचना करते थे और वह हंसकर इसे स्वीकार करते थे।
समस्या यह नहीं है कि कोई चौक चौराहे से उठा और नेहरू को दो चार उल्टे सीधे शब्द कह दिए। या फिर किसी चाय की टपरी या मुहल्ले के पान की दुकान पर होने वाली चर्चा में नेहरू के खिलाफ दुष्प्रचार कर दिया गया।
असल मे नेहरू को बदनाम और अपनी हर समस्या के लिए नेहरू को जिम्मेदार बताने के लिए संस्थागत प्रयास होते हैं। यह वाकई चिंता की वजह है। क्योंकि यह सब ज्यादातर वास्तविक तथ्यों को या तो बिल्कुल विपरीत या उसे तोड़-मरोड़कर बिना सन्दर्भ के ऐसे परोसा जाता है कि आज की नई पीढ़ी इसे ही सच मान लेती है।
नेहरू vs पटेल
सोशल मीडिया पर नेहरू को पटेल का सबसे बड़ा दुश्मन साबित करने के लिए हजारों पोस्ट तैर रहे हैं। नेहरू ने पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया जैसी बातों से लेकर सरदार पटेल की मृत्यु के बाद नेहरू और कांग्रेस द्वारा पटेल के परिवार को तुरंत दरकिनार किये जाने से न जाने ऐसे कितने ही आधारहीन तथ्यों की वास्तविकता से परे बातों को प्रचारित व प्रसारित किया जाता है।
जबकि सच्चाई इन सब से काफी अलग है। असल मे जब भारत को आज़ादी मिली तो सम्पूर्ण भारत मे लोकप्रिय, विदेशी मंचों पर भारत को कुशल व स्थायी नेतृत्व की क्षमता रखने वाले नेहरू को भारत के प्रधानमंत्री बने जिसे स्वयं पटेल तथा अन्य समकालीन नेताओं ने समर्थन दिया।
पटेल का नाम इसलिए भी आगे नहीं बढ़ाया क्योंकि एक तो पटेल बीमार रहने लगे थे और उम्र भी उनकी ज्यादा थी। इसी कारण पंडित नेहरू ने स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की शपथ ली।
दूसरा पटेल के जाने के बाद कांग्रेस पार्टी ने उनकी बेटी मणिबेन पटेल को पहले और दूसरे आम चुनाव में अपना उम्मीदवार बनाया और वे सांसद भी बनीं। मणिबेन के भाई दयाभाई पटेल को भी कांग्रेस ने तीन बार राज्यसभा भेजा था।
निःसंदेह पटेल और नेहरू स्वभाव और सोच में दो अलग व्यक्ति थे लेकिन दोनों कई मुद्दे पर गंभीर वैचारिक मतभेद होने के बावजूद एक ही राजनीतिक दल के नेता थे और दोनों का मक़सद भी एक ही था- नए भारत का निर्माण।
सरदार पटेल की चिट्ठियां भी यही बताती हैं कि उन्होंने समय समय पर नेहरू को खुद का नेता घोषित किया है। इसलिए नेहरू और पटेल को एक दूसरे के दुश्मन साबित कर रहे हैं, उन्हें इन पत्रकारों को खोज खोजकर पढ़ना चाहिये।
आज की नई पीढ़ी को यह सब जानने में ना रुचि है ना यही इतना वक़्त कि किताबों का अध्ययन करे। आज की युवा पीढ़ी को तो मीम (Memes), यूट्यूब पर 2 मिनट वाला शार्ट-वीडियो तथा व्हाट्सएप फॉरवर्ड पर ही शॉर्टकट का ज्ञान चाहिए। ऐसे में नेहरू, पटेल, गाँधी जैसे दिग्गज नेताओं को जानना और समझना मुश्किल है क्योंकि दो मिनट में तो बस मैगी बनती है, ज्ञान की इमारतें नहीं।
क्यों नेहरू आज भी हैं प्रासंगिक
जब नेहरू भारत के प्रधानमंत्री बने, न सिर्फ भारत की राजनीति बल्कि पूरे विश्व की राजनीति में उथल पुथल मची हुई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तब विश्व राजनीति में उत्पन्न ध्रुवीकरण की वजह से जो हालात थे, भारत जैसे नए-नवेले लोकतंत्र के लिए कतई आसान नहीं था।
जब दुनिया भर के देश USA (अमेरिका) और तत्कालीन USSR (रूस) जैसी दो महाशक्तियों के बीच दो खेमों में बंट गए थे,उस वक़्त में नेहरू ने गुट-निरपेक्षता (Non-Alignment) की नीति अपनाई थी। इस नीति को न सिर्फ भारत ने बल्कि दुनिया भर में कई देशों ने अपनाया जिसका नेतृत्व भारत कर रहा था। भारत जैसे गरीब संसाधन-विहीन देश के लिए यह कतई आसान नहीं था, पर नेहरू ने कर दिखाया।
नेहरू की इस नीति की प्रासंगिकता तब से लेकर आज तक बनी होती है जब किसी भी दो मुल्कों की टकराव में भारत “तटस्थता की नीति” का अनुसरण करने की बात करता है।
अभी रूस और यूक्रेन युद्ध मे भी जहाँ अमेरिका ब्रिटेन जैसे बड़े देश NATO के करीबी युक्रेन के साथ खड़े दिख रहे हैं, वहीं चीन और कई अन्य देश रूस का समर्थन कर रहे हैं। ऐसे में भारत को बार बार यह चुनौती दी गई कि संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठकों में वह यूक्रेन के पक्ष में मतदान करे, भारत ने लगातार तटस्थता की नीति को अपनाया और दोनों मुल्कों से शांति की अपील करता रहा है।
दूसरा आज जिस तरह से साम-दाम-दंड-भेद लगाकर विपक्ष को लगभग खत्म कर दिया गया है, यहाँ भी नेहरू की आवश्यकता जान पड़ती है। नेहरू स्वस्थ लोकतंत्र के लिए विपक्ष को अभिन्न हिस्सा मानते थे। नेहरू को हमेशा चिंता होती थी कि लोहिया चुनाव जीतकर संसद जरूर पहुँचे जबकि लोहिया हर मौके पर नेहरू पर जबरदस्त हमला बोलते थे।
आज RSS और उसके सम्बद्ध राजनीतिक दल BJP नेहरू या कांग्रेस को बदनाम करने के लिए हर तरह कब हथकंडों को अपनाते हों लेकिन यह नेहरू ही थे जिन्होने गाँधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे प्रतिबंधों को लंबे समय के लिए सही नही माना था और 1962 युद्ध के बाद एक स्वतंत्रता दिवस परेड में स्वयंसेवक संघ का परेड भी करवाया था।
आज जहाँ सरकार और प्रधानमंत्री की आलोचना को लेकर मीडिया की आवाज दबी हुई रहती है, कार्टूनिस्टों और हास्य कलाकारो के शो निरस्त करवा दिए जाते हैं, वहीं नेहरू अपनी आलोचनाओं को खूब हंसकर झेलते थे।
हिंदी के कवि नागार्जुन और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर खुलेआम अपनी कविताओ में नेहरू की आलोचना करते थे। दिनकर तो संसद के भीतर भी नेहरू से कड़े सवाल अपने कविताओं में पूछ लेते थे। पर मजाल है जो आज के दौर में कोई कवि या हास्य कलाकार प्रधानमंत्री को उनके सामने ही उंस स्तर की आलोचना कर दे।
कहते हैं कि नेहरू अपनी जय-जयकार से ऊब चुके थे। इसलिए उन्होंने नवंबर 1957 को “मॉडर्न-टाइम्स” नामक एक पत्रिका में क्षद्मनाम “चाणक्य” से खुद की ही आलोचना में एक जबर्दस्त लेख लिखा। उन्होंने पाठकों को नेहरू के तानाशाही रवैये के प्रति चेताते हुए कहा कि नेहरू को इतना मजबूत न होने दो कि वह ‘सीजर’ हो जाए।
ऐसा नही है कि नेहरू की असफलताएँ नहीं थी। निःसंदेह चीन के प्रति उनकी नीतियों में तमाम खामियां गिनाई जा सकती है। ऐसे और भी कई कमियां निश्चित ही रही होंगी नेहरू की नीतियों में लेकिन उनकी नीति से इतर नियत में कोई भी खामी नहीं थी।
उनकी नियत हमेशा भारत को कैसे मजबूत बनाया जाए, उसे विज्ञान और तकनीक के माध्यम से कैसे अपने पैरों पर खड़ा किया जाए। इसीलिये तमाम वैज्ञानिक संस्थायें जैसे IIT, IIM, BARC, ISRO आदि की स्थापना नेहरू ने किया। नेहरू चाहते थे कि घनघोर गरीबी और अंधविश्वास में जी रहे भारत के भीतर एक “साइंटिफिक टेम्परामेंट” विकसित किया जाए।
आज जब देश मे गोमूत्र के पीने से कोरोना और कैंसर जैसी बीमारियों को ठीक करने का दावा किया जाता है, नोटबन्दी के बाद लाइव टीवी प्रोग्राम में 2000₹ के नोट में चिप की तकनीक की बात होती है, देश मे बड़े स्तर पर मुद्राओं के ऊपर लक्ष्मी गणेश की तस्वीर लगाकर अर्थ-व्यवस्था को मजबूत करने की बात होती है.
मुंबई में डॉक्टरों की एक सभा मे प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि गणेश जी की उत्पत्ति यह दर्शाता है कि मानव शरीर के ऊपर हाँथो का सिर लगा देना प्लास्टिक सर्जरी की सबसे बड़ी मिसाल है; तो ऐसे वक्त में नेहरू के “साइंटिफिक टेम्परामेंट” वाली बात अपने आप मे काफ़ी प्रांसगिक लगने लगती है।
आज के वक़्त में शायद ही कोई ऐसा चुनाव हो जिसमें सांप्रदायिक हिंसा न हो, हिन्दू मुस्लिम कार्ड न खेला जाए। अभी प्रधनमंत्री और गृहमंत्री के गृहराज्य गुजरात में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, जिसका नेतृत्व भी यही दोनों नेता कर रहे है। प्रधानमंत्री की पार्टी BJP ने यहाँ इतने बड़े राज्य में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारे हैं।
अव्वल तो यह कि बिलकिस बानो नामक एक मुस्लिम महिला के बलात्कारियों को चुनाव के ठीक पहले जेल से छोड़ दिया जाता है, और फिर उन बलात्कारी व्यक्तियों में से एक को चुनाव का टिकट भी दिया गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या उनकी पार्टी इस से क्या संदेश देना चाहते है, यह बहुत स्पष्ट है।
वहीं एक नेहरू का दौर था जब प्रथम आम चुनाव हो रहे थे तब देश मे विभाजन और गाँधी की हत्या के बाद हर तरफ़ साम्प्रदायिकता हावी थी लेकिन चुनाव के वक़्त पूरे देश की जनता ने साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्त चुनाव में धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए मतदान किया था।
आप पंडित जी की नीतियों से खुश-नाखुश हो सकते हैं, उनके नियत पर सवाल करना आपके ही कद को बौना साबित करता है। यक़ीन मानिए नेहरू होना इतना आसान नहीं है। आज़ादी के 75 साल बाद भी नेहरू उतना ही प्रासंगिक हैं, जितना कल थे।