2014 के लोकसभा चुनाव हर लिहाज से ऐतिहासिक रहे। पिछली कांग्रेस सरकार के ढ़ीली नौकरशाही और घोटालों से त्रस्त आकर जनता ने भारी बहुमत से भाजपा के पक्ष में जनादेश दिया और नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही नरेंद्र मोदी विश्वपटल पर छा गए और उनकी गिनती वर्तमान परिदृश्य के सबसे शक्तिशाली नेताओं में होने लगी। 2014 लोकसभा चुनावों के बाद से देश में हुए हर विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया और कहीं बहुमत तो कहीं गठबंधन से सरकार बनाई। तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, पंजाब में पार्टी कभी सत्ता की लड़ाई में नहीं थी और हालिया संपन्न चुनावों में भी दूर ही रही। वहीं बिहार में मोदी लहर के विरुद्ध हुए महागठबंधन का दांव कामयाब रहा और नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनी।
नीतीश कुमार को 2019 में होने वालों लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में देखा जाता था। लेकिन कुछ दिनों से बिहार की राजनीति में मचे सियासी घमासान के बाद नीतीश कुमार भी भाजपा से आ मिले। इसके पीछे का कारण आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के पुत्रमोह और तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को कहा जा रहा है पर इसकी पृष्ठभूमि भी भाजपा ने तैयार की थी। बिहार के वरिष्ठ भाजपा नेता और वर्तमान उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने एक के बाद एक खुलासे कर लालू यादव के परिवार को उलझाये रखा और किसी भी आरोप में नीतीश कुमार पर कोई सवाल नहीं उठाए। इन्ही आरोपों को आधार बनाकर सीबीआई ने लालू यादव के 12 ठिकानों पर छापेमारी की और पूरे यादव परिवार को भ्रष्टाचार का आरोपी बनाया। यूँ तो सीबीआई स्वतंत्र जाँच एजेंसी है पर इस कार्रवाई में निश्चित तौर पर केंद्र की भूमिका भी रही होगी। यही बिहार में महागठबंधन टूटने का कारण बना और भाजपा का सबसे बड़ा विपक्षी उसके साथ आ खड़ा हुआ।
बढ़ता राजनीतिक प्रभुत्व
भाजपा ने सरकार बनाने के नियमों को ताक पर रखकर सबसे बड़ी पार्टी ना होने के बावजूद गोवा और बिहार में सत्ता हथिया ली। गोवा में भाजपा ने कांग्रेस के खिलाफ निर्दलीयों के सहयोग से सत्ता वापसी की वहीं बिहार में जेडीयू को समर्थन देकर लालू यादव की आरजेडी को सत्ता से बेदखल कर दिया। पूर्वोत्तर में भी भाजपा का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है। मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा को छोड़ दे तो पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में या तो भाजपा सत्ताधारी दल है या फिर सत्ता में सहयोगी है। राष्ट्रपति चुनावों के वक़्त त्रिपुरा से 6 तृणमूल विधायकों के भाजपा के साथ आने की भी खबरें आईं थी। पूरे भारत को भगवामय करने का मोदी-शाह की जोड़ी का सपना सच होता दिख रहा है।
बेड़ियों में कसती मीडिया की आवाज
एक वक़्त था जब मीडिया लोगों की आवाज हुआ करती थी। मीडिया प्रताड़ित और दबे-कुचले लोगों के आवाज उठाने का जरिया था। लेखों और रिपोर्टों का इतना प्रभाव होता था कि मजबूत से मजबूत सरकार की भी जड़ें हिल जाती थी। पर अब हालत पूरी तरह बदल चुके हैं। मीडिया सच को छुपा रही है। सरकार के नीति विरोधी लेखों को राष्ट्रद्रोह से जोड़कर देखा जाता है वहीं चाटुकारिता को पत्रकारिता का नाम दिया जाता है। लोकतंत्र के हनन को कुशल राजनीति कहा जा रहा है और विरोधी में उठ रही आवाजों को दबाने के लिए सरकारी दबाव को हथियार बनाया जा रहा है। पनामा पेपर्स लीक जैसे हाई प्रोफाइल मामलों में चुप्पी साधकर लालू यादव के कार्यकाल में हुए रेल घोटालों का खुलासा हो रहा है। वैसे यह ठीक भी है क्योंकि जनता के मनोरंजन के लिए कोई ना कोई खुलासा तो चाहिए होता है। सत्य और तथ्य के बीच का फर्क मिट गया है। अब आईना नहीं सरकारी आंकड़ें सच को बयाँ करते हैं और इन सरकारी आंकड़ों की हकीकत से हम वाक़िफ़ है। सरकारी आंकड़ें पूरी तरह सरकार द्वारा निर्धारित होते हैं, सरकार की तरह ही इनका भी वास्तविकता से नाता नहीं होता।
हाल ही में गुजरात राज्यसभा चुनावों में नामांकन दाखिल करते वक़्त भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने अपना व्यक्तिगत विवरण दिया। इसके तुरंत बाद कई मीडिया संस्थानों ने अमित शाह की सम्पत्ति में हुई 300 फ़ीसदी की वृद्धि और स्मृति ईरानी की डिग्री से जुड़ी खबरें प्रकाशित की। लेकिन कुछ ही घण्टों बाद बिना कोई वजह बताए इन खबरों को अख़बार की वेबसाइट से हटा लिया गया। ऐसा क्यों किया गया, किसकी आपत्ति पर किया गया इस सन्दर्भ में अभी कोई भी स्पष्टीकरण नहीं आया है। आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने एक प्रेस वार्ता में कहा था कि अमित शाह इस देश के ‘सुपर एडिटर’ बन गए हैं। कोई भी खबर छपने से पहले उनके आगे से गुजरती है। वही तय करते हैं कि क्या छापना है और क्या नहीं। बिहार में महागठबंधन से अलग हो नीतीश कुमार के भाजपा के साथ सरकार बनाने के बाद एक प्रमुख मीडिया संस्थान ने भाजपा पर तंज कसते हुए कहा था कि –
‘जहाँ का ईवीएम हैक नहीं होता, वहाँ का सीएम हैक कर लेते हैं’
राज्यसभा सदस्यता के लिए दाखिल हलफनामे में अमित शाह ने 2012 गुजरात विधानसभा चुनाव में दाखिल हलफनामे की अपेक्षा सम्पत्ति में 300 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी दिखाई है। अपने हलफनामे में अमित शाह ने बताया था कि किस तरह विगत 5 वर्षों में उनकी संपत्ति में इतनी वृद्धि हुई।
स्मृति ईरानी ने अपने हलफनामे में बताया है कि दिल्ली विश्विद्यालय के स्कूल ऑफ़ करेस्पॉन्डेंस से उनकी कॉमर्स में बैचलर डिग्री अभी पूरी नहीं हुई है। यही ब्यौरा उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनावों और 2011 के राज्यसभा चुनावों के वक़्त भी दिया था। 2004 में उन्होंने दिल्ली के चांदनी चौक से लोकसभा चुनाव लड़ा था और तब दिए गए ब्यौरे के अनुसार उन्होंने अपनी शैक्षणिक योग्यता दिल्ली विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ करेस्पॉन्डेंस से 1996 में बीए बताई थी। अब यह बात विचारने योग्य है कि एक ही वर्ष में एक ही संस्थान में दाखिला लेकर यह ही इंसान दो अलग-अलग कोर्स कैसे कर सकता है। और संयोग देखिये देश की शिक्षा प्रणाली के मुँह पर तमाचा मारने वाली इस विभूति को मौजूदा सरकार ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय का कार्यभार सौंप दिया था।
अब सवाल यह उठता है कि कौन है जो साक्ष्यों को छिपाना चाहता है? क्या भाजपा देश की राजनीति पर एकाधिकार स्थापित करने के बाद मीडिया को भी अपने अधिकार में लेना चाहती है? क्या अब एक पार्टी यह तय करेगी कि देश के लोगों को क्या खबर मिलनी चाहिए और क्या नहीं? और अगर सच में ऐसा है तो क्या वरिष्ठ भाजपाई लालकृष्ण आडवानी की आपातकाल जैसे हालातों वाली बात सच होने जा रही है? क्या तानाशाही लोकतंत्र के दरबार में दस्तक दे रही है और देश अघोषित आपातकाल की तरफ बढ़ रहा है?