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    रामनाथ कोविंद, दलित राजनीती, मोदी

    देश के चौदहवें राष्ट्रपति चुनाव बड़े चर्चित रहे। अपनी उम्मीदवारी से ही सुर्खियां बटोर रहे एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद ने अपनी विरोधी और यूपीए उम्मीदवार मीरा कुमार को बड़े मतों के अंतर से पराजित किया और आज उन्होंने देश के चौदहवें राष्ट्रपति के पद और गोपनीयता की शपथ भी ग्रहण कर ली। उनकी उम्मीदवारी से लेकर उनके राष्ट्रपति बनने तक के घटनाक्रम में जो सबसे चर्चित बिंदु रहा वह उनकी जाति ही थी। भाजपा ने उनकी उम्मीदवारी का दांव खेलकर दलित राजनीति की सूखती जड़ों को संजीवनी देने का काम किया है।

    अगर सर्च इंजन गूगल के आंकड़ों पर गौर करें तो रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी के बाद से उनके बारे में की गई सर्चों में उनकी जाति के बारे में जानकारी प्रमुख रही। विपक्ष और मायावती चाहे कितना भी बचाव कर ले पर भाजपा के इस कदम ने विपक्षियों के दलित वोटों के गणित को बिगाड़ कर रख दिया है। हालाँकि अब वो दौर गुज़र चुका है जब दलित के उत्थान का मुद्दा राजनीतिक पटल पर आन्दोलनों की शक्ल अख्तियार कर लेता था। फिर चाहे वह बाबासाहेब का उत्थान आंदोलन हो या कांशीराम की जागृति रैलियां।

    बाबासाहेब ने रखी थी नींव

    दलितों के उत्थान के लिए दलित राजनीति का श्रीगणेश बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर ने किया था। उन्होंने 24 सितम्बर, 1932 के पूना समझौते में दलितों के लिए अलग नेतृत्व की मांग की थी। फिर महात्मा गाँधी के यरवदा जेल में आमरण अनशन करने पर उन्होंने अपनी मांग को वापस ले लिया था। इस समझौते को ही देश में दलित राजनीति की शुरुआत माना जाता है। बाद में बाबासाहेब ने देश के संविधान रचना में अपना समग्र योगदान दिया और दलितों के हित में अनेक कार्य किये।

     

    दलित राजनीति का श्रीगणेश बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर

    उनके इस चलन को जगजीवन राम ने आगे बढ़ाया और जनसंघ ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। लेकिन वह चुनाव हार गई और जगजीवन राम पाला बदलकर कांग्रेस के साथ चले गए।

    जयप्रकाश नारायण के सत्याग्रह आंदोलन में बिहार से सक्रिय भूमिका निभाने वाले रामविलास पासवान कि गिनती भी उस दौर के कुशल दलित नेताओं में होती थी। लेकिन ये मुक्त रूप से अपना आधार तलाशने में असफल रहे और जीवन-पर्यन्त सहयोगी की भूमिका में रह गए।

    उस दौर में तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार के खिलाफ जाकर कांशीराम ने दलितों की आवाज को बुलंद किया था और दलित राजनीति को आधार बनाकर बसपा की नींव डाली जिसे मायावती ने नए मुकाम तक पहुँचाया। बसपा ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में प्रमुख पार्टी बनकर उभरी और काफी वक़्त तक देश की गिनी-चुनी राष्ट्रीय पार्टियों में रही। पार्टी उत्तर प्रदेश में दो बार भाजपा के सहयोग से सत्ता में रही और एक बार अपने दम पर पूर्ण बहुमत से। आज निश्चित तौर पर बसपा ने अपना जनाधार खो दिया है पर दलित विचारधारा पर वह आज भी सबसे सक्षम दलों में से एक है।

    कांशीराम और मायावती दलित

    बसपा के संस्थापक कांशीराम ने अपनी किताब ‘ऐज ऑफ़ स्टूज’ में लिखा है कि देश कि दलित राजनीति चमचागिरी करने वाले नेताओं के हाथ रही। जगजीवन राम जहाँ ब्राह्मणों की चमचागिरी करते थे वहीं रामविलास पासवान ने ठाकुरों की चमचागिरी की। इस वजह से दोनों ही स्वतंत्र रूप से देश के राजनीतिक पटल पर बेअसर रहे और सहयोगी की भूमिका निभाते रहे। अपनी इसी सोच के कारण इन्हें कभी नेतृत्व करने का अवसर नहीं मिला।

    राजनीतिक संभावनाएं

    रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति बनने से भाजपा में दलितों का विश्वास बढ़ा है और यह निश्चित तौर पार्टी की छवि को सुधारेगा। राष्ट्रपति यूँ कहने को तो देश का सर्वोच्च पद है पर राष्ट्रपति की शक्तियों से हम सभी वाक़िफ़ हैं। राष्ट्रपति एक गैर राजनीतिक पद है पर इस बार चुनावों में उसका भी राजनीतिकरण हो गया। भाजपा के नेताओं ने स्पष्ट कहा कि रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति बनने से उनके मिशन-2019 में मदद मिलेगी। मतलब स्पष्ट है कि दलित के कंधे पर बन्दूक रखकर सत्ता की कुर्सी के लिए निशाना साधा जा रहा है। ऐसे में रामनाथ कोविंद दलितों के लिए कितने हितकर साबित होते हैं ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा।

    विपक्ष भी इस मुद्दे पर दूध की धुली नहीं है। दलित वोटबैंक का आधार भाजपा की तरफ ना खिसक जाये, महज इस डर से उसने दलित प्रत्याशी मीरा कुमार को एक निश्चित हार के लिए चुनाव में खड़ा कर दिया था। नतीजा सबको पता था और वास्तविकता उससे भी बुरी रही। बिहार में जेडीयू ने महागठबंधन से खिलाफत की वहीं अन्य राज्यों से भी क्रॉस वोटिंग के मामले सामने आये। अब मायावती के राज्यसभा इस्तीफे को लेकर सरकार को घेरने के लिए विपक्ष एकजुट हो रहा है। अगर सच में विपक्ष को दलितों की फ़िक्र है फिर तो यह ठीक है पर अगर यह सिर्फ राजनीतिक दांव है तो देशहित और दलितों के हित में भी यह कारगर साबित नहीं होगा।

    देश में दलितों के उत्थान की समस्या आज भी जस की तस है। कहने को तो हमनें बहुत तरक्की कर ली है पर आज भी हम इस समस्या से बाहर नहीं निकल पाए हैं। आज भी देश में 90 फीसदी जगहों पर छुआछूत के मामले में पहले वाला परिदृश्य कायम है। देश में भूमिहीन दलितों की संख्या तकरीबन 58 फ़ीसदी है। भारतीय जेलों में बंद कुल कैदियों में दलितों का हिस्सा करीब 22 फीसदी है।

    दलित समुदाय रामनाथ कोविंद

    इन वास्तविक आंकड़ों से परे ओछी राजनीति करने में लगे इन दलों को दलितों के कल्याण के बारे में सोचना चाहिए। दलितों ने हमेशा ही अपना योगदान देशहित में किया है और अब हमें उनके हित में कार्य करने कि जरुरत है। इस देश में जब भी कोई महागाथा लिखी गई है वो दलितों ने ही लिखी है, फिर चाहे वो रामायण हो, महाभारत हो या फिर भारतीय संविधान।

    By हिमांशु पांडेय

    हिमांशु पाण्डेय दा इंडियन वायर के हिंदी संस्करण पर राजनीति संपादक की भूमिका में कार्यरत है। भारत की राजनीति के केंद्र बिंदु माने जाने वाले उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले हिमांशु भारत की राजनीतिक उठापटक से पूर्णतया वाकिफ है।मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक करने के बाद, राजनीति और लेखन में उनके रुझान ने उन्हें पत्रकारिता की तरफ आकर्षित किया। हिमांशु दा इंडियन वायर के माध्यम से ताजातरीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर अपने विचारों को आम जन तक पहुंचाते हैं।