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    जिग्नेश मेवाणी

    गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी भारतीय राजनीति में चमकते हुए सितारे व युवा नेता के तौरे पर जाने जाते है। दलितों के हितों की बात करने वाले नेता जिग्नेश ने अपने ही समुदाय को वामपंथी विचारधारा की वजह से मुसीबत में डाल दिया है। वामपंथी नेताओं के साथ मंच साझा करने में जिग्नेश की राय है कि भीमराव अंबेडकर के विचारों को मार्क्सवाद के अनुसार एक विचारधारा नहीं मानते है।

    जो मुख्य रूप से दलितों के गौरव और गरिमा पर ध्यान केंद्रित नहीं करती है। जिग्नेश मेवाणी का वामपंथी विचारधारा से जुडना दलितों मे बेचैनी पैदा कर रहा है। इससे दलित आंदोलन भी कमजोर हो सकता है।

    35 वर्षीय नेता जिग्नेश मेवाणी ने जिस तरह से दलितों के हक में आंदोलन का नेतृत्व किया था वो अब आने वाले समय में परेशानी में पड़ सकता है। दलित समुदाय अपनी राजनीति के बारे में चिंतित है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके आंदोलन को जल्द ही नेतृत्व निर्वात होने का सामना करना पड़ सकता है।

    जिग्नेश से पहले मायावती ने दलितों का नेतृत्व किया था लेकिन वर्तमान में मायावती का दबदबा खत्म होने के कगार पर है। अब जिग्नेश ही दलित राजनीति के भविष्य के विकल्प के तौर पर देखे जा रहे है।

    कन्हैया कुमार, उमर खालिद और शेहला राशिद जैसे नेताओं के साथ दिख रहे है जिग्नेश

    9 जनवरी को होने वाली रैली में जिग्नेश मेवाणी ने कन्हैया कुमार, उमर खालिद और शेहला राशिद जैसे युवा वामपंथी नेताओं के साथ मंच साझा किया था। जिसके बाद उनके विचार भी दलित हितों से कम होकर वामपंथी विचारधारा की तरह मिश्रित हो गए है। मेरठ कॉलेज के एक सहयोगी प्रोफेसर ने कहा कि जिग्नेश मेवाणी को सुनने के लिए दिल्ली में कई लोग गए थे।

    मेवाणी के दिल में दलितो के लिए पर्याप्त रूचि मेरठ रैली के दौरान भी देखी गई थी। प्रोफेसर ने कहा कि जिग्नेश मेवाणी दलित आंदोलन का हिस्सा बनकर ही दलित नेता बन सकते है न कि कम्युनिस्ट नेताओं के साथ हाथ मिलाकर।

    कांग्रेस नेता जगजीवन राम और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का उदाहरण देते हुए प्रोफेसर ने कहा कि दोनो नेताओं को दलितो द्वार अपना नेता बताया जाता है जबकि जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार व पासवान के बेटे चिराग को दलित समुदाय अपना नेता नहीं मानता है। क्योंकि वे कभी भी दलित आंदोलन का हिस्सा रहे ही नहीं थे।

    इसी परिपेक्ष्य में मेवाणी को भी वाम दलों के साथ एक मंच साझा करने से पहले दलित नेता के तौर पर अपनी पहचान स्थापित करनी चाहिए। दलित समुदाय नीले रंग को कम्युनिस्ट लाल में बदलने की इजाजत नहीं दे सकते।

    मायावती

    दलितों व कम्युनिस्टों में अविश्वास का इतिहास

    अम्बेडकरियों ने कम्युनिस्टों के प्रति अविश्वास ठहराया है। दलितों को हमेशा से ही कम्युनिस्टों की विचारधारा पसंद नहीं आती है। दलिता जहां पर जाति व वर्ग संघर्ष के खिलाफ लडते है। वहीं कम्युनिस्ट आर्थिक ढांचे (आधार) में व्यापक परिवर्तन से समाज की स्थापना पर बल देता है।

    दलित समुदाय जहां पर जातिगत भेदभाव के खिलाफ होता है वहीं कम्युनिस्ट आर्थिक ढांचे से संबंधित व्यवस्था पर अपनी विचारधारा रखता है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति ने 1952 में एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें अम्बेडकर को “साम्राज्यवादी” और “अवसरवादी” नेता कहा गया था। भारत मे जाति व वर्ग आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है।

    दलित आंदोलन कमजोर हो चुका है क्योंकि वे उप-जातियों में बंट गया है। जबकि कम्युनिस्ट आंदोलन आज भी वर्ग की बात करते है। दलित नेता जिग्नेश मेवाणी को पहचान दलित आंदोलन के तौर पर ही मिली है।

    मेवाणी की मांग है कि हर भूमिहीन दलित परिवार को पांच एकड़ जमीन दी जानी चाहिए जिसके लिए जमकर विरोध-प्रदर्शन भी किया जा रहा है। मेवाणी की राजनीति, दलित अभिजात वर्ग के लिए भी एक चुनौती है। दलितों के गरीब वर्ग जहां पर मेवाणी का साथ देते है वहीं दलित मध्य वर्ग मेवाणी का विरोध कर सकते है।

    लेखक और शिक्षाविद् कांचा इलियाह शेफर्ड के मुताबिक मेवाणी की राजनीति समय के अनुसार वामपंथियों के साथ जुडना ठीक है। हिंदुत्व संविधान के लिए एक खतरा बन गया है और अम्बेडकर को हड़पने का प्रयास करता है। मेवाणी दलितों व वामपंथियों को एकजुट करने पर काम कर रहे है।

    अंबेडकर

    वामपंथियों ने कम से कम केरल और तेलंगाना में जिला स्तर पर दलितों को नेतृत्व ढांचे में शामिल कर लिया है। वहीं अंबेडकरियों को वामपंथियो के बारे में नए सिरे से विचार कर उन्हें साथ में लेकर चलना चाहिए। वामपंथी नेता भी दलित नेता जिग्नेश मेवाणी को साथ में चलने को कह रहे है।

    समाजवादी विवेक कुमार की माने तो उनके मुताबिक मेवाणी एक मीडिया निर्माण के तौर पर काम कर रहे है। उन्हें वो स्थान मीडिया में दिया जा रहा है जो दलित नेताओं को नसीब तक नहीं होता। उनके पास एक संगठन भी नहीं है उन्हें राजनीतिक परिपक्वता का अभाव है उसके बावजूद भी वे विधायक का चुनाव जीते है।

    आगे सवाल किया कि ऐसा क्यों है कि गरीबों के लिए काम करने के कई सालों के बाद, दलितों को नेतृत्व के ढांचे से काफी हद दूर रखा गया है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मे भी सीपीआई कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र नेता दलित छात्र के चुनाव लडने में साथ नहीं देते है। दलित नेता को नामाकंन भरने में भी ये कम्युनिस्ट नेता परेशानी पैदा करते है।

    पंजाब विश्वविद्यालय के राजनीतिक वैज्ञानिक रोन्की राम के मुताबिक मेवाणी पहले दलितों को मजबूत करने का प्रयास करते है। पंजाब की आबादी में 34 प्रतिशत हिस्सा दलितों का है लेकिन वे मुख्य चेहरे में नहीं है।

    वर्तमान राजनीति की बात की जाए तो जिग्नेश मेवाणी लाखों युवाओं की आवाज बने हुए है। मेवाणी का वैचारिक प्रमाण बहुत प्रभावशाली है। यूपी में अगर जिग्नेश मेवाणी मायावत की आलोचना करेंगे तो यूपी के दलित उन्हें नेता नहीं मानेंगे। क्योंकि यूपी में अभी भी मायावती को ही वे अपना दलित नेता मानते है।