संसद का शीतकालीन सत्र निर्धारित अवधि से लगभग 1 हफ्ते पहले ही समाप्त ( Early Ending of Winter session 2022) कर दिया गया। इस सत्र में मात्र 13 दिन संसद की बैठकें हो सकीं और इस तरह से यह संसद-सत्र 17वें लोकसभा का सबसे छोटा सत्र रहा।
सरकार ने इस फैसले के पीछे क्रिसमस और न्यू ईयर की छुट्टियों का हवाला दिया है वहीं दूसरी तरफ विपक्ष ने सरकार के मंसूबे पर सवाल किया है।
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से नई ऊर्जा से ओत-प्रोत मुख्य विपक्षी दल ने इसे लेकर वर्तमान मोदी सरकार पर निशाना साधा। इस पूरे शीतकालीन संसद-सत्र के दौरान विपक्ष सरकार से तवांग में हुए चीन के साथ सैन्य मुठभेड़ को लेकर चर्चा की मांग करता रहा; वहीं सरकार इसे देश के सुरक्षा का मसला बताते हुए चर्चा नहीं होने देना चाहती थी।
Even as the Modi Govt refuses to debate important issues in the house we would keep raising the voice of the people in the abode of Democracy.
Leaders from like-minded opposition parties discussing the floor strategy. pic.twitter.com/uT1KqRbwla
— Leader of Opposition, Rajya Sabha (@LoPIndia) December 22, 2022
छोटे होते संसद-सत्र: गंभीर लोकतांत्रिक मसला
PRS Legislative Research के अनुसार 17वें लोकसभा के 10 सत्रों में से 8 संसद-सत्र निर्धारित समय से पहले ही समाप्त किये गए हैं। आज 1950s और 1960s के मुकाबले वर्तमान में संसद-सत्रों की बैठकें लगभग आधी हो गयी हैं।
वर्तमान सरकार में आज न सिर्फ सत्र छोटे हो रहे हैं बल्कि संसद में पेश होने वाले कई महत्वपूर्ण बिलों (Bills) पर बिना चर्चा या संक्षिप्त चर्चा के पास कर दिया जा रहा है।
वर्तमान 17वें लोकसभा में ऐसे बिलों की प्रतिशतता 72% रही जिन्हें एक ही संसद-सत्र में पेश किए गए और उसी सत्र में पास भी कर दिया गया। यह पिछले 3 लोकसभाओं में सबसे ज्यादा है। ज्ञातव्य हो कि 16वें और 15वें लोकसभा में यह प्रतिशतता क्रमशः 43% और 32% थीं।
दूसरा, इस 17वें लोकसभा में अभी तक मात्र 23% बिल (Bills) ऐसे रहे हैं जिन्हें संसद की कमिटीयों को पुनरीक्षण के लिए भेजा गया है। यह पिछले 3 लोकसभाओं में सबसे कम है। 14वें लोकसभा में यह संख्या 60%, 15वें में 71% जबकि 16वें में 27% थीं।
इसे लेकर एक तरफ जहाँ सरकार सत्र की कार्यवाही और उत्पादकता (Productivity) पर अपनी पीठ थपथपाने का कोई मौका नहीं छोड़ रही हैं वहीं दूसरी तरफ विपक्ष इस बात को लेकर हंगामा और शिकायत कर रहा है कि सरकार पूर्ण बहुमत में होने के कारण बिना चर्चा के बिल पास कर रही है।
संसद को इस देश मे लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत कहा जाता हैं जहाँ देश के अलग अलग हिस्सों से चुनकर (लोकसभा में प्रत्यक्ष तथा राज्य सभा में अप्रत्यक्ष रूप से) चुनकर आने वाले जनप्रतिनिधि आम-जनता के सरोकार से जुड़े मुद्दे पर वाद-विवाद और बहस करते हैं।
इस बहस के बाद निकले निर्णय, जो कानून के रूप में हमारे देश में लागू किया जाता है, देश उसी निर्णयों से बंधकर चलता है। बिलों पर बिना सम्पूर्ण और गंभीर चर्चा के पास किया जाना फिर संसद सत्रों का छोटा होते जाना लोकतांत्रिक मूल्यों के लिहाज से निश्चित ही एक गंभीर मसला है।
संसद का न चलना किसकी जिम्मेदारी?
यह सत्य है कि संसद-सत्र को सुचारू रूप से चलाने की प्रथम जिम्मेदारी सत्ता में बैठी सरकार की बनती है लेकिन विपक्ष भी संसद की बैठकों को लेकर एकजुट और गंभीर नहीं दिखाई पड़ती है। उदाहरण के लिए इसी शीतकालीन संसद-सत्र को देखें तो चीन के साथ हुए सैन्य टकराव के अलावे भी कई ऐसे मुद्दे थे जिसे लेकर विपक्ष सरकार की नीतियों को घेर सकती थी।
जैसे- दिल्ली के बगल में स्थित हरियाणा के गुड़गांव में बजरंग दल द्वारा मुस्लिमों के नमाज़ को एक बार फिर भंग किया जाना या दिल्ली से थोड़ी दूर उत्तर प्रदेश के बरेली में इकबाल द्वारा लिखे गाने को एक स्कूल के प्रातःकालीन प्रार्थना सभा मे गाये जाने को लेकर उत्पन्न विवाद या श्रद्धा वॉकर मर्डर केस जैसे क्रूर घटनाओं को समाज के अलग अलग हिस्सों से लगातार सामने आना आदि…
यह वे मुद्दे थे जिनकी चर्चा समाज के लिए अतिमहत्वपूर्ण तो हैं ही, साथ ही विपक्ष को एक मौका भी था कि वह बीजेपी को बढ़ते सांप्रदायिकता के मुद्दे पर घेर सकती थी। लेकिन बस एक मुद्दे (चीन के साथ सैन्य टकराव) को लेकर बैठ जाने से ये मुद्दे भी गौण हो गए।
कुल मिलाकर एक तरफ सरकार जहाँ लोकतांत्रिक मूल्यों से ज्यादा बिल पास किये जाने के स्ट्राइक रेट पर ध्यान दे रही है वहीं दूसरी तरफ विपक्ष भी जान-सरोकार से ज्यादा अपनी राजनीतिक क्षवि और राजनीतिक-लक्ष्य को साधने में जुटी हुई मालूम पड़ती है।
सरकार किसी भी पार्टी की हो; चाहे कितना भी स्पष्ट बहुमत हो लेकिन संसद की मूल्यों को दरकिनार राजनीतिक फायदे के लिए संसद-सत्रों का छोटा होना भारतीय लोकतंत्र के लिए निःसंदेह एक गंभीर मसला है।