छठ की रेल- दृश्य 1: मान लीजिए, आप त्योहार पर अपने घर जाना चाहते हैं। आपकी यात्रा का आरक्षित टिकट आपके पास है। लेकिन जब आप अपनी ट्रेन पकड़ने जाते हैं तो उस 72 सीट की क्षमता वाले आरक्षित श्रेणी के डब्बों में 720 लोग इस कदर ठूस ठूस के भरे हैं कि आपको ट्रेन के डब्बे में घुसने नहीं दिया जाता है जिसमें आपकी सीट आरक्षित है; या फिर किसी तरह धक्कामुक्की कर के डब्बे में घुस भी गए तो अपनी सीट तक नहीं जाने दिया जाता है; या उस पर पहले ही 20 लोग बैठे हैं और आपके लाख कहने के बाद भी आपको अपनी ही आरक्षित सीट पर बैठने के लिए ऐसी लड़ाई लड़नी पड़े मानो किसी ने आपकी जमीन हड़प ली हो।
दृश्य 2: फर्ज करिए कि आप अपने दोस्तों के साथ घर जा रहे हैं। किसी तरह करंट रिजर्वेशन या तत्काल या चालू टिकट लेकर आप और आपके दोस्तों की मंडली खचाखच भरे ट्रैन में घुस गए । परंतु ट्रैन में इतनी भीड़ है कि आपके किसी दोस्त का आपके सामने दम घुटने लगे लेकिन न बाहर जा सकते हैं ना खिड़की के तरफ जा सकते हैं। आपके दोस्त की साँस इस क़दर उखड़ जाए कि शनैः शनैः उसकी मौत हो जाती है और आप किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बस अपनी किस्मत को कोसते रह जाएं।
उपरोक्त दृश्य किसी नाटक के मंचन की दृश्य नहीं है बल्कि हक़ीक़त में यह सब भारतीय रेल (Indian Railways) में आजकल हो रहा है। वे लोग जो अपने गृहराज्य से पलायन कर दूसरे राज्यों में कहीं इमारतों और पुलिया बनाते हैं, कहीं फसलें काटते हैं और उन राज्यो को समृद्ध कर रहे हैं; वही लोग दीपावली और छठ जैसे त्योहार अपने परिवार के साथ मनाने के लिए हर साल जिंदगी की जंग लड़ रहे होते हैं।
छठ महापर्व बिहारियों और पूर्वांचलियो (UP) के लोगों के लिए साल का सबसे पवित्र त्योहार है। इसे लेकर लोकआस्था ऐसी कि दीपावली से लेकर छठ के बीच बिहार से बाहर दूसरे राज्यों में रह रहे करोड़ो प्रवासी लोग वापस अपने गाँव-घरौंदे वापस लौटना चाहते हैं।
लेकिन इसे विडंबना कहिए या नियति कहिए कि जिस तरह पंचांगों में हर साल दीपावली और उसके बाद छठ (Chhath Festival) का आना निश्चित होता है उसी तरह दीपावली और छठ (Deepawali & Chhath) पर दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, पुणे, लुधियाना आदि से बिहार की तरफ़ जाने वाली खचाखच भरी ट्रेनें और सांस लेने को तरसते यात्रियों की तस्वीरें भी निश्चित है।
ऐसा भी नहीं है कि यह आज की तस्वीर है बल्कि हर साल, हर राज और हर सरकार में यही तस्वीरे रही हैं। यह कौन सी व्यवस्था है कि सबसे पवित्र त्योहार छठ (Chhath) को मनाने के लिए घर जा रहे लोग शौचालयों की बदबू और सांस की घुटन के साथ सफ़र करने को मजबूर हैं। क्या हम इतने क्रूर होते जा रहे हैं कि सरकार, राजनीति और समाज को इन सब तस्वीरों से कोई फर्क नहीं पड़ता?
छठ में रेलवे के “suffer” की खबरों से बेख़बर ‘हम’
देश इन दिनों क्रिकेट वर्ल्ड कप के सेमीफाइनल की जीत और फाइनल में पहुंचने का जश्न मना रहा है। कुछ लोग इस बात की खुशियां आज ही बाँट रहे हैं कि देश अगले दशक तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी। किसी को इजरायल द्वारा हमास के ऊपर की जा रही कार्रवाई जिसमें हजारों निर्दोष लोगों की मौत हो चुकी है, उसमें मजा आ रहा; और हाँ इन सब के बीच एक कॉमन मुद्दा है कि आगामी चुनावों में कौन कहाँ जीत रहा है, किस राज्य में किसकी सरकार बनने जा रही है।
इन सब तमाम खबरों के बीच टीवी और अखबारों से वे खबरें ग़ायब हैं जिसमें भारत की एक बड़ी आबादी कठिनाइयों और परेशानियों से जूझ रही है। क्या इसलिए कि ये लोग ग़रीब हैं? क्या इस कुव्यवस्था को इन लोगों की नियति मानकर इस से लड़ने के लिए इन्हें ‘आत्मनिर्भर’ बनाकर छोड़ दिया गया है?
भारत के रेलमंत्री (Railway Minister of India, Ashwini Vaishnaw) अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर हर दूसरे दिन ‘वंदे भारत (Vande Bharat Express)’ के तमाम रंगों को पेंट करते रहते हैं; बुलेट ट्रेन जो अभी चली भी नहीं है या जो शुरू होने के पहले ही अपने टाइम से विलंबित हो चुकी है, उसकी एनिमेशन की तस्वीरें उनके एकाउंट से आये दिन साझा किया जाता है; अमृत भारत स्टेशन की चमकीली एनीमेटेड तस्वीरों का चकाचौंध फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, ट्विटर आदि पर आए दिन पोस्ट करते रहते हैं।
इस भविष्य के सपनों के बीच हम सब शायद भूल जाते हैं कि दीपावली और छठ पर एक उलट तस्वीर जो भारतीय रेल में दिखती है. दरअसल, यह तस्वीर उस ‘भारत’ की है जो ट्रैन के डब्बे में इस तरह ठूंसकर यात्रा करने पर मजबूर है कि अंदर झाँको तो पता ना चले कि इस ट्रेन में इंसान ही यात्रा कर रहे हैं या इंसान भी उनके सामान के तरह ठूंस दिए गए हैं हों।
लोग शौचालयों से लेकर ट्रेन के दरवाजे पर बने पायदानों पर लटके होते हैं; खिड़कियों से बाहर ताकती आँखों में घर जाने की चहक तो है लेकिन उसके ठीक नीचे स्थित नाक लगातार साँसे बनाये रखने को जूझ रहा होता है ताकि दम न घुटे और सही सलामत घर पहुंच पाए।
इन लोगों की ना तो कोई सेल्फी ही ट्विटर (X) पर अपलोड होती है जिसमें रेलमंत्री (Ashwini Vaishnaw) और रेलसेवा को टैग कर के मदद मांगी जा सके; ना ही ये इतने सौभाग्यशाली हैं कि इनके दुःख दर्द को मिडिया प्रमुखता से दिखाकर रेलमंत्री या व्यवस्था से कोई सवाल पूछ सके।
रेलवे द्वारा इस चुनौती से निपटने के उपाय नाकाफ़ी
ऐसा नहीं है कि भारतीय रेलवे (Indian Railways) को यह नहीं मालूम होता है कि दीपावली और छठ को लेकर स्टेशनों पर इतनी बड़ी संख्या में भीड़ उमड़ेगी। उन्हें यह बखूबी मालूम होता है क्योंकि यह स्थिति कोई एक साल की बात नहीं, बल्कि यह हर साल ही रहती है मानो कोई परंपरा है।
इसे देखते हुए रेलवे ने कई जरूरी उपाय भी किये लेकिन वे तमाम प्रयोग-अनुप्रयोग नाक़ाफी साबित हो रहे हैं। रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव (Ashwini Vaishnaw) के 21 अक्टूबर को X Post की मानें तो छठ और दीपावली आदि त्योहारों को देखते हुए कुल 283 स्पेशल ट्रेन चलाईं जो कुल 4480 फेरें लेंगी।
Puja, Diwali, Chhath के अवसर पर भारतीय रेल की विशेष सुविधा। pic.twitter.com/XhaAkQMn2q
— Ashwini Vaishnaw (@AshwiniVaishnaw) October 21, 2023
इसके अलावे भीड़ को व्यवस्थित तरीके से ट्रेनों में घुसने-उतरने तथा स्टेशन-परिसर में व्यवस्था बनाये रखने के लिए बड़ी संख्या में जीआरपी और RPF जवानों की तैनाती की गई है। महिला यात्रियों की सुरक्षा और व्यवस्थित यात्रा सुनिश्चित करने के लिए हर स्टेशन पर ‘मेरी सहेली’ अभियान चलाए जा रहे हैं।
ऐसे में सवाल यह कि इतना सब के बावजूद आख़िर क्या वजह है कि लोग इतनी अव्यवस्था और परेशानियों से दो-चार हो रहे हैं? आखिर रेलवे के इतने सराहनीय कदम उठाए जाने के बावजूद यह सब नाक़ाफी क्यों साबित होता है?
कुछ सुझाव के कदम जो छठ जैसे मौके पर रेलवे को उठाने चाहिए
1. पूजा स्पेशल ट्रेनों को कम से कम 3 महीने पहले घोषणा कर देनी चाहिए। इसकी बुकिंग भी साधारण दिनों में बुकिंग के तरह होनी चाहिए यानि यात्रा दिनांक से 4 महीने (120) पहले से ही। इस से न सिर्फ़ लोगों को अपनी यात्रा की योजना बनाने में मदद मिलेगी, बल्कि रेलवे को भी अंदाजा हो जाएगा कि किस रूट पर कितनी और ज्यादा या कम ट्रेनों की जरूरत है या पहले से चलाए जा रहे ट्रेनों में बोगियों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है।
2. स्पेशल ट्रेन का भरपूर और भरसक प्रचार होना चाहिए। ट्विटर पर एक पोस्ट डालने या किसी न्यूज़पेपर के किसी छोटे से कोने में विज्ञापन देने से यह घोषणा उन लोगों तक पहुंच ही नहीं पाती जो असल में भीड़ बनकर इन ट्रेनों में घर जाने को मजबूर होते हैं।
3. कई रुट पर यात्रियों को ब्रेक-जर्नी की सुविधा दी जा सकती है। उदाहरण के लिए ज़ अगर किसी व्यक्ति ने सूरत (गुजरात) से मुजफ्फरपुर (बिहार) तक का टिकट लिया है तो उसके लिए एक ट्रेन के बजाए उसी किराए में वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर दिल्ली, जयपुर या कानपुर, प्रयागराज जैसे स्टेशनों पर सफ़र को तोड़ तोड़ कर जाने की सुविधा हो।
4. ट्रेनों को लेट होने से बचाना भी एक मक़सद होना चाहिए। इसके लिए मालगाड़ी, आम दिनों की ट्रेनें और स्पेशल ट्रेन को अलग अलग डेडिकेटेड रूट पर यथासंभव चलाई जाए।
5. भीड़ को नियंत्रित करने और व्यवस्था को बनाये रखने के लिए प्रशासन और व्यवस्था को स्वयंसेवी संस्थाओं से मदद लेनी चाहिए। इस से यात्रा के बीच मे भी इन संस्था के सदस्यों और रेलवे स्टाफ की टीम लोगों के यात्रा को सुगम और सफल बनायें।
कुलमिलाकर छठ मनाने घर जाने की जद्दोजहद में लोग ‘सफ़र’ करने को मजबूर हैं- लेकिन यह ‘सफ़र’ हिंदी वाला कम, अंग्रेजी वाला ‘Suffer’ ज्यादा है- जिसका मतलब “दुःख या कष्ट” होता है।
इन लोगों की बस इतनी ख्वाहिश होती है कि रेल आने के घंटो पहले लाइन लगाकर भी साधारण डब्बों में घुसकर अपने लिए बस इतनी जगह किसी तरह मिल जाये ताकि वह किसी तरह कमर टिकाकर उसी अवस्था मे 15-18 घंटे तक यात्रा करके अपनों के बीच जाकर त्योहार मना सके।